Monday, July 6, 2009

वह एक शाम

प्रिय धीरज,
कैसे हो मेरे बच्चे?
उस शाम मुझे सचमुच बहुत अच्छा लगा। बहुत, बहुत, बहुत अच्छा। मेरे जीवन का अनमोल व स्मरणीय समय। मैं सोच भी नहीं सकती थी कि ऐसा क्षण भी मेरे जीवन में आ सकता है। तूने मुझे वो समय दिया, वो क्षण दिया-आई लव यू मेरे बच्चे।
बारह मार्च दो हज़ार सात! यही दिन था न वो, तेरे चकित कर देने वाले निमंत्रण का। मेरी याददाश्त चाहे कितनी भी कमज़ोर हो जाए मगर मैं वह दिन नहीं भूलूँगी, कभी नहीं। उससे पहली वाली रात को, देर रात को जब तेरा फ़ोन आया तो मैं चौंक गई थी, किसी अनिष्ट की आशंका से आशंकित। और जब तूने कहा, 'क्या कल मेरे साथ डिनर पर चल सकती हो?' तो मैं सोच में पड़ गई थी। फिर साथ में तुमने ये भी जोड़ा था, 'सिर्फ़ हम दोनों।'
मुझे 'हाँ' तो कहना ही था पर मैंने सोचने के लिए काफ़ी समय ले लिया।

और अगले दिन, यानि बारह मार्च दो हज़ार सात।
मैं सुबह से ही रोमांचित थी, इसी कारण से रात को ठीक से सो भी नहीं पाई थी। मुझमें बदलाव देखकर नौकरानी भी अचंभे में थी। शायद वो भी सोच रही थी कि ये बुढ़िया पागल हो गई है? मैं आज की शाम के बारे में किसी को तो बताना चाहती ही थी, मैंने उसे बताया। मुझे नहीं मालूम उस पर क्या असर पड़ा क्योंकि मैं अपने में ही मगन थी। सचमुच अजीब-सा पागलपन छा गया था।

मैं समझ नहीं पा रही थी कि शाम के लिए क्या पहनूँ। अंतत: मैंने अपनी वो साड़ी निकाली जिसे मैं आखिरी बार तेरे पिता के साथ पहन कर गई थी, लगभग दस साल पहले। उनकी याद आते ही मैं रो भी पड़ी थी। फिर मुझे ऐसा लगा जैसे शाम को मैं उन्हीं के साथ जाऊँगी। सच मेरे बच्चे, तूने मुझे उनका 'साथ' दे दिया। वैसे भी तू उनका ही तो प्रतिरूप है।
मैं जानती हूँ, हम बहुत कम मिल पाते हैं। तू काम में बहुत व्यस्त रहता है, परिवार की ज़िम्मेदारी और सौ बातें। फिर मैं भी तो अपने अकेलेपन से बाहर नहीं निकल रही हूँ। तेरा यह प्रस्ताव मेरे जीवन में हलचल मचाने वाला था। अगर उस शाम तू अपने परिवार के साथ मुझे ले जाता तो वह एक साधारण शाम ही बनकर रह जाती।
तुझे यह पत्र लिखते हुए भी मैं उस दिन को जी रही थी। वह समय काटे नहीं कट रहा था, शाम के इंतज़ार में दिन गुज़रकर ही नहीं दे रहा था। मुझे ऐसा लग रहा था मैं कम से कम तीस साल छोटी हो गई हूँ। चुलबुलापन, बेचैनी, घबराहट, रोमांच सब आ जा रहे थे। मैंने शाम होने से पहले ही तैयार होना शुरू कर दिया था। दिन में तेरा कोई फ़ोन नहीं आया था और शाम को भी नहीं। मैं जानती हूँ तू फ़ोन बहुत कम करता है। तू सीधा मुझे लेने आ जाएगा।

और... और जब तू आया। तुझे देखकर मैं थोड़ा घबरा-सी गई थी। मेरे साठ साल पुराने चेहरे पर शरमाई हुई चमक थी। शायद तू भी थोड़ा घबराया हुआ था इसलिए तूने मेरे 'लुक' की तारीफ़ नहीं की थी। या शायद ये भी कारण रहा हो कि बेटा माँ की सुंदरता की कैसे तारीफ़ कर सकता है? फिर भी, हम दोनों की हालत एक जैसी थी। एक बार तो मैं भी शंकित हो गई थी कि इस घबराहट में पता नहीं हमारी शाम का क्या अंजाम होगा?
मुझे उस समय लगा था कि हमारी इस घबराहट का संबंध तेरे उस निमंत्रण से जुड़ा था और यह बात उस समय साफ़ भी हो गई थी जब तूने मुझसे मेरा हाल चाल पूछा, ख़ासतौर पर आज दिन भर की दिनचर्या का। मैंने बताया कि आज दिन भर मैं बस शाम होने का ही बेचैनी भरा इंतज़ार करती रही तो तूने भी यही कहा कि आज दिन भर में तुझसे भी ऑफ़िस में कोई काम नहीं हुआ, बस शाम के बारे में ही सोचता रहा।
तेरे आने से पहले मिसेज वर्मा से बात हुई थी। मैंने उसे भी हमारे डिनर के बारे में बताया था तो वह बहुत हैरान हुई थी फिर उसने हँसते हुए कहा था, 'तो बुढ़िया बेटे के साथ डेट पर जा रही है।'
'हाँ, मैं डेट पर जा रही हूँ।' ये बात मैं सारी दुनिया से कहना चाहती थी। यह मेरी ज़िंदगी का सबसे हसीन पल था। मेरे जीवन का यह हिस्सा कभी लौट कर नहीं आने वाला था, साठ की दहलीज पर बैठी औरत के लिए तो बिल्कुल भी नहीं, इसलिए मैं उसे भरपूर जी लेना चाहती थी। ख़त्म होती ज़िंदगी में फिर से प्राण भरना चाहती थी।
घर से बाहर निकलते हुए ऐसा लगा मैं तेरे पिता के साथ जा रही हूँ। तूने मेरे लिए कार का दरवाज़ा खोला और मैं शान से साड़ी का पल्लू सँभालती हुई बैठी। ढेर सारे पुराने दिन न जाने कहाँ-कहाँ से आकर मेरे भीतर गिरते-पड़ते रहे और मैं उन्हें सँभालने की कोशिश किए बिना ही इकट्ठा करती रही।
तूने रेस्तराँ की पसंद पूछी थी, मैंने ये तुझ पर छोड़ा क्योंकि निमंत्रण तेरा था। मैंने सोचा था कि तू पहले से ही जगह निश्चित कर चुका होगा।
लोदी, द गार्डन रेस्टोरेंट।
तेरा चुनाव सचमुच बहुत अच्छा था। हम प्रकृति के बीच थे। हम भीतर न बैठकर बाहर बगीचे में बैठे जहाँ ठंडक तो थी पर सिहरन वाली नहीं। मुझे बैठाने के लिए तूने मेरे लिए कुर्सी सरकाई। मेरे बैठने के बाद तूने हौले से मेरे कंधों को छुआ और मेरे सामने बैठ गया। उस एक क्षण में मेरी आँखें भरी और खाली हुईं। मैन्यू बुक हम दोनों पढ़ रहे थे। लेकिन जल्द ही तूने पटक दी और कहा था, 'मम्मी आप ही आर्डर करो।`
मुझे याद आया जब तू छोटा था और जब कभी हम रेस्तराँ में आते थे तो मैं ही आर्डर करती थी, तेरे पिता भी मेन्यू फेंक दिया करते थे। बड़ी अजीब स्थिति हुआ करती थी, मैं घर में भी तुम लोगों की पसंद का खाना बनाऊँ और यहाँ भी तुम लोगों के लिए खाना पसंद करूँ। याद का एक और काँटा हौले से चुभकर अपना एहसास करा गया।

एक अच्छे बच्चे की तरह तूने मुझसे बीयर पीने की आज्ञा माँगी। डिनर के दौरान हमारे बीच जो बातें या जितनी बातें हुई थीं वो शायद हमारी ज़िंदगी में कभी नहीं हुई होंगी। तूने शायद ही कभी मुझसे इतनी बातें की जितनी उस दिन की। तेरे काम और उसमें तेरी व्यस्तता के बारे में काफ़ी विस्तार से बातें हुईं कि तू फाइनेन्स के काम में अपना टारगेट पूरा करने के चक्कर में दिन रात व्यस्त रहता है। फिर पत्नी, परिवार और तेरे भाई और बहन के बारे में काफ़ी बातें हुईं। तूने कहा था कि तू समय निकालकर अपने बहन भाई और उनके परिवारों के साथ भी वक्त बिताना चाहेगा। जीवन की व्यस्तता में जो संबंधों में रूखापन आ गया है, उसे फिर से हरा भरा करना चाहता है। भगवान तेरी यह इच्छा ज़रूर पूरी करे। मुझे तुझ पर बहुत प्यार आया मेरे बच्चे। आखिर को, तुझे रिश्तों की पहचान होने लगी। अपनों का साथ सचमुच बहुत सुखद होता है क्योंकि अपने परिवार से बढ़कर कोई चीज़ नहीं है। ईश्वर भी उसके बाद आता है।
तूने एक बात और भी कही थी कि आज के इस इन्टरनेट के दौर में हम चैटिंग और अन्य माध्यमों से दुनिया में दोस्त बना रहे हैं, संबंधों को बढ़ा रहे हैं मगर अपने पारिवारिक संबंधों को अनदेखा कर देते हैं, उनके प्रति उदासीन रहते हैं।

हमारे बीच सबसे बढ़िया बात ये रही कि न मैंने तुझसे कोई शिकायत की और न तूने और न कोई तीसरा हमारी शिकायत का केन्द्र बना। अगर ऐसा होता तो उस शाम में टीस भर जाती और जिसका परिणाम ये पत्र न होता।
उस गार्डन रेस्टोरेंट के हल्के आलोक, बरतनों की खड़खड़ाहट, आसपास बैठे लोगों के तैरते स्वरों और इतनी ढेर बातों के बीच वो रहस्य अभी भी छिपा था। मुझे पूछने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी क्योंकि तू खुद बताने को उत्सुक था।
फिर तूने मुझे बताया, बारह फरवरी की यादगार शाम के प्रायोजक का नाम-अंचित, तेरी पत्नी।
मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि तेरी पत्नी का भी इस शाम में कोई रोल होगा। तूने बताया कि कैसे दो दिन पहले अंचित ने तुझे कहा कि कोई दूसरी औरत भी तुझे बहुत प्यार करती है और वह चाहती थी कि तू उस दूसरी औरत के साथ कुछ समय बिताये ताकि तुम्हारे प्यार में और बढ़ोत्तरी हो सके। तू सोच रहा था कि अंचित पागल हो गई थी, जो ऐसा कह रही थी। लेकिन जब दूसरी औरत का नाम सामने आया तो तुझे आश्चर्य के साथ खुशी भी हुई थी कि उसने तेरी माँ के बारे में सोचा। फिर तूने मुझे यह भी बताया कि अंचित खुद अपने माँ-बाप के अकेलेपन और टूटते रिश्तों से दुखी है, इसी कारण उसने तुझे प्रेरित किया कि तू मेरे साथ वक्त बिताये।
चलो, वजह कोई भी हो, कैसी भी हो परंतु उसका परिणाम बहुत सुखद था।

वापस घर लौटने पर तुझे विदा करते समय मैं मुँह से कुछ न कह पाई मगर आँखों ने आँसू गिराकर बहुत कुछ कह दिया। तेरा माथा चूमकर मैंने तुझे विदाई दी और तूने मेरे पैर छुए। तूने भरी आँखों से मेरे हाथों को अपने हाथों से दबाते हुए कहा था, 'मम्मी, आज आपका साथ मुझे बहुत-बहुत अच्छा लगा, जितना मैंने सोचा था, उससे कहीं अधिक।' मैं भी ऐन यही बात कहना चाहती थी।
उस रात तो मैं बिल्कुल भी न सो सकी। रात भर खुशी से रोती रही।
सुबह सबसे पहला फ़ोन मिसेज़ वर्मा का आया था। हालाँकि मैं सोच रही थी अंचित मुझे फ़ोन करेगी लेकिन बाद में तो उसका फ़ोन आ ही गया था। मिसेज़ वर्मा काफ़ी उत्सुक थी, हमारी 'डेट' के बारे में जानने के लिए। मैंने उसे विस्तार से बताया था। सुनकर वो भी भावुक हो गई थी। उसने कहा था, 'काश! मेरी औलाद भी मेरे लिए कुछ ऐसा ही करे।'
'काश' शब्द कितना उम्मीदों से भरा होता है, नहीं? इसी के सहारे हम ज़िंदगी को अंतिम सिरे तक ले जाते हैं। लेकिन उस दिन वो 'काश' मेरे लिए नहीं था, वह सिर्फ़ और सिर्फ़ मिसेज वर्मा के लिए था।
जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है, मैं इस बात को फिर दोहरा रही हूँ कि उस एक दिन को मैंने कितने ही दिन जिया है और आज भी जी रही हूँ। यहाँ मैं उन बातों को नहीं लिखना चाहती या बताना चाहती कि हम कैसे और किन हालातों में रह रहे हैं। मैं नहीं जानती कि तुम लोग मुझे अपने साथ रखना चाहते हो या नहीं लेकिन मैं तुम लोगों के साथ नहीं रहना चाहती क्योंकि मैं अपने घर में रहना चाहती हूँ, अपनी तरह, अपने नियमों से जीना चाहती हूँ और सबसे बड़ी बात, मेरे पति ने इस घर में दम तोड़ा था इसलिए मैं भी यहीं मरना चाहती हूँ।

तुम सभी मेरा परिवार हो और मेरा परिवार मुझे प्रिय है। तू, योगेंद्र और सुमित्रा, तुम तीनों के परिवार के लिए मैं भगवान से सदा सुखी रहने की प्रार्थना करती हूँ।
मैं एक बात और कहना चाहूँगी। वो शाम हमारे जीवन में चाहे किसी वजह से आई हो और जिसकी वजह से आई थी उसे धन्यवाद देना चाहूँगी, मैं उसे फिर से दोहराना चाहूँगी, कई-कई बार दोहराना चाहूँगी। कोई क्षण किसी को कैसे खुशी दे सकता है यह मुझे उस दिन महसूस हुआ। जब तू यह पत्र पढ़ेगा तो तुझे भी वह शाम ऐसी ही याद आ जाएगी जैसे मुझे लिखते हुए याद आ रही है। मैं चाहती हूँ मैं योगेंद्र के साथ भी ऐसी ही शाम गुज़ारूँ। क्या तू अपने भाई से मेरे लिए ऐसा कह सकता है? अपने छोटे बेटे के साथ भी मुझे ऐसी ही शाम चाहिए, मरने से पहले।
क्या ऐसा हो सकता है?
काश! ऐसा हो।
सचमुच 'काश' शब्द कितना उम्मीदों से भरा होता है। मैं अपनी उम्मीद को पूरा होते देखना चाहती हूँ।
पता नहीं मैं तुझे यह पत्र क्यों लिख रही हूँ, पर मुझे अच्छा लग रहा है, मज़ा आ रहा है।
सस्नेह!
तुम्हारी माँ

उसकी छोटी बहन सुमित्रा का फ़ोन आया था। वह मम्मी से मिलने आई थी। सुबह अखबार पढ़ते हुए जो फ़ोन सुना था, उससे अखबार हाथों से फिसलकर फ़र्श पर बिखर गया था। साथ ही बहुत सारी यादें भी बिखर गईं थीं।
सुमित्रा ने बताया था कि मम्मी रात को जो सोई तो सोती ही रह गई। मम्मी के सिरहाने यह पत्र रखा था। क्रियाकर्म के बाद उसने यह पत्र पढ़ा था। उसे भी वो शाम याद है, जैसी माँ को याद थी। दो महीने से अधिक हो गए थे, वह ऐसा समय फिर नहीं निकाल पाया था। पत्र पढ़ने के बाद उसे बहुत अफ़सोस हुआ। उसे वक्त निकालना चाहिए था। इतने बरसों में वह अपनी माँ के लिए सिर्फ़ एक शाम ही निकाल पाया था। उसी शाम को अपनी स्मृति में संजोये वह चली गई। उसे सचमुच वक्त निकालना चाहिए था मगर अब क्या हो सकता था, अब तो वक्त ही निकल चुका था।
उसने पत्र एक बार और पढ़ा फिर उसे मोड़कर कुर्ते की जेब में सहेज कर रख लिया। अपनी माँ की सबसे अनमोल चीज़ उसे विरासत में मिल चुकी थी और वो उसी के पास रहेगी। चाहे कितने ही बँटवारे क्यों न हो जाए, इसे कभी कोई क्लेम नहीं करेगा।

इंटरनेट के एक लेख से प्रेरित


४६ डस्की लेन


मकान की दीवार पर बंगला भाषा में नाम और मकान नम्बर लिखा था। उसे सिर्फ़ ४६ ही समझ आया। शायद वह सही पते पर था। मकान बहुत पुराना था, शायद अंग्रेज़ों के ज़माने से भी पुराना। जैसा जर्जर और उजड़ा वह बाहर से देखने पर लग रहा था निश्चय ही भीतर से भी वैसा ही होगा, उसने सोचा। इस मकान के बाद गली बन्द थी, यानि गली का आखिरी मकान। गली सूनी पड़ी थी और वह वहाँ अकेला खड़ा था। दरवाज़े पर घण्टी का स्विच नहीं था। उसने कुण्डी से दरवाज़ा खटखटाया। रुक-रुककर बूँदाबाँदी हो रही थी जो किसी भी समय रौद्र रूप धारण कर सकती थी।

कालका मेल से जब वह हावड़ा स्टेशन पर उतरा था तो बारिश हो रही थी। गाड़ी तीन घण्टे लेट थी। सुबह के साढ़े दस बजे थे मगर लग रहा था जैसे शाम हो गई हो। सामान के नाम पर उसके पास एक छोटा-सा बैग था जिसमें एक तौलिया, टूथब्रश और एक जोड़ी कपड़े थे और न बताए जाने वाले सामान में एक बटनदार चाकू था जो उसके मुताबिक वरुण मण्डल के खून का प्यासा था।

पूछताछ पर पता चला कि सीरामपोर यहाँ से पच्चीस-तीस किलोमीटर दूर है और उसके लिए यहाँ से लोकल ट्रेन पकड़नी पड़ेगी। बारिश हो रही थी मगर उसे बरसात की चिन्ता नहीं थी। उसे किसी बात की चिन्ता नहीं थी।

वह यहाँ उम्मीद लेकर आया था क्योंकि दिल्ली के अलावा वरुण का जो पता उसे मालूम हुआ है वह सीरामपोर का है। वह दिल्ली से ही फैसला करके आया है, अगर वरुण उसे मिल गया और उसने उसका हिस्सा नहीं दिया तो वह उसे जान से मार देगा। दगाबाज़ों की सज़ा मौत ही होती है। वह हल्की बरसात में भीगता हुआ ही वहाँ पहुँचा था।

कुछ देर वह प्रतीक्षा करता रहा मगर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। उसने दोबारा और देर तक दरवाज़ा खटखटाया। प्रतिक्रियास्वरूप, दरवाज़ा तो नहीं खुला मगर साथ वाली बड़ी-सी खिड़की का एक पल्ला खुला और अंधेरे से एक बूढ़ा चेहरा उसकी ओर झाँका, जो एक बुढ़िया का था। उसने बंगला भाषा में कुछ कहा जो उसे समझ नहीं आया।
''वरुण मंडल है?'' वह उच्च स्वर में बोला।
''के?'' बूढ़े चेहरे ने पूछा।
''यहाँ वरुण मंडल है क्या?'' उसने पूर्ववत उच्च स्वर में पूछा।
बुढ़िया ने कुछ नहीं कहा और खिड़की से गायब हो गई। साथ ही खिड़की भी बंद कर गई।
बारिश में फिर से तेज़ी आ गई थी। उसके मुँह से एक गाली निकली जो तीन लोगों के लिए थी, वरुण, बरसात और वह बुढ़िया। वह भीगता रहा और प्रतीक्षा करता रहा।

कुछ देर बाद गदर के ज़माने का दरवाज़ा खुला। इस बार उसके सामने मकान जितना ही जर्जर एक बूढ़ा खड़ा था।
''काके चाई?'' बूढ़े ने पूछा।
''मेरा नाम सत्यम है, मुझे वरुण मंडल से मिलना है।'' उसने कहा।
''बृष्टि हो रही है, भीतर आ जाओ।'' बूढ़े ने कहा।
वह भीतर दाखिल हो गया। बैग उसने कंधे से उतारकर नीचे लटका लिया था। वह एक गलियारा जैसा था जहाँ अंधेरा फैला हुआ था। बूढ़े ने दरवाज़ा बंद कर दिया। सामने खुला बरामदा था जहाँ बारिश गिर रही थी। गलियारा दायें बायें दोनों जगह मुड़ रहा था। बूढ़ा बायें मुड़ गया। उसके पीछे-पीछे वह भी। उसे कुछ पुरानी हिन्दी फिल्में याद आईं। उन फिल्मों में ऐसे ही मकान होते थे। यहाँ भी किसी फिल्म की शूटिंग हुई होगी, उसने सोचा।
उस गलियारे में एक तख्त बिछा था। बूढ़े ने उसे वहाँ बैठने का इशारा किया।
''पानी?'' उसके बैठने के बाद बूढ़े ने पूछा।

उसने ''हाँ'' में सिर हिलाया। बूढ़ा पीछे मुड़ गया। किसी के मकान में घुसते ही वह अनुमान लगाने लग जाता है कि वहाँ से कितना और क्या चोरी किया जा सकता है। लेकिन यह पहला मकान था जिसमें घुसते हुए ऐसा ख़याल भी दिमाग के किसी कोने से नहीं निकला था।
वह सामने देखने लगा। बरामदे में सामने की ओर कुछ कमरे बने थे, जो सूने पड़े थे। दूसरे सिरे पर दुनिया भर का झाड़-झंकाड़ उगा हुआ था जो बरसात के दिनों में ज़्यादा बढ़ जाते हैं। यह भुतहा मकान की हरियाली थी। ऐसा लग रहा था यहाँ सिर्फ़ बूढ़े बुढ़िया के अलावा कोई नहीं है। कहीं उसे गलत पता तो नहीं मिला। बूढ़ा पानी और एक प्लेट में अजीब-सी मिठाई के दो टुकड़े लेकर लौटा। उसने पानी ले लिया। मिठाई की ओर देखकर उसे उबकाई आने को हुई। बूढ़ा प्लेट उसके पास रखकर पीछे एक दरवाज़े से भीतर चला गया और एक स्टूल लेकर वापस लौटा।

जब बूढ़ा उसके सामने बैठ गया तो वह अधीर स्वर में बोला, ''वरुण मंडल से मिलना है मुझे।''
''वो तो यहाँ नहीं है।''
''कहाँ गया है?''
''अब तो दिल्ली में होगा। आप कौन हैं?''
''मैं उसका दोस्त हूँ, सत्यम। वह दिल्ली में नहीं है। मैं दिल्ली से ही आ रहा हूँ।'' उसने कहा।
''यहाँ तो वह लगभग एक साल पहले आया था।'' बूढ़े ने कुछ सोचते हुए कहा।
एक साल पहले, यानि तब जब वो जेल में था।
''आप उसके साथ ही काम करते हो?'' बूढ़े ने पूछा।
''काम!'' वह चौंक-सा गया। हाँ, काम ही करता है वह उसके साथ। दोनों मिलकर चोरियाँ करते हैं। पच्चीस लाख के जेवर लेकर भागा है वो, जो उन दोनों ने मिलकर नोयडा के एक मकान से चुराए थे। अगर वे जेवर पाँच छह में भी बिकते हैं तो वह उसके तीन लाख रुपये लेकर भागा है।
''हाँ, हम एक साथ ही काम करते हैं।'' प्रत्यक्षत: उसने कहा।
''ओ आच्छा।'' बूढ़े ने सिर हिलाया।
''अब नहीं है वरुण यहाँ पर?''
''अब तो नहीं है। वह तो बहुत समय से नहीं आया यहाँ।''
''आप कौन हैं उसके?'' उसने सवाल किया।
''वरुण हमारा किरायेदार है समझो। वह गाँव के रिश्ते में मेरा भतीजा लगता है। वह यहाँ रहता था। उसका कमरा हम किसी को नहीं देता। जब वह बाड़ी आता है तो यहीं रहता है। वरुण खूब भालो छेले। वो दिल्ली ते भालो काज कोरे आर अमादेर ओनेक पोएसा दिए जाए। महाकालीर किरपा...''
''अब कब आएगा?'' उसने बूढ़े की बात काटते हुए पूछा।
''क्या मालूम कब आएगा। हमें कोई फोन नम्बर भी नहीं दिया जो उससे कभी बात कर लें। हमें तो उसकी बहुत चिन्ता होता है। न जाने कहाँ होगा वो?'' बूढ़ा जैसे सोते में बड़बड़ा रहा था। उसे कोई मतलब नहीं था कि सत्यम नाम का आदमी उसकी बात सुन भी रहा है या नहीं। वह यह भी नहीं जानता कि सत्यम नाम का आदमी उसके रिश्ते के प्यारे भतीजे को कत्ल करने आया है।
''उसका सामान है यहाँ पर?'' उसने फिर उसकी बात काटी।
''सामान? उसका सामान? उसका यहाँ एक बिस्तर है और दो चार कपड़ा। आप क्यों उसको पूछ रहे हो?'' बूढ़े ने मतलब का प्रश्न किया।
उसे एकदम से जवाब नहीं सूझता। वह सोचने लगता है।
''क्या बरसात रुकने तक मैं यहाँ ठहर सकता हूँ?'' उसने बात ही बिल्कुल पलट दी।
''हाँ, हाँ, क्यों नहीं।'' बूढ़े ने कहा, ''आपने बताया नहीं, वरुण तो दिल्ली में है, आप उसे यहाँ क्यों तलाश रहे हो?''
''वो दिल्ली में नहीं है। वैसे मैं कलकत्ता किसी काम से आया था। उसने यहाँ का पता दिया था तो मैं उससे मिलने चला आया। मैंने यही सोचा था कि वह यहाँ होगा। अगर वह दिल्ली में नहीं है तो यहीं होगा।'' उसने धीरे-धीरे एक-एक शब्द सोच समझ कर अपने मुँह से निकाला।
बूढ़ा कुछ नहीं बोला।
''उसका गाँव कहाँ पर है? पास में ही है क्या?''
''गाँव तो बहुत दूर है। मालदा से आगे रतुआ के पास है हमारा गाँव। बस से सात-आठ घण्टे का सफ़र है।'' बूढ़े की आँखे ठहर-सी गईं थी। बताते-बताते वह अपने गाँव ही पहुँच गया था, ''गाँव तो वह कभी जाता ही नहीं। गाँव में कोई नहीं है उसका, सब चल बसे। यहाँ भी कोई नहीं है। शेतो एतो बोछोर आमियो गाम्रे जेते पारि नी। आमरो ग्रामे आर क्यो ने। काश! मैं...''

बूढ़ा फिर बहक रहा था। उसने उसकी ओर से ध्यान हटाया और निरंतर तेज़ होती बरसात को देखने लगा। उसने जेब से मोबाइल निकालकर समय देखा। दो बजने वाले थे। बूढ़ा चुप होकर उसे देख रहा था।
''चाय पिओगे?'' उसने पूछा।
''हाँ।'' उसने हौले से कहा। वह इस समय चाय ही पीना चाहता था और इस बूढ़े की बकवास से बचना।
बूढ़ा उठा और गलियारे के दूसरे सिरे की ओर चला गया जहाँ निश्चय ही उसकी बुढ़िया होगी।
बारिश का प्रकोप जारी था। पता नहीं कब तक बरसती रहेगी। क्या उसे इस भूत बंगले में रात बितानी पड़ेगी? क्या बुराई है अगर मुफ्त में सोने का जुगाड़ हो जाए तो। खाने का तो यहाँ जुगाड़ हो सकता है मगर दारू का। दारू का ध्यान आते ही उसके मुँह में पानी आ गया। ऐसे मौसम में तो रॉयल स्टैग और तन्दूरी चिकन मिल जाए। उसने बड़ी ही बेचैनी से पहलू बदला। अभी फिलहाल चाय से ही काम चलाना पड़ेगा।

अच्छा भला सब ठीक चल रहा था। वरुण और वह पिछले तीन साल से चोरी चकारी कर रहे हैं। दोनों का बँटवारे को लेकर कभी कोई मनमुटाव या लड़ाई झगड़ा नहीं हुआ था। जो भी मिलता था, उसे वे दोनों अय्याशी में उड़ा देते थे। लेकिन पिछले दाँव में, जो उनके अब तक के जीवन का सबसे बड़ा दाँव था, वरुण को लालच आ गया था जो उसी रात वह चुपचाप चंपत हो गया। खैर, उसे लालच का अंजाम तो भुगतना ही पड़ेगा।

वे दोनों इस दुनिया में अकेले हैं। लेकिन साल में एक या दो बार वरुण पश्चिमी बंगाल ज़रूर आता है। उसे नहीं पता कि जब उसका कोई यहाँ है ही नहीं तो वह यहाँ क्यों आता है? इस बूढे के लिए? या किसी और के लिए? उसने भी तो कभी नहीं बताया? वह विचारों में गुम था कि बूढ़ा प्रेत की तरह उसके सामने आ खड़ा हुआ। उसके हाथ में लकड़ी की एक ट्रे थी जिसमें दो कप रखे थे। उसने चुपचाप एक कप ले लिया। बूढ़ा फिर उसके सामने बैठ गया। अब बूढ़ा ही उसका सहारा था जो उसे वरुण का कोई आइन्दा पता दे सकता है वर्ना इतनी बड़ी जिन्दगी है, क्या पता कब मिले?
''आप अकेले रहते हैं यहाँ पर?'' उसने चाय का घूँट भरने के बाद पूछा।
''अकेले कहाँ, मैं हूँ, मेरी पत्नी है, मेरा एक बेटा कलकत्ता में एक मिल में काम करता है, एक बेटी है जो यहीं के एक प्राइवेट स्कूल में काम करती है, अभी आने ही वाली होगी। मेरा एक बेटा सड़क दुर्घटना में मारा गया। मैं रिटायर्ड हूँ, स्कूल मास्टर था। अच्छे बुरे सारे दिन देखे हैं मैंने...। मेरा मकान साक्षी है, जीवन के सभी रंगों का। कभी इस मकान में बहुत चहल-पहल रहती थी। दुर्गा पूजा में हमारा घर महल जैसा सजता था। इसी बरामदे में हम माँ की मूर्ति स्थापित करते थे। मेरी बहनें खुद उसका शृंगार करती थीं। सारी डस्की लेन हमारे यहाँ ही पूजा के लिए आती थीं। मगर अब... अब वह विलासिता, वह वैभव सब समाप्त हो गया। कितने वर्षों से इस घर में सफ़ेदी नहीं हुई, मरम्मत नहीं हुई। सच्ची, पुराने दिन कितने अच्छे होते हैं न! उन्हें हल्का सा छू दो तो कितना सुख दे जाते हैं...''

सत्यम चाय पीना भूलकर उसके झुर्रीदार चेहरे को देख रहा था। एक अजीब-सी चमक उसके चेहरे पर आ बैठी थी, बरसात में चमकती हुई, पानी से धुली हुई, यादों से भीगी हुई। वह उसके चेहरे से बँध गया। भूल गया कि वह यहाँ किस काम से आया था। बूढ़े की टीस उसके भीतर उतर आई थी।
''बाबा, ओ बाबा।'' जब उसे खुद होश आया तो उसने उसे स्मृति से जगाने की कोशिश की।
बाबा लौट आया।
''बेटा, क्या नाम बताया था तुमने अपना?'' कुछ क्षण रुक कर उसने पूछा।
''सत्यम, सत्यम सिंह चौहान।'' उसने अपना नाम बड़े रौब से बताया। वह चाहता था कि जब कभी वरुण यहाँ आए तो उसे मालूम होना चाहिए कि सत्यम उसके पीछे यहाँ तक पहुँच गया था और देर सवेर उसकी गर्दन तक भी जा पहुँचेगा।
''आपनार कोथा कोखोनो किछू बोले नी।''
''क्या?''
''वरुण ने कभी बताया नहीं।''
''उसे ज़रूरत नहीं लगी होगी।''
''हो सकता है।'' बाबा ने धीमे से कहा, ''खाना खाओगे?'' फिर पूछा।
''नहीं।''
''ठीक है, फिर तुम थोड़ा आराम कर लो। बारिश समाप्त हो जाए फिर चले जाना।'' वह उठता हुआ बोला, ''ठहरे कहाँ हो?''
''अभी तो यहीं हूँ। यहाँ से निकलने के बाद सोचूँगा या दिल्ली ही चला जाऊँगा।'' उसने कहा।

बूढ़ा सिर हिलाता हुआ चला गया। वह उसे जाता देखता रहा। क्या बूढ़ा वरुण के बारे में झूठ बोल रहा हो सकता है? क्या पता वो यहीं हो और उसने मना किया हो। वह फैसला नहीं कर पाया कि बूढ़ा सच बोल रहा है या झूठ। जिस दिन से वह भागा है, तभी से उसका मोबाइल भी बंद आ रहा है। पता नहीं कहाँ मर रहा होगा साला? उसके लिए वह बंगाल में धक्के खा रहा है। एकाएक उसके मन में आया कि बूढ़े की गर्दन पर चाकू टिकाकर उगलवाऊँ कि वरुण कहाँ है? और नहीं बताए तो वही चाकू उसकी गर्दन में घोंप दूँ। इस विचार के साथ उसने अपनी पैन्ट की भीतरी जेब में रखे चाकू को टटोला। चाकू अपनी जगह था। फिलहाल उसने अभी और प्रतीक्षा करने का विचार किया लेकिन अपनी इस इच्छा को उसने अपने मन के एक कोने में सुरक्षित रख लिया ताकि उसका इस्तेमाल वह किसी भी समय कर सके।

बारिश खत्म होने के या कम होने के कोई लक्षण नहीं दिखाई दे रहे थे। लेकिन उसे यहाँ का भुतहा वातावरण विचलित कर रहा था। बूढ़े ने बताया था कि अभी उसकी लड़की आने वाली है। देखते हैं, कैसी लड़की है? वो भी बरसात के कारण रुकी हुई होगी? और लड़का? वो तो शायद शाम को ही आएगा। कोई बात नहीं, रौनक तो अभी आएगी। उसने बूढ़े की लड़की के बारे में सोचा। कुछ रंगीन से और कुछ अश्लील से विचार उसके भीतर आने लगे उस लड़की के प्रति जिसको उसने देखा नहीं था, जो उसके लिए नितान्त अजनबी थी।

उसने अभी तक जूते भी नहीं उतारे थे और तख्त पर वह आरामदायक स्थिति में भी नहीं बैठा था। उसने जूते उतारे और अपने बैग को एक ओर रखकर तख्त पर लेट गया। छत के साथ की दीवार पर, जिसके किनारे से सटाकर तख्त बिछाया गया था, उसे दो मोटी-मोटी छिपकलियाँ दिखाई दीं। उसे छिपकलियों से बहुत डर लगता है। वह रह-रहकर छिपकलियों को देखने लगा। बूढ़े की अनदेखी लड़की, रॉयल स्टैग और तन्दूरी चिकन के सपनों के बीच दीवार पर चिपकी छिपकलियाँ आ गई थीं। उसके मुँह से कई गालियाँ निकलीं जो सारी की सारी छिपकलियों के लिए थीं। उसका मन वितृष्णा से भर उठा।

जल्द ही उसकी आँखें बंद होने लगीं। बरसात का तेज़ शोर धीरे-धीरे उसके कानों में कम होने लगा। उसे खुद मालूम नहीं हो पाया कि वह सो गया है। अवचेतन में उसे वरुण मंडल, जेवरात, बूढ़ा और उसकी लड़की दिखाई देते रहे। अवचेतन में ही उसने अपना चाकू निकाल लिया और चाकू हवा में लहराया ही था कि ज़ोर से बादल गरजे और भयंकर बिजली कड़की।
वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। सचमुच में ही बादल ज़ोर से गरजे थे और बिजली कड़की थी। इसके अलावा सब कुछ वैसा ही था जैसा तख्त पर लेटने से पहले था। बरामदा पानी से भर चुका था। एक लकड़ी का डंडा, कुछेक कागज और पन्नियाँ पानी में तैर रही थीं। वह उनका तैरना देखता रहा। उसे लगा, उसकी जिन्दगी भी ऐसे ही तैर रही है। जब तक पानी है, ठीक है। पानी खत्म वो भी खत्म। उसका कोई भविष्य नहीं है। कभी-कभी वह अपने भविष्य को लेकर चिन्तित हो जाता है। वह भी दूसरे चोरों की तरह हमेशा सोचता है कि एक बार बड़ा-सा हाथ मार ले तो उस रकम से कोई छोटा-मोटा धन्धा करेगा और चैन से जियेगा। मगर ऐसा कभी नहीं हुआ और न ही होगा। चोरी के काम के अलावा उससे और कोई काम नहीं होने वाला, ईमानदारी वाला तो बिल्कुल भी नहीं। फिर भी वह सोचता है। लेकिन उसने ये कभी नहीं सोचा कि किसी की धन सम्पत्ति के अलावा भी वह उसका बहुत कुछ चुरा लेता है, किसी के सपने, किसी के अरमान, किसी का सुख, किसी का जीवन।

तभी बूढ़ा फिर आता दिखाई दिया। उसने बताया कि उसकी बेटी आ गई है। बाहर गली में घुटनों तक पानी भरा हुआ है और ऐसा ही हाल सड़कों का भी है।
''तो आपकी बेटी कैसे आई?'' उसके मुँह से निकला।
''भीगती हुई, डूबती हुई।'' बूढ़े ने हँसते हुए कहा।
वह पहली बार हँसा था। उसे अच्छा लगा। थोड़ी देर पहले की बोझिलता बूढ़े की हँसी से धुल गई थी। वह फिर उसकी लड़की के बारे में सोचने लगा।
''बारिश तो पता नहीं कब बंद हो, आप कैसे जाओगे?'' बूढ़े ने पूछा।
''पता नहीं।'' उसने अनिश्चय स्वर में कहा।
''अगर बारिश नहीं रुकी तो यहीं रुक जाना।'' बूढ़े ने जैसे उसके मन की बात कह दी।
''देखता हूँ।'' प्रत्यक्षत: उसने कहा।
बूढ़ा सिर हिलाता हुआ चला गया।

और कुछ देर बाद वो आई जिसे देखने के लिए, उससे बात करने के लिए वह मन ही मन बहुत बेचैन था। ठिगने कद की दुबली पतली, साँवली लड़की, तीखे नयन नक्श। उसने सफ़ेद नीले चैक वाली सूती साड़ी पहने थी और बाल पीछे की ओर कसकर बाँधे हुए थे। सत्यम सिंह चौहान, दिल्ली का एक चोर, पश्चिम बंगाल की उस साँवली लड़की पर फौरन मोहित हो गया।
लड़की ने नमस्ते कहा और उसी स्टूल पर बैठ गई जिस पर पहले बूढ़ा बैठा था।
''आप बोन्धू है वरुण के?'' लड़की ने पूछा। उसका बंगला मिश्रित स्वर उसके कानों में अमृत जैसा पड़ा।
''हाँ।'' उसके मुँह से धीरे से निकला।
''आपकी कभी चर्चा नहीं की उसने।''
''हम दिल्ली में एक ही इलाके में रहते हैं और साथ काम करते हैं।''
''चोरी का।'' लड़की ने उसकी आँखों में झाँका।
''क्या?''
''आप दोनों साथ-साथ चोरियाँ करते हो न?'' लड़की का स्वर आत्मविश्वास से भरा था।
''आपको मालूम है?'' उसने हैरानी से पूछा।
''ओमी शोब जानी।'' उसने आँखें फैलाई, ''मैं ये भी जानती हूँ कि आजकल वह दिल्ली में नहीं है।'' लड़की के चेहरे के भाव उसकी आवाज़ की तरह ही दृढ़ थे। वह उठी और बिना उसकी ओर दृष्टिपात किए मुड़ गई।

सत्यम अवाक सा उसे जाता देखता रहा। चाकू निकालकर लड़की की गर्दन पर टिकाने का उसे ख़याल भी नहीं आया। लड़की के आत्मविश्वास और व्यक्तित्व ने उसे बौना बना दिया था। उसे इतना तो समझ आ गया कि वरुण के बार-बार यहाँ आने की वजह ये लड़की है। दोनों के बीच ज़रूर कोई चक्कर होगा तभी वह सब कुछ जानती है। वह भी कितना बेवकूफ़ है। वह अपने मन की सारी बातें वरुण को बता देता था और वरुण अपनी सारी बातें उससे छिपाता था। कितना धोखा करता रहा वह उसके साथ। वह फिर वरुण के प्रति घृणा से भर उठा।

थोड़ी देर बाद वह फिर आ गई। इस बार वह उसे बिल्कुल मासूम लगी। आत्मविश्वास और दृढ़ता का उसके चेहरे पर नामोनिशान तक नहीं था।
''कुछ खाएँगे क्या?'' उसने पूछा।
''आपका...नाम क्या है?'' सत्यम ने उसके सवाल पर अपना सवाल दागा।
''मैंने खाने के बारे में पूछा था।'' साँवले चेहरे पर काली गहरी आँखें फैल-सी गईं। लड़की की ये अदा उसे बहुत प्यारी लगी।
''मैंने नाम के बारे में पूछा था।'' उसने भी अपनी आँखें फैलाने का प्रयास किया जिसमें सफल नहीं हो पाया।
लड़की हँस दी। दिल्ली के चोर ने हँसने का मतलब फँसने से लगाया। उसे मालूम ही नहीं हुआ कि उसका कुछ कीमती सामान चोरी हो चुका है-उसका दिल।
''मैं बूटी हूँ, बूटी बनर्जी।'' लड़की ने मुस्कान के साथ अपना नाम बताया।
''बूटी!'' उसने मन में दोहराया। मेरे लिए तो संजीवनी बूटी है।
''कुछ बोले क्या?'' बूटी ने पूछा।

सत्यम हड़बड़ा गया और इनकार में गर्दन हिलाने लगा। संजीवनी बूटी असर कर चुकी थी, वह भूल गया वह यहाँ क्यों आया था?
वह फिर हँसने लगी।
कुरबान!
''आमी किछु खावर आनी।'' वह हँसती हुई मुड़ गई।
वह उसे ओझल होने तक देखता रहा। उसने फैसला कर लिया और मन ही मन कहा, बरसात बंद होने के बावजूद भी मैं आज रात यहीं रुकूँगा। बूढ़े की ऐसी की तैसी। साले वरुण ने सामान बढिया फाँसा हुआ है। कोई बात नहीं, उम्मीद पर दुनिया कायम है। अगर मैं लड़की को लपेटे में ले लेता हूँ तो ये भी बहुत बड़ी चोट होगी उस पर।

इसी जोड़ जमा में वह बूटी की प्रतीक्षा करता रहा। उसे लगा वह सचमुच उससे दिल लगा बैठा था। उसके पास अधिक से अधिक एक रात का समय था, जो किया जा सकता था, उसी समय में करना था।
अन्तत: प्रतीक्षा की अवधि समाप्त हुई। वह चाय और मूड़ी और मुस्कराहट के साथ लौटी।
''इसकी क्या ज़रूरत थी।'' सत्यम ने खामाखाह औपचारिक होने की कोशिश की।
''कुछ चीज़ों को ज़रूरत नहीं कहा जाता।'' उसने ट्रे उसके सामने तख्त पर रखते हुए कहा।
वह चुप रहा। फिर खान-पान शुरू हो गया।
''क्या वरुण ने आपको मेरे बारे में बताया था?'' कुछ क्षणोपरांत बूटी ने पूछा।
''आपके बारे में? नहीं। कभी नहीं बताया।
''वह मक्कार आदमी है। बिश्शासघातो।'' वह अचानक रोषपूर्ण स्वर में बोली।
वह चौंक गया। उसे उससे ऐसी उम्मीद जो नहीं थी। तो क्या उसने इसे भी धोखा दिया है?
''हम सारे काम सोच-समझ कर नहीं करते, और जब सोचने-समझने का समय आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, तुम्हारी पहुँच से सारी चीज़ें बाहर हो जाती हैं।'' वह उसे नहीं देख रही थी, वह कहीं नहीं देख रही थी, वह अपनी स्मृति में कहीं उलझी हुई थी।
वह कुछ समझा, कुछ नहीं समझा।
''मैं नहीं जानती, आप उसे कितना जानते हो लेकिन वह मेरा जीवन खोराब करके चला गया है...'' उसके चेहरे पर अपार वेदना थी। मुस्कराहट बहुत पहले खो गई थी,''...ओर कोपाल भालो, शोब ओर पोक्खे होलो और आमार कोपाल खराब, शोब गेलो।''
वेदना आँसू बनकर उभर आई। वह उसकी इस हरकत से घबरा गया। लड़की का शुरू का आत्मविश्वास और दृढ़ता खोखले साबित हुए।
''आप प्लीज...रोओ नहीं।'' वह सिर्फ़ यही कह सका।
''रोऊँ नहीं तो क्या करूँ? मैंने उससे प्रेम किया और उसने मेरे साथ छल किया। एक वर्ष होने को है, उसने अपना मुँह तक नहीं दिखाया, और तो और वह मुझसे दस हज़ार रुपये भी ले गया है। माँ बाबा को तो कुछ भी पता नहीं है। अगर उन्हें ये सब मालूम हो जाए तो...। मेरे माँ बाप बहुत गरीब हैं। कुछ भी नहीं है उनके पास, केवल ज़माने के आघातों के सिवा। अगर उन्हें मालूम हो जाए कि वरुण उनकी बेटी को झूठे सपने दिखाकर खराब करके चला गया है तो यह उनके लिए अन्तिम आघात होगा।'' वह फिर रोने लगी।

सत्यम उठा और तख्त के उस किनारे पर बैठ गया जिसके करीब स्टूल पर बूटी बैठी थी। उसने इधर-उधर देखा, कहीं कोई नहीं था, न बूढ़ा न बुढ़िया। उसने बूटी के कंधे पर हाथ रखा और चुप कराने के भाव से पीठ सहलाने लगा। बूटी ने आँसू पौछते हुए उसे अजीब-सी नज़रों से देखा तो उसने अपना हाथ खींच लिया।
''एक बात पूछूँ?''
उसने आँसू पौंछते हुए सत्यम को देखा।
''आपको कैसे पता वरुण दिल्ली में नहीं है?''
''पिछले महीने उसका फोन आया था, किसी नए और अजनबी नम्बर से। उसी ने बताया था कि वह इन्दौर में है और फिलहाल वहीं रहेगा। मगर जो मुझे बताना था वह मैं उसे नहीं बता पाई।''
''क्या?'' सत्यम ने पूछा।
बूटी ने उत्तर नहीं दिया। उसने अपनी चाय नहीं पी थी। वह उठ खड़ी हुई।
''मैं अपनी चाय गरम करके लाती हूँ।'' वह धीरे से बोली और चाय उठाकर चली गई।

वह उसकी अजीब सी नजरों के बारे में सोच रहा था। पता नहीं, उसे बुरा लगा या नहीं। लेकिन उसने इस बात की चिन्ता की। उसके स्पर्श को अपने हाथ पर महसूस करता हुआ वह फिर प्रतीक्षा करने लगा।
बारिश पहले की अपेक्षा कुछ हल्की हो गई थी। बारिश का पानी गलियारे के फ़र्श तक आ गया था। उसने समय देखा। पाँच बजने वाले थे। उसे विश्वास था कि एक रात तो वो यहाँ निकाल ही लेगा क्योंकि उसकी प्राथमिकता बदल गई थी। फिलहाल उसका टार्गेट बूटी थी, वरुण नहीं। उसे फिर अपने चाकू का ध्यान आया। साली, सीधे से मान जाएगी तो ठीक वर्ना गर्दन पर टिकाऊँगा और...। चाकू टटोलते हुए उसने सोचा। वैसे चाकू की नौबत न ही आए तो अच्छा है। उसे याद आया, उसने और वरुण ने कई बार एक ही लड़की के साथ रात गुज़ारी है। इसलिए अगर वह बूटी के साथ कुछ करता है तो इसमें कोई बुराई नहीं है क्योंकि वरुण का माल उसका माल। वैसे वरुण बड़ा ही कमीना है। लड़की पर तो हाथ मारा ही मारा, उसके दस हज़ार रुपये और ले उड़ा।

काफी देर बाद बूढ़ा आया, बूटी नहीं। बूढ़े ने उससे यहीं रुक जाने का आग्रह किया और कहा कि घर में जो रूखा-सूखा है, वही वह खिला देगा। अन्धा क्या चाहे, वह तो खुद यहीं रुकना चाहता था। अब बूटी उसकी पहुँच से दूर नहीं है।
बूढ़े के जाने के बाद वह फिर तख्त पर लेट गया। बाहर बारिश थी, गलियारे में बारिश का पानी और दीवार पर छिपकलियाँ। और इन सबके बीच एक चेहरा, साँवला और तीखे नयन-नक्श वाला चेहरा। वह मेरे लिए खाना बना रही होगी। क्या वह मेरे बारे में भी सोच रही होगी? अनायास ही वह रोमान्चित हो उठा, मौसम की तरह।

आखिरकार, जब वह आई तो खाना ही लेकर आई। इस बीच टायलेट वगैरह हो आया था और हाथ मुँह धोकर तरोताज़ा हो गया था। बूढ़े ने उसके सोने का इन्तज़ाम तख्त की दीवार के पीछे बने एक कमरे में किया था। बूढ़े ने बताया था कि उसका बेटा अपनी ससुराल गया हुआ है जो दो-तीन दिन में आएगा और साथ वाला कमरा उसके बेटे का है। सबसे छोटे बेटे की दुर्घटना से मौत होने के कारण बूटी की माँ का मानसिक सन्तुलन बिगड़ गया है इसलिए वह अपने कमरे में ही रहती है। सामने तीन कमरे बने थे जिनमें से एक में वरुण मंडल रहता था। एक तीव्र-सी इच्छा उसके भीतर से उठी कि वह वरुण का कमरा देखकर आए। वह ऐसा कर भी देता मगर बरामदे में भरे पानी के कारण उसने अपनी इच्छा को मर जाने दिया।

ऐसे बरसते मौसम की शाम में शराब पीने की एक तीव्र-सी इच्छा उसके भीतर से उठी मगर इस इच्छा को भी उसने मर जाने दिया।
बूटी ने खाना उसके सामने रख दिया। एक तीव्र-सी इच्छा उसके भीतर से उठी कि वह खाने को एक तरफ़ करके बूटी को यहीं दबोच ले मगर अपनी इस इच्छा को मरने नहीं दिया बल्कि कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया।
''आज मैं पहली बार बंगला खाना खाऊँगा।'' उसने साफ-साफ झूठ बोला। वरुण ने उसे कई बार खाना बनाकर खिलाया है। वह सचमुच बहुत अच्छा खाना बनाता है।
''वरुण तो बहुत अच्छा खाना बनाता है'' बूटी ने ऐन वही बात कही जो उसके भीतर घूम रही थी, ''क्या आपको कभी नहीं खिलाया?'' बूटी ने आँखे फैलाते हुए कहा। बार-बार आँखे फैलाना शायद उसकी आदत थी।
''नहीं। कभी नहीं खिलाया।'' उसने उसकी फैली आँखों में झाँका।
''मित्थे कोथा।'' बूटी ने भी उसकी आँखों में झाँका, ''बड़ी खूबसूरती से झूठ बोलते हो?''
वह हड़बड़ाया पर जल्दी से सँभल गया।
''और भी बहुत से काम हैं जो मैं बड़ी खूबसूरती से करता हूँ।'' सँभलने के साथ ही उसने कहा।
''खाना आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।'' बूटी ने खाने की ओर इशारा किया।
''क्या-क्या बना दिया?'' उसने सामने रखे दाल चावल को देखते हुए कहा।
''माछेर झोल, मांसो, आलू भाजा।'' उसने कुछ बांग्ला पकवानों के नाम बताए, ''ये सब नहीं है सिर्फ़ दाल भात है।''

उसने रिक्त भाव से खाने को देखा। खाने की इच्छा नहीं थी। उसने एक बार बरामदे में जलते बल्ब को देखा जिसका क्षीण प्रकाश वहाँ फैला हुआ था। जलते बल्ब के ईद गिर्द बरसात के दिनों में आने वाले ढेरों कीट पतंगे उड़ रहे थे। कोई बड़ी बात नहीं थी कुछ उसके खाने में भी गिर जाएँ। मच्छरों से तो उसका परिचय शाम होते ही होने लगा था। यहाँ कुछ भी सही नहीं था सिर्फ़ सामने खड़ी लड़की को छोड़कर। उसने बूटी को देखा। वह वापस जाने के लिए मुड़ रही थी।

खाना खाने के बाद वह प्रतीक्षा करने लगा। बूटी का व्यवहार उसे समझ नहीं आ रहा था। पता नहीं, काम बन भी पाएगा या नहीं। और अभी तो उसे वरुण का इन्दौर का मोबाइल नम्बर भी लेना है। शायद उससे कुछ बात बन जाए। नहीं तो उसे फोन करके धमका तो सकता ही है।
वह झूठे बर्तन लेने आई।
''मुझे वरुण का इन्दौर वाला नम्बर दे देना।'' जब वह बर्तन उठाने लगी तो सत्यम बोला।
''अभी चाहिए?'' उसने फिर आंखे फैलाई, ''अभी तो सारी रात बाकी है, बात भी बाकी है।'' उसने शायराना अन्दाज़ में कहा।
उसने आश्चर्यमिश्रित निगाहों से उसे देखा। वह मुस्करा रही थी। इसका क्या अर्थ लगाए?
''थोड़ी देर में आती हूँ।'' उसने कहा और बर्तन लेकर गलियारे के पार वाले मकान के दूसरे हिस्से में चली गई।

थोड़ी देर उसकी बहुत देर बाद हुई। वह बिस्तर पर करवट बदल रहा था। कमरे का पंखा, जब यह मकान बना होगा तभी लगा होगा, मर-मर कर हवा दे रहा था। बल्ब का पीला क्षीण प्रकाश रोशनी देने के स्थान पर चुभ रहा था। कमरे में भी दो छिपकलियाँ विचर रही थीं। बूटी की कल्पना में वह बुरी तरह बेचैन हो रहा था। और बाहर अभी भी बारिश हो रही थी। जैसे ही उसके आने की आहट उसे सुनाई दी थी, उसने समय देखा था। रात के दस से अधिक बज चुके थे।

उसके बाद सुबह के दस कैसे बजे, उसे नहीं पता चला। बहुत शानदार और यादगार रात से उसका सामना हुआ था। जैसा उसने सोचा था, चाहा था, कल्पना की थी, सब कुछ वैसा ही हुआ था। वह जीत चुका था। वरुण को ज़बरदस्त चोट दे चुका था। सुबह आसमान खुला हुआ था। बरामदे का पानी बह चुका था। चलते समय बूटी ने उसे एक पत्र दिया था, जो उसे उसने वरुण को देना है अगर वह उसे मिलता है और उसे उसका वादा याद दिलाया था। तब उसे याद आया कि रात बूटी ने उसके बारे में सब कुछ जान लिया था, यहाँ आने का उद्देश्य भी। उसने उससे वादा लिया था कि अगर वरुण से वह बदला लेता है तो उसे जरूर सूचना देगा, पत्र देने की भी।

वह सोच रहा था, क्या ज़रूरत पड़ी है उसे सूचना देने की। और पता नहीं वरुण कब मिले? तब तक क्या वह उसकी चिट्ठी ढोता फिरेगा। बाहर निकलते ही फाड़कर फैंक देगा।
''भूलना नहीं।'' बूटी ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा।
''क्या मैं भूल सकता हूँ?''
उसकी डबडबाई आँखों को देखता हुआ वह वहाँ से विदा हुआ। वरुण और उसका मोबाइल नम्बर वह रात ही बूटी से ले चुका था। नम्बर ही क्या वह तो उसका सब कुछ ले चुका था।
दिल्ली की ट्रेन में बैठते समय उसने दो-तीन बार वरुण का मोबाइल नम्बर मिलाया था, जिसमें पहुँच से बाहर का मैसेज आ रहा था। फिर उसे बूटी के दिए हुए पत्र का ध्यान आया। उसने जेब से पत्र निकाला। पत्र बंगला भाषा में था। क्या लिखा होगा इसमें बूटी ने वरुण के लिए? क्या मेरे बारे में भी लिखा होगा? क्या रात के बारे में भी लिखा होगा? उसकी यह जानने की तीव्र इच्छा हुई कि इस पत्र में क्या लिखा है? उसने बगल में बैठे यात्री को देखा जो बंगाली ही था और वह उनसे हिन्दी और बांग्ला दोनों भाषाओं में बात कर रहा था जो उसे छोड़ने आए थे।
''क्या आप यह चिट्ठी मुझे पढ़कर सुना सकते हैं, मुझे बंगाली नहीं आती।'' उसने सहयात्री से कहा।
सहयात्री ने उससे पत्र लिया और पढ़ने लगा। बीच में उसने उसे अजीब सी नजरों से देखा। फिर अन्त में उससे पूछा, ''आप वरुण हैं या सत्यम?''
''सत्यम।'' उसने उलझनपूर्ण स्वर में उत्तर दिया।
तो सुनिए सत्यम जी, इसमें क्या लिखा है।'' उसने हिन्दी में बताना शुरू किया।
वरुण, अब तुम प्रिय नहीं रहे।
मैं नहीं जानती कि जो बात इस पत्र में लिखी है तुम्हें उसके बारे में मालूम है या नहीं। अगर मालूम है तो तुम अपने अंजाम से परिचित होगे ही और अगर तुम्हें नहीं मालूम तो जब तुम्हें यह पत्र मिलेगा तो मालूम हो जाएगा। मैं सिर्फ़ इतना कहना चाहती हूँ, जैसे स्त्री को स्त्री होने की सजा मिल जाती है वैसे पुरुष को भी तो पुरुष होने की सजा मिलनी चाहिए। हर पुरुष स्त्री से सिर्फ़ एक ही चीज़ चाहता है और हासिल हो जाने पर दुत्कारता है। मेरे साथ तो बहुत ही बुरा हुआ। तुम्हें मैंने अपना सब कुछ मानकर अपना सब कुछ सौंप दिया था और बदले में जो पाया, वो किसी दुश्मन को भी न मिले। मैंने कुछ तो बदला ले ही लिया। मैंने तुम्हारे दोस्त सत्यम को वो तोहफा दे दिया जो तुमसे मुझे मिला, क्षण-क्षण करीब आती मौत का तोहफा। सबसे भयंकर बीमारी। क्या कहते है उसे, एड्स की बीमारी। तीन महीने पहले किसी वजह से मेरे रक्त की जाँच हुई थी तो उससे मालूम हुआ। तो जो मुझे तुमसे मिला वह मैं उन सभी पुरुषों को बाटूँगी जो मेरी ओर आकर्षित होंगे।
बूटी।

सत्यम के मुँह से बोल नहीं फूटा। सहयात्री ने पत्र उसकी गोद में रख दिया क्योंकि वह तो जड़ हो गया था लेकिन ट्रेन दिल्ली की ओर भागी जा रही थी।

नीचे दिए लिंक पर भी देख सकते है:

http://www.abhivyakti-hindi.org/kahaniyan/2009/46duskylane/46duskylane1.htm