Wednesday, August 4, 2010

तेईस साल बाद

मिस अनुरीति
द्वारा श्री राधा रमण वर्मा
सी-१५, पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट क्वाटर्स,
मौरिस नगर, दिल्ली-११०००७

पता हमारा था पर यहाँ अनुरीति कोई नहीं थी। राधा रमण वर्मा कोई नहीं था। डाकिया मुझसे दस रुपये ले गया था, कहा था, गोवा से आया है, और इस पर पूरी कीमत का टिकट नहीं लगा है। उसे दस रुपये देने से पहले मैंने एक बार उसे कहा भी था कि यहाँ कोई अनुरीति नहीं रहती, पर फिर एक लड़की का नाम देखकर और लिफाफे का पीलापन और धुँधला चुका पता लिखा देख भीतर अजीब सी उत्सुकता हुई थी और मैंने पत्र ले लिया था।

लिफाफा मैं खोल चुका था। पत्र का कागज चार तहों में था, जो इतना जीर्ण हो चुका था कि तहों वाले मोड़ों से फट चुका था और वो चार टुकड़ों में मेरे सामने था। उसका लिफाफा मेज पर रखा था, जो शायद कभी झक सफेद रहा होगा आज पीला, भूरा, जर्द था। उस पर पचास पैसे कीमत का लगा टिकट भी धुँधला पड़ चुका था। अलग-अलग टुकड़ों को एक करके मैं पत्र पढ़ने लगा-

४३, वाड्डी कैंडोलिम
बारडेज, गोवा।
सोमवार, २१ अक्तूबर, १९८५

अनुरीति,

प्रिय नहीं लिख रहा हूँ, अभी संशय में हूँ।
जिस दिन आप दिल्ली पहुँचेंगी, उसी दिन या शायद अगले दिन ये पत्र आपके हाथों में होगा। आप घर पहुँचेगी, सामान रखकर दरवाजा बन्द करेंगी और अभी पलट भी न पायीं होंगी कि दरवाजे पर दस्तक होगी। आप चौंककर दरवाजा खोलेंगी और मेरा प्रतिरुप आपके सामने होगा, मेरा ये पत्र। मेरी अधीरता का अनुमान आपको इसी से ही लग जायेगा कि आपको बम्बई की बस में बिठाने के बाद जो पहला काम मैं कर रहा हूँ वह यह पत्र लिखना है। मुझसे कहीं अधिक सौभाग्यशाली होगा यह पत्र जो हमेशा के लिए आपके पास आने वाला है। आपको बम्बई के लिए विदा करने के बाद मैं यों ही खाली-खाली सा भटकता रहा। बस टर्मिनस के पीछे मंडोवी नदी का पानी भी मुझे कोई सुकून नहीं दे रहा था।

पता है, पूरे रास्ते मैं अजीब सी बैचेनी से घिरा रहा। कुछ भी याद नहीं, सिर्फ एक सफेद कबूतरी याद है, जो मेरी कल्पनाओं में निरन्तर मेरे साथ है, जिसके फैले हुए पंख मेरी छत हैं, जिसका नर्म स्पर्श मेरा बिस्तर है, जिसकी प्यारी गुटरगूँ मेरी प्रार्थना है, जिसका फड़फड़ाना मेरे जज्बात हैं, जिसका उड़ना मेरा विस्तार है। पर घर आया तो खाली हाथ था, सफेद कबूतरी उड़ चुकी थी, कल्पनाऐं बिखर चुकी थीं, आप जा चुकी थीं। कितनी अजीब बात है कि पन्द्रह दिन हम एक साथ रहे, घूमे-फिरे, खाया-पिया, हँसी-मजाक किया, कहा-सुना पर वह न कह सका जो मुझे अवश्य कह देना चाहिए था और अब, आपके जाते ही वह बात कहने के लिए बेचैन हो रहा हूँ।

मैं जानता हूँ गोवा बहुत हसीन है लेकिन पिछले पन्द्रह दिनों में वह बहुत ही हसीन लगा क्योंकि आप मेरे साथ थीं। फोर्ट अग्वादा, अन्जुना बीच, चापोरा फोर्ट, डोना पॉला, आवर लेडी चर्च, ओल्ड गोवा चर्च, शांता दुर्गा मन्दिर हमेशा साधारण से लगते रहे पर दो सप्ताह के लिए सभी कुछ असाधारण हो गया........सभी कुछ, मैं भी। क्योंकि इस बार आप साथ थीं, क्या ये साथ हमेशा के लिए हो सकता है? आपके आँखों से ओझल होते ही मुझे सिर्फ आप ही दिखाई दे रही हैं। नटखट, शोख, चंचल। फटी हुई किताब में, किसी के 'ओहो यूपी के गौड़ ब्राह्मण` कहने में, किसी के लम्बे बालों में, किसी की चमकती हुई पीठ में। मैं नहीं जानता कि मैं क्या कर रहा हूँ, क्या कह रहा हूँ। मैं ये भी नहीं जानता कि आपके दिल में मेरे लिए कैसी भावना है, शायद जानने की आवश्यकता भी नहीं क्योंकि मैं अपने दिल की बात तो जानता ही हूँ, जो शब्दों के रूप में इस कागज पर बिखर कर आप तक पहुँचने वाली है, पता नहीं आप इसे समेटेंगी या छितरा देंगी। अगर मेरी भावनाओं का आदर न कर सको तो विनती है कि निरादर भी न करना, उत्तर अवश्य देना। स्वीकृति
या अस्वीकृति।
इस दुस्साहस की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में।

- आभास

पत्र पढ़ने के बाद दिल अजीब से रोमांच से धड़कने लगा। किसी का इतना निजी और प्रेम से भरा पत्र मैंने आज तक नहीं पढ़ा था, पत्र क्या, वैसा कुछ भी लिखा मैंने नहीं पढ़ा था। आज पच्चीस सितम्बर दो हजार आठ है। तेईस बरस........। मैं भी तो तेईस बरस का हूँ। मेरे जन्म के बाद लिखा गया था ये पत्र। तेईस बरस में किसी का प्रेम पत्र पहुँचा है। एक जीवन बीत जाता है इतने बरसों में। क्या ये सम्भव है? सम्भव तो है तभी तो ये पहुँचा है।

यह प्रेम पत्र पढ़कर मैं आभास की कल्पना करने लगा। आकृति तो बन गयी पर चेहरा नहीं बन पाया...। चेहरा बनने लगा...बन गया...। पर...वह मेरा चेहरा था। मैं? मैं 'आभास` हो गया। मेरा पत्र मुझे वापस मिल गया। मुझे लगा मैंने ही ये पत्र लिखा था। इतने वर्षों बाद जो मुझे मिला है वह मैं सही पते पर पहुँचाऊँगा। शायद इस पत्र को प्राप्त करने वाली अभी भी इसकी प्रतीक्षा कर रही हो?

अनुरीति इस फ्लैट में रहती थी। वह कैसी होगी? कौन से कमरे में रहती होगी? क्या करती होगी? क्या पढ़ती होगी? मैं अपनी कल्पना में अनुरीति को देखने लगा। मुझे अपने फ्लैट के प्रत्येक स्थान पर अनुरीति दिखाई देने लगी। एक प्यारी सी सफेद कबूतरी जैसी लड़की। लेकिन अब तो वह अनुरीति अम्मा होगी। फिर भी, मैंने उसी समय निश्चय कर लिया कि मैं उसकी अमानत उस तक पहुँचा कर रहूँगा, कैसे भी।

'कैसे भी` की शुरुआत मैंने अपने पिता से की। पिताजी से उनके आफिस में राधा रमण वर्मा के बारे में मालूम करवाया। पता चला कि राधा रमण वर्मा सीनियर एकाउन्टेट थे जो सन १९८९ में रिटायर हो गये थे। रिटायर होने के बाद सरकारी आवास छोड़ गये, जो कि छोड़ना था। कहाँ गये? सिविल लाइन्स में। वहाँ का पता एक कागज के टुकड़े पर लिखा हुआ मुझे मिला। पिताजी ने पूछा था कि वर्मा से क्या काम होगा जो शायद अब तक मर खप भी गया होगा। मेरा जवाब था कि काम हो जाने के बाद बताऊँगा।

यहाँ से मेरी यात्रा आरम्भ हुई जो तेईस बरस लम्बी थी, जहाँ किसी की अभिलाषा थी जो मन के किसी कोने में मोटी पर्तों के नीचे कहीं दबी होगी, जहाँ किसी की प्रतीक्षा थी जो इतनी लम्बी हो गयी थी कि प्रतीक्षा करने वाले को ही मालूम नहीं हुआ होगा।

७ फ्लैग स्टाफ रोड, सिविल लाइंस, दिल्ली।
यही पता था और मैं इस पते की इमारत के सामने खड़ा था। इमारत के गेट के बायीं ओर जो पत्थर जड़ा था उस पर तीन नाम लिखे थे मगर उनमें वर्मा कोई नहीं था। मैं हिचक रहा था कि भीतर जाऊँ या नहीं। पत्र मेरी कमीज की जेब में सुरक्षित रखा था फिर भी मैंने उसे टटोला। पत्र का स्पर्श होते ही हिचकिचाहट ने दम तोड़ दिया। मैं आगे बढ़ा और गेट के किनारे लगी कॉलबेल बजा दी।

कुछ ही क्षण बाद एक लड़का बाहर आया जो शायद नौकर था। उससे राधा रमण वर्मा के बारे में पूछा। उसने साफ मना कर दिया कि यहाँ कोई राधा रमण वर्मा नहीं रहता। मैंने घर के मालिक से बात करने की इच्छा जताई। पहले वह हिचकिचाया, फिर मुझे वहीं रुकने को कहा और भीतर चला गया। थोड़ी देर बाद एक बुजुर्ग बाहर आये। मैंने उनसे भी वही प्रश्न किया।

बुजुर्ग कुछ देर के लिए विचारमग्न हो गये। फिर वे बोले, 'एक श्रीचरण वर्मा को तो मैं जानता हूँ। यह मकान हमने उसी से खरीदा था। हो सकता है राधा रमण वर्मा उसका भाई हो। क्या बात हो गई?`
'बात कुछ नहीं। उनका कुछ सामान था मेरे पास।`, मैंने हिचकिचाते हुए कहा।
'अच्छा।`, उन्होंने कहा, 'नवासी नब्बे में हमने यह मकान खरीदा था। अब तो मुझे भी नहीं पता वो कहाँ होंगे। हाँ, हो सकता है कि वे कानपुर में हों। मुझे याद है उन्होंने बताया था कि वे कानपुर के रहने वाले थे। हो सकता है, वे वहाँ चले गये हों। हो सकता है........। हो सकता है.........।`
'कानपुर का पता तो आपके पास नहीं होगा?`, मेरे प्रश्न में पहले से ही नाकारात्मकता झलक रही थी।
बूढ़े ने इन्कार में गर्दन हिलाई।
'कोई उनका जानकार होगा जो मुझे उनका पता बता दे।`, मेरे शब्दों में निराशा अधिक थी।
बुजुर्गवार फिर सोच में गुम हो गये।
'एक शशिलाल कौशिश है जिनका अशोक निकेतन में आफिस है, उनके पास हो सकता है उनका पता हो।`,
आशा की एक किरण उन्होंने मुझपर छोड़ी।
'उनका पता दे दीजिए।`
'क्या ज्यादा जरूरी सामान है?`, उन्होंने संशय भरे स्वर में पूछा।
जी। बहुत जरूरी।`, मैंने कहा और अपनी कल्पना में उस पत्र को छुआ।
'ठीक है बेटा, तू ठहर यहीं। मैं ढूँढ के लाता हूँ।`, उन्होंने कहा और भीतर चले गये।
मैं बाहर ही प्रतीक्षा करता रहा। शायद पता ढूँढना, पुराना पता ढूँढना मुश्किल काम था इसलिए उन्हें बहुत देर लग गयी।
'बहुत पुराने कागज खंगालने पड़े मुझे`, उन्होंने मुझे एक कागज का पुर्जा देते हुए कहा।
'सर, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद और मेरी वजह से आपको जो परेशानी उठानी पड़ी उसके लिए माफी चाहता हूँ।`, मैंने खेदपूर्ण स्वर में कहा।
उन्होंने भावहीन नेत्रों से मेरी ओर देखा और बिना कुछ कहे भीतर चले गये।

पता अशोक निकेतन, नारायणा विहार का था और एक टेलिफोन नम्बर भी था। मैंने अपनी मोटरसाइकिल स्टार्ट की और रिंग रोड की ओर मुड़ लिया। वह 'कौशिक प्रापर्टीज` के नाम से आफिस था। वहाँ पूछताछ पर पता चला कि शशिलाल कौशिश का देहान्त हुए कई साल हो चुके हैं और उनका बेटा संजय कौशिश किसी श्रीचरण वर्मा या राधा रमण वर्मा को नहीं जानता। इसके अलावा उसने और कोई भी बात करने से मना कर दिया। मैं घर लौट आया।

मैं निराश तो नहीं हुआ था लेकिन आगे के लिए मेरा रास्ता बन्द हो गया था। मेरे पास सिर्फ एक शहर का नाम था और शहर के नाम से किसी नाम का पता लगाना असम्भव ही था। लगता था, अनुरीति का पत्र मेरे ही पास रह जाने वाला था। शायद इस पत्र की यही नियति है कि यह अनुरीति को कभी नहीं मिलेगा। रात भर मैं सोचता रहा और रात में ही मैं एक नतीजे पर पहुँच गया।

मैंने गोवा जाने का निश्चय किया। मिलने वाले को यह पत्र नहीं मिला तो क्या हुआ? भेजने वाले को तो वापस मिल ही सकता है। इतना कीमती और इतनी लम्बी समयावधि की यात्रा करके आया पत्र मैं डाक से तो वापस भेज नहीं सकता था इसलिए मैंने स्वयं ये पत्र भेजने वाले को देकर आने का निश्चय किया। मन का पंछी उड़ने के लिए पंख फड़फड़ाने लगा।

मैंने अपने माता-पिता को अपने निश्चय के बारे में बताया। दोनों ने एक साथ मना कर दिया।
'फाड़ के फैंक उसे।`, यह मेरी माता जी उद्गार थे।
मैं उन्हें कैसे समझाऊँ कि मैं इस पत्र के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ चुका हूँ और दिल से सोचने वाला व्यक्ति दिमाग की बात नहीं मानता। मैं उन्हें कैसे समझाऊँ कि एक सफेद कबूतरी मेरे भीतर उड़ रही है और किसी की खामोश प्रतीक्षा मुझे कचोट रही है। मैंने अपने पिता को समझाने का प्रयास किया। उन्होंने कुछ भी सुनने से इन्कार कर दिया लेकिन जाने के लिए सहमति दे दी। उन्होंने पत्र भी पढ़ा, वे भी पत्र पढ़कर कहीं खो से गये। मेरी माँ नाराज हुई मगर अन्तत: वे भी मान गईं।

तो अगले आठ दिन बाद यूनिवर्सिटी की दशहरे की छुटि्टयों में वापसी की टिकट लिये मैं गोवा की जमीन पर था। गोवा एक्सप्रेस ने मुझे सुबह साढ़े छह बजे मडगांव स्टेशन पर उतारा। पहले मैंने सोचा था किसी दोस्त को साथ लेकर आऊँ लेकिन इस तेईस साल पुराने पत्र से सम्बन्धित सारे रोमांच, सारे एडवेन्चर मैं किसी के साथ शेयर नहीं करना चाहता था। उसके सारे सुख-दुख अकेले ही झेलना चाहता था।

स्टेशन से बाहर निकलते ही पीले रंग के किंगफिशर बीयर केन के बहुत बड़े होर्डिंग ने मेरा स्वागत किया। बीयर केन की फोटो इतनी सजीव थी कि मन कर रहा था कि इस चिल्ड केन को अभी उठाकर पी लूँ। मडगांव स्टेशन से बाहर निकलकर मैंने कैंडोलिम जाने के लिए पूछताछ की। पूछताछ के आधार पर मैं मडगांव बस अड्डे से बस पकड़कर पहले पणजी पहुँचा और वहाँ से कैंडोलिम। कैंडोलिम इलाका गोवा के सबसे प्रसिद्ध बीच कैलंगूट बीच के पास स्थित है। कैंडोलिम खुद भी बीच के किनारे है और इसी नाम से बीच जाना जाता है। मैंने वाड्डी भी पूछा और मुझे यही समझ आया कि गोवा वासी वाड्डी या वाड्डो गांव या इलाके को कहते है। तिरतालिस नम्बर कई स्थानों पर पूछने पर भी पता नहीं लग पाया। और आभास! कौन आभास? क्या आभास? आभास क्या होता है?

जो काम मैं बहुत आसान समझ रहा था, वही सबसे मुश्किल हो गया था। अनुरीति को दिल्ली में तलाश करने से भी अधिक मुश्किल। अब सबसे पहले मैंने अपने रहने का सस्ता ठिकाना खोजा ताकि मैं ताज़ा होकर नई उम्मीद और नई उमंग से अपनी खोज कर सकूँ।

होटल के कमरे में बैठा मैं नये सिरे से सोच रहा था कि अब कैसे शुरूआत करूँ? अपने घर पर सकुशल गोवा पहुँचने की सूचना मैं दे चुका था लेकिन उन्हें प्रारम्भिक खोजबीन की निराशा के बारे में नहीं बताया था।

अचानक मेरे दिमाग में घंटी बजी।
और आधे घण्टे बाद मैं कैंडोलिम डाकघर में था। डाकघर से ही मुझे सही पता मिल सकता था। मैंने धड़कते दिल से वहाँ मौजूद एक व्यक्ति से पता पूछा।

'कासाब्लांका बीच रिसोर्ट। उसने लगभग तुरन्त जवाब दिया।
'ये होटल है? मैंने पूछा।
'बरोबर।`
'इस पता पर घर नहीं है?`
'वहाँ तो यही रिसोर्ट है। तुम्हें किधर जाने का? उसने पूछा।
'मुझे तो इसी पते पर जाना है। मैंने धीरे से कहा।
'तो बताया न बरोबर। कासाब्लांका बीच रिसोर्ट।`
'वहाँ कोई आभास रहते हैं, आभास गौड़। मुझे अनायास ही पत्र में लिखा 'ओहो यूपी के गौड़ ब्राह्मण` याद आ गया और इसलिए मैंने आभास के साथ गौड़ जोड़ दिया। उसने इन्कार में गर्दन हिलाई। उसकी गर्दन हिलने के साथ ही मेरी नसों में निराशा प्रवेश करने लगी। 'वे इस पते पर बीस-पच्चीस साल पहले रहते थे। मैंने निराशापूर्ण स्वर में ही कहा। उसने मुझे नये सिरे से देखा। उसके गहरे साँवले चेहरे पर अजीब से भाव थे।
'तुम्हारा ऐज कितना? उसने पूछा।
'सर, मेरी ऐज तो तेईस साल है लेकिन इस पते पर एक हिन्दू फैमिली रहती थी। उनके यहाँ जाना था मुझे।`

वह सोचने लगा।
'इधर तो सब फाइव टू सैवन ईयर्स वाला स्टाफ है। कुछ देर बाद वह बोला, 'तुम एक काम करो। मेन रोड पर डोना एल्सिना रिसार्ट है, उसके सामने एक चाइनीज रेस्टोरेन्ट है और उसके बराबर वाले हाउस में विल्सन को पूछना। विल्सन को बरोबर मालूम होयेंगा उस पता का हिन्दू फैमिली के बारे में।`
'कासाब्लांका बीच रिसोर्ट वाले नहीं बता देंगे उनके बारे में? मैंने पूछा।
'मेबी। पण विल्सन को हन्डरेड पर्सेन्ट पता होयेंगा।`
'वे कौन हैं?`
'विल्सन इधरइच काम करता था, इधर से ही रिटायर हुआ है। उसे बरोबर मालूम होयेंगा।`
उम्मीद मेरी आँखों में फिर से चमक गई। मैंने उसे धन्यवाद कहा और डाकघर से बाहर आ गया।

डोना एल्सिना वहाँ से कुछ ही दूर था। उसके सामने सड़क पार मुझे चाइनीज रेस्टोरेन्ट 'जस्ट चाइनीज` दिखाई दे गया। उसके बाहर और सड़क पर मुझे भीड़ दिखाई दी। शायद कोई समारोह हो रहा था। सभी लोगों ने, जिसमें महिलाएँ और बच्चे भी थे, नये कपड़े पहने हुए थे। रेस्टोरेन्ट मेन रोड पर था और वहीं से अन्दर जाती एक गली के मुहाने पर था। लोग उस गली में जा रहे थे। मैं रेस्टोरेन्ट के पास पहुँचा। उस गली में ही आगे कहीं जाकर चर्च था। वहाँ से पटाखों के चलने की आवाजें भी आ रहीं थी। किसी की शादी हो रही थी। उसी भीड़ में मुझे एक सजी हुई कार दिखाई दी और उसमें काले सूट में बैठा दुल्हा। कार चर्च की ओर जा रही थी। मेरी तीव्र इच्छा हुई कि मैं चर्च में जाकर दुल्हन को देखूँ लेकिन अपनी इच्छा को मारते हुए मैं रेस्टोरेन्ट के बराबर वाले मकान की ओर बढ़ गया।

मकान गोवानी शैली में ही बना हुआ था और काफी पुराना दिखाई दे रहा था। लोहे का गेट, छोटा लॉन, खम्भों वाला बरामदा और फिर मेन दरवाजा। दरवाजा खुला था और एक औरत देहरी पर खड़ी बारात को देख रही थी और अब..... मुझे। प्रश्न उसके चेहरे पर चमक आया।
'मुझे मिस्टर विल्सन से मिलना है? मैंने हल्का सा हिचकते हुए कहा।
'आप...? स्त्री ने प्रश्न हवा में ही छोड़ दिया।
'मेरा नाम नील है और मैं दिल्ली से आया हूँ। एक्चुली, मुझे एक पता के बारे में मिस्टर विल्सन से पूछना था। उनके बारे में मुझे पोस्ट आफिस वालों ने बताया था। मैंने एक साथ ही सब कुछ कह दिया।
'पता? कौन सा पता? स्त्री ने उलझे स्वर में पूछा।
'मिस्टर विल्सन हैं क्या?`
'वो यहाँ नहीं है। फोन्डा गया है। कल मॉर्निंग में आयेगा। स्त्री ने कहा, 'तुम्हेरे को किसी पता के बारे में पूछना है तो मॉर्निंग में आना। और कुछ माँगता है?`
'हाँ। मैंने कहा।
'क्या?`
'उनका कोई मोबाइल नम्बर? एक्चुली मुझे एमरजेन्सी है।`
'उनके पास मोबाइल तो है पण मैं तुम्हेरे को कैसे दे सकती। एक टोटली स्ट्रेंजर को।`
'ओके मैडम, कोई बात नहीं। मैं कल आ जाता हूँ। मैंने कहा और वापस मुड़ गया।

बाहर निकलकर सबसे पहले जो मेरे भीतर प्रश्न उठा वह था 'अब`। पत्र मेरी जेब में मौजूद था। पता नहीं उसका मालिक कहाँ मिलेगा? मिलेगा भी या नहीं? गोवा में है भी या नहीं? तेईस साल बाद पता नहीं वह यहाँ मिलेगा या नहीं।

मेरी वापसी की टिकट परसों की थी और तब तक तो कोशिश करनी ही थी। कुछ तो मिलेगा ही, कुछ तो अगर.......। अगर के आगे कुछ नहीं था, कुछ भी नहीं। मेन रोड पर आकर मैंने कासाब्लांका रिसोर्ट का रास्ता पूछा। रिसोर्ट के कई कर्मचारियों से पूछने के बाद भी आभास गौड़ के बारे में कुछ भी मालूम नहीं हुआ। अब मेरे पास विल्सन नाम का आदमी ही उम्मीद की किरण थी जो मुझे कल मिलने वाला था।

समय व्यतीत करने के लिए मैंने कैंडोलिम और कैलंगूट बीच की सैर की। मैंने समुद्र पहली बार देखा था। इतना विशाल और इतना पानी देखकर मैं रोमान्चित हो गया। बेहद भीड़ भरे कैलंगूट बीच पर ही मैंने किंगफिशर के पीले केन वाली बीयर पी जिसने स्टेशन से बाहर निकलते ही मेरा स्वागत किया था। इतनी भीड़ होने पर भी मैं नितान्त अकेला था मगर बीयर पीने से मेरे भीतर के सारे अवसाद धुल गये और आत्मविश्वास में वृद्धि हुई। अगर मुझे आभास नहीं मिलता है तो वह उसकी बदकिस्मती है और अगर मुझे अनुरीति नहीं मिलती है तो यह मेरी बदकिस्मती है। लेकिन मैं तो आभास को ही ढूँढ रहा हूँ। अनुरीति की तलाश तो दिल्ली में ही खत्म हो गयी थी। खैर! यह दिन मेरा घूमने-फिरने में निकला।

अगले दिन दोपहर को मैं फिर विल्सन के घर के सामने था।
इस बार मेरा सामना एक आदमी से हुआ। उससे विल्सन के बारे में पूछा। उसने बताया वह चर्च गया है अभी आने वाला है। मैंने चैन की गहरी साँस ली। शुक्र था, मेरी आखिरी उम्मीद फोन्डा से वापस आ गयी थी। उसने मेरा परिचय पूछा। मैंने बताया और यहाँ आने का मकसद भी। और अपनी कल की विजिट के बारे में भी बताया।
'तुम यहाँ प्रतीक्षा कर सकते हो। वे अभी आ जाएँगे। उसने अँग्रेजी में कहा, 'मेरा नाम आर्थर विल्सन है। मैं उनका बेटा हूँ।`
वह भीतर जाकर मेरे लिए एक कुर्सी ले आया। मैं बरामदे में बैठ गया और प्रतीक्षा करने लगा। शायद विल्सन उसी पास वाले चर्च में गया होगा जहाँ कल बारात जा रही थी। मेरी प्रतीक्षा चालीस मिनट चली। एक वृद्ध लोहे का गेट खोलकर लॉन से होते हुए बरामदे में आये जिन्हें देखकर मैं खड़ा हो गया। उन्होंने मुझे प्रश्नसूचक नेत्रों से देखा।
मैंने उन्हें नमस्ते किया और पूछा, 'आप मिस्टर विल्सन?`
'हाँ। तुम कौन?`
'मेरा नाम नील है और मैं दिल्ली से आया हूँ। एक्चुली, मुझे एक पते के बारे में आपसे पूछना था।
आपके बारे में मुझे पोस्ट आफिस वालों ने बताया था कि आप ही वह पता बता सकते हैं। मैंने जल्दी-जल्दी कहा।

'ये पोस्ट आफिस वाले भी....। रिटायरमेन्ट के बाद भी चैन नहीं। उन्होंने तिक्त भाव से कहा। उनकी बातों से निराशा मेरे भीतर फिर से जन्म लेने लगी।
'क्या पता है? उन्होंने पूछा, 'नाम क्या है?`
'हिन्दू फैमिली है सर। आभास गौड़। फोर्टी थ्री कैंडोलिम। मैंने इतनी जल्दी से कहा कि कहीं वे बताने का इरादा न बदल लें। जो मैंने कहा वही उन्होंने धीरे-धीरे बुदबुदाया।
'पता तो कासाब्लांका का है। वे अभी भी बुदाबुदाकर बोल रहे थे, 'तुम बैठो, मैं भीतर होकर आता हूँ।
फिर उन्होंने थोड़ा तेज स्वर में कहा और मुझे अधीर छोड़कर भीतर चले गये। थोड़ी देर बाद वे लौटे, अपने लिए भी एक कुर्सी लेकर। वह थोड़ी देर मेरे लिए बहुत लम्बी प्रतीक्षा थी। अब हम आमने-सामने बैठे थे। मैं चेहरे पर उत्सुक भाव लिए उन्हें देखता रहा।

'तुम जानता है वो हिन्दू फैमिली को? उन्होंने सवाल किया।
'नहीं।`
'फिर किसलिए माँगता है उनका पता?`
'एक्चुली, मेरे पास मिस्टर आभास गौड़ का कुछ सामान है जो मैंने उनको वापस करना है।` मैंने कहा।
'क्या? क्या सामान?`
मैं चुप रहा। वह मेरी ओर देखते रहे।
'और वापस बोले तो? उनका सवाल जारी रहा।
'कुछ बहुत प्राइवेट सामान है। मैंने धीरे से कहा।
'उस फैमिली ने तुमको दिया था वो सामान?`
बूढ़ा पता नहीं मुझसे क्या पहेलियाँ बुझा रहा था। मुझे गुस्सा आने लगा। इस चूहे बिल्ली के खेल से मुझे इतना तो एहसास हो गया था कि उसे आभास के बारे में मालूम है। जैसा कि पोस्टआफिस वाले ने कहा था कि विल्सन को हन्डरेड पर्सेन्ट पता होयेंगा।
'जी नहीं। प्रत्यक्षत: मैंने कहा, 'गलती से उनका सामान मेरे पास आ गया था। मैं सिर्फ उनको देने आया हूँ। मेरे लिए वो फैमिली हन्डरेड पर्सेन्ट अजनबी है।`
बूढ़ा कहीं खो सा गया। उनकी आँखे ठहर गयीं थी। साँवले चेहरे और कई दिनों की बढ़ी दाढ़ी से उनके चेहरे से कुछ भी अनुमान लगाया जा सकता था। वे बीते दिनों के जाल में घिर गये थे।

'अपुन सोचता था......., फिर वह बोला, जैसे खुद से ही बात कर रहा हो, '.......हम अपने लोगों को ही तलाश करता है, जिन्हें हम जानता है, जो हमारा अपना है........पण टोटली स्ट्रेन्जर्स को तलाश करना, जिनसे हमारा कोई रिलेशन नहीं, कोई लालच नहीं। पण......अपना लोग भी कहाँ मिल पाता है.......।`
मुझे बिल्कुल समझ नहीं आया कि वे क्या कहना चाह रहे हैं।
'गौड़ फैमिली को पूछता है न तुम माई सन? अन्तत: उन्होंने शुरूआत तो की।
मैंने सहमति में सिर हिलाया।
'अच्छा फैमिली था पण वे तो यहाँ नहीं रहता.......।`
'कहाँ मिलेंगे वे?`
उन्होंने मेरे प्रश्न को अनसुना कर दिया।
'.....ही वाज वैरी गुड ब्वॉय। आभास.....नाइस गॉइ। वैरी लांग टाइम एगो, फर्स्ट टाइम वो मुझे पोस्टऑफिस में मिला था। अपने किसी लैटर के बारे में पूछता था। फिर डेली आने लगा पण उसका लैटर नहीं आया।` वे अतीत के कुएँ में कूद चुके थे और सालों से भरे पानी को बाहर फैंक रहे थे। मेरी धड़कनें तेज होने लगी। मुझे लगा, अभी आभास का पता चल जायेगा और कुछ देर बाद मैं उसके सामने होऊँगा।
'उन्हीं दिनों उसके फादर का डेथ हो गया था और वे कैंडोलिम से चले गये थे अपना सारा प्रापर्टी सोल्ड करके। बहुत बरस गुजर गया उस छोकरे को देखे हुए।`

'अब? अब कहाँ है वे? मेरे मुँह से निकला।
वे वर्तमान में लौट आये। उन्होंने मेरी ओर देखा और मुस्कराये।
'अल्टिनहो में।`
'अल्टिनो! ये कहाँ है? अधीरता मेरे स्वर से भी अधिक थी।
'पणजी में।
'वहाँ मिल जायेंगे न वे मुझे? मैं अभी भी अधीरता पर सवार था।
उनकी मुस्कराहट और बढ़ गयी।
'रिलैक्स माइ सन, रिलैक्स। उनके घर का पता तो मुझे भी नहीं मालूम पण इतना मालूम है कि वे अल्टिनहो में जॉगर्स पार्क के पास कहीं रहते हैं।`
'क्या ऐसे में मैं उन्हें खोज पाऊँगा? मेरे उत्साह पर बर्फ जमने लगी।
उनकी मुस्कान बढ़ती जा रही थी और रहस्यमय होती जा रही थी।
'लगता है तुमको रिलैक्स का मीनिंग नहीं मालूम? या मालूम?`
मैं उलझनपूर्ण चेहरे से उन्हें ताकता रहा।

'पणजी मार्केट में उनकी गौड़ बद्रर्स के नाम से कैश्यूनट का बहुत बड़ा शॉप है। मार्केट में किसी भी कैश्यू शॉप से पूछना वो बता देगा। वे पूर्ववत उसी मुस्कान सहित बोले, 'वहीं तुम्हें आभास मिल जायेगा। उसे मेरे बारे में बताना कि विल्सन उसे बहुत मिस करता है।`
मेरी मन्जिल सिर्फ एक पड़ाव दूर थी। पत्र का मालिक बस मिलने ही वाला है। उनका बहुत-बहुत धन्यवाद करता हुआ मैं वहाँ से निकल पड़ा।

कैंडोलिम से बस से मैं पणजी पहुँचा और वहाँ से मार्किट। कुछ देर के प्रयास से ही मुझे एटीन्थ जून रोड स्थित 'गौड़ बद्रर्स` नाम की काजू की दुकान मिल गयी। दुकान देखते ही मेरा दिल जोर से धड़कने लगा था। पत्र मेरी जेब में था और उसका मालिक दुकान के भीतर होगा। हो सकता है उसे याद ही न हो इस पत्र की। जिस तरह मैं बेकरार हो रहा हूँ ये पत्र उसके मालिक को पहुँचाने को, हो सकता है वह इस बात को उदासीनता से ले। हो सकता है वह पत्र ले ले और धन्यवाद कहे बिना ही नमस्ते कर दे। हो सकता है कि....। लक्ष्य पर आकर मैं ये सारी बातें सोच रहा था जिन्हें मैंने सबसे पहले सोचना था। अब जो होना है वो होना ही है। यहाँ तक आना ही मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी। मैंने दुकान में प्रवेश किया। काउन्टर पर तीन लोग थे जिनमें से दो लोग अन्य ग्राहकों के साथ बिजी थे।
तीसरा मेरी ओर आकर्षित हुआ।

'मुझे मिस्टर आभास से मिलना है। मैंने धैर्यपूर्ण स्वर में कहा।
'वे तो नहीं हैं। मुझे बताइये, क्या काम है? उसने व्यवसाय सुलभ स्वर में कहा।
मैं एक क्षण हिचकिचाया और कहा, 'मुझे उनसे ही काम है।`
उसने मुझे गौर से देखा और फिर काउन्टर के दूसरी तरफ देखता हुआ बोला, 'संचित सर, ये बड़े साहब के बारे में पूछ रहे हैं।`
संचित सर ने मेरी ओर देखा और मैंने उसे।
'भाई साहब तो नहीं है, मैं उनका छोटा भाई हूँ, आप मुझे बता सकते है क्या काम है? संचित ने कहा।
'मुझे उन्हीं से ही मिलना है। मैंने फिर वही बात कही।
'आप कहाँ से है? उसने पूछा।
'मैं दिल्ली से आया हूँ।`
'दिल्ली!!, वह उलझनपूर्ण स्वर में बोला, 'दिल्ली से आये हैं आप?`
'जी हाँ। मैंने संक्षिप्तता से कहा।
'क्या काम है आपको? उसने फिर वही सवाल किया।
मैं चुप रहा। बार-बार एक ही बात का एक ही जवाब देना व्यर्थ था।
'क्या नाम आपका? उसी ने पूछा।
'नील।`

उसने काउन्टर के भीतर से अपना मोबाइल उठाया। इसी दौरान वह जिससे मैंने सबसे पहले बात की थी, उन ग्राहकों को अटैंड करने लगा था जिन्हें संचित ने छोड़ा था। अब मोबाइल उसके कान में लगा था और वह मेरा जायजा लेता हुआ मुझे देख रहा था।
'भइया प्रणाम...कोई नील नाम का लड़का दिल्ली से आया है आपसे मिलने... क्या?... आपसे ही काम है...अब ये तो मालूम नहीं...कराता हूँ। उसने मोबाइल मेरी ओर बढ़ाया और कहा, 'लो भइया से बात कर लो।`
मैंने मोबाइल अपने कान पर लगाया। मेरा दिल जोर से धड़का और साँस भारी हो गयी।
'नमस्ते सर। भारी साँसों के बीच से बड़ी मुश्किल से निकला। संचित एकटक मुझे देख रहा था और बाकी दोनों लोग भी रह-रहकर।
'नमस्ते। क्या आप मुझे जानते हैं? दूसरी ओर से कहा गया।
'नहीं सर। हम अजनबी हैं। लेकिन मैं दिल्ली के पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट क्वाटर्स से आया हूँ।`
'कहाँ से? वहाँ से पूछा गया।
'पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट क्वाटर्स से। आपने वहाँ कुछ भेजा था, सर। मैंने रहस्यमय स्वर में कहा।
'मैंने भेजा था वहाँ? क्या? क्या भेजा था? उधर उलझनें बढ़ती जा रही थी।
'जो चीज किसी और को मिलनी थी वो मुझे मिली है, सर। और आपकी वह अमानत मेरे पास है। मैंने रहस्यमयता बरकरार रखी।

'मेरी अमानत! आपके पास? एक मिनट, एक मिनट, एक मिनट...हे भगवान! वो लैटर आपके पास है? है न, वही है न? दूसरी ओर से जो स्वर मुझे सुनाई आ रहा था, उसकी अधीरता मुझसे भी अधिक थी।
'जी सर। वही है मेरे पास। मेरे चेहरे पर मुस्कराहट आ गयी।
'आप संचित को फोन दो।`
मैंने फोन वापस संचित को दे दिया।
'जी भइया। उसने कहा। '...जी...जी....जी..'....ठीक है भइया।`

इतने भावपूर्ण पत्र को लिखने वाला कठोर हो ही नहीं सकता। वह भूल ही नहीं सकता। वैसे भी वह पत्र भूलने वाला नहीं है। मैं सोचता हुआ चैन की लम्बी साँस ले रहा था। संचित ने मुझे नये सिरे से देखा। 'जयेश, उसने उसी व्यक्ति को कहा जिससे मेरी पहले बात हुई थी, 'इनको तुरन्त घर ले जाओ, भइया ने बुलवाया है।`

जयेश ने सहमति में सिर हिलाया और काउन्टर से बाहर आने लगा। कुछ देर बाद मैं जयेश के साथ उसके होण्डा स्कूटर पर उसके पीछे बैठा हुआ एटीन्थ जून रोड पर दौड़ रहा था। अब मैं सचमुच चैन में था। एक बहुत बड़े सफेद रंग के चर्च के पास से हम लोग गुजरे। तभी उस चर्च का घण्टा बजा। मैंने आँखे बन्द कर ईश्वर का ध्यान किया। वहाँ से जिस सड़क पर हम मुड़े, साइनबोर्ड पर मैं उसका सिर्फ एग्नेलो रोड पढ़ पाया। वह चढ़ाई वाला रास्ता था। शायद हम अल्टिनो जा रहे थे। पत्र अपने मालिक से मिलन को कुछ ही क्षण दूर था। तेईस साल बाद पत्र जिसको मिलना चाहिए था उसे न मिलकर उसके मालिक को वापस मिलने वाला था।

और कुछ देर बाद हम जॉगर्स पार्क के सामने बनी बहुत सी कोठियों में से एक के सामने थे। वह हल्के बादामी रंग की भव्य इमारत थी। गोवानी स्थापत्य का बेहतरीन नमूना। जयेश मुझे भीतर ले गया। हम बेहद सुरूचिपूर्ण ढंग से सजे ड्राइंगरूम में थे। मेरी धड़कनें फिर बढ़ गयीं थी। जयेश ने मुझे बैठने का इशारा किया और भीतर कहीं चला गया। कुछ क्षणों बाद वह एक सुन्दर और गरिमामयी महिला के साथ लौटा।
'यही दिल्ली से आये हैं साहब से मिलने। उसने मेरी ओर इशारा करके उन्हें बताया।
महिला ने मुझे नजर भरकर देखा। मैंने उन्हें 'नमस्ते` कहा।
'ठीक है, मैं जाता हूँ। जयेश ने कहा और बाहर निकल गया।
वे अभी भी मेरी ओर ही देख रहीं थी। उन्होंने हाथ आगे बढ़ाया।
'लाओ। उन्होंने कहा।
'क्या? मैं हड़बड़ाया।

तभी एक पुरूष ने कमरे में प्रवेश किया। मैंने हड़बड़ाते हुए ही उन्हें देखा। वे मुस्कराये तो मैंने उन्हें भी नमस्ते कहा। वे पैंतालिस-पचास वर्षीय पुरूष थे। 'आभास` मेरे मन ने फौरन कहा।
'मैं आभास हूँ। उन्होंने अधीर स्वर में कहा, 'आप नील हैं न? आप ही मेरा पत्र लाये हैं न?`
मुझसे कुछ कहा नहीं गया। मुझे लगा मेरा गला अवरूद्ध हो गया है। मैंने सिर्फ हौले से सिर हिलाया।
महिला का हाथ अभी भी मेरी ओर बढ़ा हुआ था लेकिन अब उनकी आँखों में आँसू थे।
'पत्र दे दो नील, प्राप्त करने वाले का हाथ बढ़ा हुआ है। आभास ने धीरे से कहा।
मैं चकरा गया।

'अनुरीति......जी!!, मेरे मुँह से निकला।
महिला के आँसू बह निकले। मैं सोते से जागा और जल्दी से पत्र निकालकर उनके हाथ पर रख दिया। उन्होंने पत्र को अपने माथे से लगाया और भीतर चली गयीं।
'बैठो, बेटा। आभास के स्वर ने मेरी तन्द्रा भंग की। एक सम्मोहन या तिलिस्म सा जो बना था, वह टूट गया।
मैं बैठ गया और वे मेरे सामने। बैठते ही नौकर पानी दे गया। पानी पीने तक वहाँ खामोशी रही।
'बेटा, तुम्हें कब मिला ये पत्र? मैंने तो उन्नीस सौ पिच्चासी में भेजा था। उन्होंने कहा।
'यही कुछ बीस-बाईस दिन पहले। मैंने संक्षिप्त स्वर में कहा। और फिर मैंने बिना उनके पूछे ही अब तक का किस्सा बता दिया। इस दौरान उनके मुख पर वेदना, उत्साह, हर्ष की छायाएँ आती जाती रहीं।
'बेटा, तुमने मुझे बचा लिया। मुझे सच्चा साबित कर दिया। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा।
मैं 'कैसे` तो कह नहीं पाया लेकिन मेरे चेहरे पर बहुत बड़ा-बड़ा कैसे उन्होंने पढ़ लिया।

'तुम मेरा पत्र लेकर आये हो बल्कि संजीवनी लेकर आये हो तो तुम्हें तो सब कुछ बताना ही पड़ेगा.....।` वे ठहर गये। उनका चेहरा, उनकी आँखें, कमरे में मौजूद हर वस्तु, मैं खुद और शायद समय भी। सब कुछ ठहर गया। वे ठहर गये और पीछे लौट गये, सन उन्नीस सौ पिच्चासी में, मैंने सोचा।
'पत्र तो मैंने लिख दिया था और उसे पोस्ट भी कर दिया था और ये सोचा था कि दस-बीस दिनों में ही 'हाँ या ना` का मालूम हो जायेगा और मैं स्वतंत्र हो जाऊँगा। उन्होंने कहना आरम्भ किया, 'लेकिन जो हम सोचते है वही नहीं होता, बाकी सब कुछ होता चला जाता है। दो महीने बीत गये थे, दिल्ली से कोई जवाब नहीं आया। मैंने सोचा लड़की नाराज हो गयी होगी या वह किसी और को चाहती होगी। किस्मत को मानते हुए मैं हारकर बैठ गया और करता भी क्या? मेरे पास सम्पर्क का कोई और जरिया भी नहीं था। इसी दौरान मेरे पिता की मृत्यु हो गयी। क्या पिता की मृत्यु किसी पुत्र के लिए वरदान हो सकती है? मेरे लिए हुई थी.....। वे कुछ क्षण रुके। मैं मंत्रमुग्ध सा उन्हें देख रहा था। वे मुझे नहीं देख रहे थे, वे किसी को नहीं देख रहे थे, वे तो अतीत की यात्रा में गुम थे।

'...उनकी मृत्यु के शोक में अनुरीति के पिता आये थे और उनके साथ अनु भी.......। उसके आने की वजह मैं था। उसने सिर्फ इतना कहा था कि कहीं और शादी होने से पहले उसे उसके पिता से माँग लो। वह तभी जान गयी थी कि मैं उसे चाहने लगा हूँ लेकिन पहल न करने की वजह से उसने मुझे कायर कहा था। मैंने उसे अपने पत्र के बारे में बताया था तो उसने मुझे झूठा कहा था कि जो कह नहीं सकता वह पत्र भी नहीं लिख सकता और अगर लिखकर भेजा भी था तो हो ही नहीं सकता कि वह पहुँचे न, उसके कहने का मतलब था कि मैंने ऐसा कोई पत्र नहीं लिखा था और आज तक भी मैं झूठा ही था। मैने उसी दिन हिम्मत की और अनु के पिता से उसे माँग लिया था। वह उपयुक्त समय नहीं था लेकिन उसके बाद उपयुक्त समय मुझे कभी नहीं मिलने वाला था। वे बहुत असमंजस में हो गये थे कि वे आये तो थे शोक प्रकट करने लेकिन एक खुशी भरा प्रस्ताव उन्हें मिल रहा था। वापसी में खुशियाँ लेकर गये। किसी को कोई असुविधा नहीं हुई, किसी को कोई परेशानी नहीं हुई। पिता की पहली बरसी के बाद हमारा विवाह हो गया और सफेद कबूतरी मुझे मिल गयी। वे मुस्कराये और मुझे देखने लगे, 'मैं आज भी कभी-कभी उसे सफेद कबूतरी कहता हूँ।`

मैं झेंप सा गया। वे बहुत ही निजी बातें मुझे बताने जो लग गये थे।
'मैं अपनी कबूतरी को लेकर आता हूँ। अब तो उसने कई बार पत्र पढ़ लिया होगा। उन्होंने कहा और उठकर भीतर चले गये।

किसी की भटकी, खोई हुई खुशियाँ मैंने लौटा दी थी। मैंने अपने भीतर गर्व सा अनुभव किया। कैलंगूट पर बीयर पीते हुए जो मैं सोच रहा था मुझे वो बात याद आई। आभास भी बदकिस्मत नहीं निकला और न ही मैं। मुझे आभास और अनुरीति दोनों ही मिल गये। अनुरीति जब दोबारा कमरे में आयीं, तो उनकी आँखों में आँसू नहीं थे बल्कि एक गहरी, खुशी भरी चमक थी। वो एक ऐसी खुशी थी जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। मैं उनकी उस खुशी का कारण जानता हूँ मगर मैं भी उसे बता नहीं सकता, समझा नहीं सकता। शायद कोई नहीं समझा सकता।

उन्होंने मुझसे मेरे क्वार्टर के बारे में पूछा, जहाँ वे कभी रहती थीं। उन्होंने मुझसे जामुन के पेड़ के बारे में पूछा, जो उन्होंने अपने हाथों से क्वार्टर के पिछवाड़े में लगाया था। उन्होंने मुझसे उस खम्भे के बारे में पूछा जो उनके कमरे की खिड़की से दिखाई देता था और रात में जिसका बल्ब लुपझुप करता रहता था। उन्होंने मुझसे यह पूछा, उन्होंने मुझसे वह पूछा। मैं हैरान था कि मैं इतने सालों से वहाँ रह रहा हूँ मगर मैं अपने क्वार्टर के बारे में सच में कुछ नहीं जानता।

गोवा में यह मेरा दूसरा दिन था। मेरे बीत चुके और आने वाले जीवन का बहुत यादगार दिन लेकिन अभी बहुत कुछ बाकी था। मैं अगले तीन दिनों तक उनका मेहमान बनकर रहा। मेरी वापसी टिकट तुरन्त कैन्सिल करा दी गयी थी और पूरा गोवा मुझे इन दिनों में दिखा दिया गया। इनमें वे चीजें भी सम्मिलित थीं जो आभास ने अपने पत्र में लिखी थीं। अब मैं उनके परिवार का सदस्य बन गया था। दोनों ने मुझसे मेरा हनीमून गोवा में मनाने का वादा लिया। मैं हवाई जहाज से दिल्ली लौटा-सौजन्य आभास और अनुरीति।
अन्तत: तेईस साल की यात्रा समाप्त हुई।

प्रस्तुत रचना काल्पनिक है. किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है. स्थानों के नाम सिर्फ कहानी को रोचक एवं प्रमाणिक बनाने के लिए प्रयोग किये गए है.

Wednesday, July 7, 2010

फूल

शिवरतन स्वामी

मानव मन न तो संयमी होता है और न ही चंचल। वह मात्र परिस्थितियों के अनुकूल या प्रतिकूल कार्य करता है और उन्हीं के अनुसार ही यश और अपयश का भागी बनता है।  मैं आनन्द बाग, वाराणसी के श्री सारभूत मठ में रहता हूँ। इस मठ के कर्ता-धर्ता मेरे गुरूजी श्री सदानन्द जी स्वामी हैं। मुख्य व्यक्तियों में गुरूजी के अलावा श्री सजीवानन्द जी स्वामी और श्री तेजोमय जी स्वामी हैं। मैं मठ के विभिन्न कार्यों का संचालन व प्रबन्धन करता हूँ।

आज गुरूजी एक विशेष पूजा पर बैठने वाले हैं जो सन्ध्या से आरम्भ होकर भोर तक चलेगी। इस पूजा में अन्य सामग्रियों के अलावा जो विशेष चीज़ चाहिए, वे हैं कमल पुष्प, डंठल सहित अट्ठारह कमल पुष्प, जिनका प्रबन्ध गुरूजी के एक भक्त द्वारा किया गया है जो लखनऊ में रहता हैं। इस पूजा का सारा प्रबन्ध मेरे जिम्मे है। अभी कुछ देर पहले जो बंडल नन्दन पुष्प विक्रेता ने भेजा है, वह मेरे सामने खुला रखा है....

सन्देश प्रेमपूर्ण और काम भावना से ओत प्रोत था। लाल गुलाब के फूलों की कम से कम दो किलो पंखुड़ियों में अच्छी तरह से टेप से बन्द किया हुआ जो लिफाफा मिला था उसके भीतर चिकने और महक भरे कागज़ में जो संदेश लिखा था वह अत्यंत प्रेम से भरा था। तीन बार मैं सन्देश पढ़ चुका हूँ और तीनों बार भीतर तक झनझना गया हूँ। गुरूजी के आध्यात्मिकता भरे प्रवचन, इस मठ की मर्यादा, खुद का आत्मसंयम, अपने आचरण में ढाले गए कठोर नियम, जप-तप, सब इस सन्देश ने छिन्न-भिन्न कर दिये हैं। मुझे लगता था आध्यात्म के अलावा मैं सभी कुछ विस्मृत कर चुका हूँ किन्तु इस पत्र ने मुझे स्मरण करा दिया है कि अन्तत: मैं इस मायावी विश्व का ही हिस्सा हूँ, एक पुरुष हूं। कुर्ते की जेब में तह करके रखे कागज से मेरी उँगलियाँ फिर टकराईं। कागज उँगलियों की पकड़ में आया और बाहर निकल आया। आतुर उँगलियों ने उसे खोला, बेचैन नेत्रों से शब्द टकराये, अस्थिर मस्तिष्क ने उसे पढ़ना आरम्भ किया और तप्त अधरों ने बुदबदाना।

'प्रियतमा  सुनयना ,
जब तुम अपनी इन गुलाब की पंखुरियों से भी कोमल उँगलियों से इस कागज को स्पर्श करोगी  तो मैं समझूंगा कि तुमने मेरे चेहरे पर कोमल स्पर्श  किया है 
 जब स्नान की द्रोणी में पानी के साथ-साथ ये भीगी पंखुड़ियाँ तुम्हारा आलिंगन करेंगी  तो ये समझना कि ये मेरा स्पर्श है । स्नान के बीच जब तुम मदिरा पान कर रही होगी तो उसकी मादकता मैं यहाँ महसूस कर रहा हूँगा। तुम्हें कदाचित ज्ञात नहीं कि मदिरापान से स्त्रियों की सुन्दरता और बढ़ जाती है स्नान के पश्चात जब तुम ताजे गुलाब की तरह खिल चुकी होगी तो उसकी पहली खुशबू यहाँ मुझे महकायेगी। जब तुम खिड़की पर खड़ी मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी तो चंचल हवा का झोंका तुम्हें छूकर तुम्हारे कान में मेरा नाम फुसफुसा जायेगा और जब तुम्हारे रसभरे अधरों पर मेरा नाम आएगा तो उसकी मिठास मेरे अधरों पर आ जायेगी।

प्रतीक्षा लम्बी अवश्य होती है लेकिन उसके अन्त से मिलने वाले परम आनन्द की व्याख्या नहीं की जा सकती। हमारे सम्बन्धों के दो वर्ष पूर्ण होने पर अनेकों शुभकामनाएँ। अपने मन की बेचैनी तुम्हें लिखकर दे रहा हूँ। मैं तुम्हें फोन पर भी यह सब कह सकता था लेकिन मुँह से कहे शब्द हवा में उड़कर बिखर जाते हैं जबकि लिखे हुए शब्द हमेशा कायम रहते हैं, कागज पर तुम्हारे सामने। उन्हें कभी भी  पुरानी एलबम की तरह देखा जा सकता है।

वाराणसी एयरपोर्ट पर पहुँचते ही सम्पर्क करूँगा। वह हमारी प्रतीक्षा का अन्तिम चरण होगा। तुम्हारे साथ-साथ मेरी प्रतीक्षा का भी अन्त होगा।
तुम्हारा
प्रतीक्षारत प्रेमी।


पत्र फिर मेरे कुर्ते की जेब में पहुँच गया। एक प्रेमी प्रेमिका अपने मिलन के लिए आतुर है। मेरी कल्पना का चंचल पुरुष बार-बार सुनयना नाम की स्त्री का चित्र निर्मित कर रहा था, बहुत सुन्दर स्त्री का चित्र लेकिन किसी भी तरह वह चित्र पूर्ण नहीं हो रहा था। जैसे ही पूरा होने लगता, एकदम से बिखर जाता। मैं फिर से उसे बनाने लग जाता, वह फिर बिखर जाता। इस बिखराव से मेरे भीतर भी कुछ बिखर रहा था। गुरूजी द्वारा कहे गए शब्द भी मुझे कोई आश्वासन नहीं दे रहे थे- 'मन की वल्गाओं को ढीला छोड़ना हमेशा अहितकर होता है। उन्हें हमेशा कसकर रखो, बहुत सुख मिलेगा, सुदृढ़ता मिलेगी, जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने में सहायता मिलेगी।'

जीवन का लक्ष्य! क्या है जीवन का लक्ष्य? मठ के कठोर नियमों और दिनचर्या का पालन करते हुए मोक्ष की प्राप्ति की प्रतीक्षा करना? भगवा वस्त्र धारण कर खुद को संसार से काटने का भ्रम बनाये रखना जबकि सारी सांसारिक सुविधाएँ भोगना या फिर संन्यासी कहने या कहलवाने का अभिमान?

आज मेरी आयु पैंतालिस वर्ष है। मैं उन्नीस वर्ष का था जब मैं अस्सी घाट पर भिखारी की भाँति मर रहा था। उस समय मैंने बिल्कुल भी नहीं सोचा था कि मैं संन्यास धारण करूँगा, आध्यात्म का अध्ययन करूँगा। सोचने की स्थिति भी नहीं थी। विकट समस्या पेट भरने की थी, जीवित रहने की इच्छा बनाए रखने की थी। अस्सी घाट की एक घटना ने मुझे अज्ञात और असमय मृत्यु से बचाया। मठ के पूर्व व स्वर्गवासी गुरू श्री अद्वैत्वानन्द जी स्वामी ने नगर के एक व्यापारी के आदमियों से मेरी प्राण रक्षा की जो मुझ पर चोरी का मित्था आरोप लगा मुझे पीट रहे थे। भाग्य से व्यापारी स्वामी जी का भक्त था। मैं बच गया और मठ में शरण पा गया।

मेरे वर्तमान गुरूजी श्री सदानंद जी स्वामी या अन्य स्वामियों के पास कोई शक्ति नहीं है जो मोक्ष प्राप्ति में सहायता करे। परन्तु यह सच है कि मठ के आध्यात्मिक और भक्ति भावना भरे वातावरण में सचमुच यह भ्रम बना रहता है कि हमें मोक्ष मिलेगा, हमारी मृत्यु  उत्कृष्ट होगी।  गुरूजी कहते हैं, 'पेट तो सभी प्राणी अपने-अपने प्रयास से भर लेते हैं परन्तु भक्ति केवल मनुष्य कर सकता है। मनुष्य जीवन अस्थाई है लेकिन वह इस अस्थाई जीवन में पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर सकता है। ईश्वर की कृपा और अपनी इच्छाशक्ति से वह सब कुछ कर सकता है।'

अगर मनुष्य सब कुछ कर सकता है तो वही मनुष्य विचलित भी तो हो सकता है। अपनी मूलभूत इच्छाओं के आगे असहाय हो सकता है। वह अपने भीतर के कमजोर कोनों को उघाड़ सकता है। क्या मुझे ये जीवन भक्ति और साधना करने के लिए मिला है? अपनी भौतिक महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने का दायित्व भी तो मुझ पर ही है। उन्हें तो कोई और नहीं करेगा? कौन जानता है कि हमें फिर कभी मनुष्य जन्म प्राप्त हो या नहीं? गुरूजी गलत कहते हैं कि हमारी मृत्यु उत्कृष्ट होगी। चाणक्य ने कहा है, 'मृत्यु, चाहे वह कितने ही उत्कृष्ट रूप में हो, उस जीवन से बेहतर नहीं हो सकती जो चाहे कितना ही निकृष्ट हो।'

मैं झूठ नहीं बोलूँगा। मठ के जिस कक्ष में जिस आसन पर मैं बैठा हुआ हूँ, वहाँ तो मैं कतई झूठ नहीं बोल सकता। अपनी यौवनावस्था में जिन चीजों को मैंने दबा दिया था, पता ही नहीं चला कि कब वे दबी हुई चीजें धीरे-धीरे एक विस्फोटक पदार्थ में बदलती चली गयीं। वे और बलशाली हो गई हैं और आज इस पत्र ने उसमें पलीते का काम कर दिया। मेरी श्रद्धा, भक्ति और मेरे अब तक किये गए झूठे-सच्चे जप-तप की दीवार धराशायी हो गई। मुझमें फिर से वह मनुष्य जाग उठा है जो सब कुछ करना चाहता है, वे कर्म जिन्हें पापकर्म माना जाता है। मेरा अन्तर मुझसे ही द्वंद्व कर रहा है। क्या इस कागज के टुकड़े का निर्माण मेरे नैतिक पतन के लिए हुआ है?

अगर किसी स्त्री की चाह करना, उसे देखना पापकर्म है तो मैं यह पापकर्म करना चाहता हूँ, मैं सुनयना को देखना चाहता हूँ। हमारे आश्रम में बहुत कम स्त्रियाँ आती हैं। मुझे याद है पिछले बरस एक गोरी आयी थी। माखन में एक चुकती सिंदूर जैसा वर्ण था उसका। वह गुरूजी के कक्ष में बैठी थी और हठयोग के बारे में बात कर रही थी। मठ के कितने ही लोग उसे देखने के लिए किसी न किसी बहाने से गुरूजी के कक्ष के बाहर चक्कर लगा रहे थे। उनमें मैं भी था। उस समय मुझे लगा था कि स्त्री ईश्वर से भी अधिक शक्तिशाली है, ईश्वर से भी अधिक आकर्षित है, ईश्वर से भी अधिक प्रिय है।

मैं फिर अपनी कल्पना में सुनयना नाम की स्त्री को साकार करने का प्रयास कर रहा हूँ, कल्पना साकार नहीं हो पा रही है परंतु इस कल्पना को साक्षात देखने का अवसर मेरे पास अचानक आ गया है। उसके साकार हो जाने के बाद तो कितनी ही कल्पनाएँ की जा सकती हैं। मैंने फोन करके 'नन्दन पुष्प विक्रेता' से सुनयना का पता ले लिया है। वह साकेत नगर में रहती है जहाँ वाराणसी का संभ्रांत और उच्च वर्ग रहता है। उच्च वर्ग की स्त्रियाँ तो फूलों से भी अधिक कोमल होती हैं। हाथ लगाओ तो मैली हो जाती हैं। मैं ये कैसी अषिष्ट भाषा बोल रहा हूँ। मुझे कैसे मालूम कि कोई हाथ लगाने से मैला भी हो जाता है?

पुष्प विक्रेता के कर्मचारी की गलती से कदाचित बंडल बदल गए हैं। कमल पुष्प अवश्य उस स्त्री के पास पहुँच गए होंगे। अब तो उसके घर जाना अति आवश्यक हो गया है। अपने पुष्प भी तो लाने हैं। उसको देखने की इच्छा मेरे भीतर विकराल रूप धारण कर चुकी है। गुरूजी विश्वनाथ मन्दिर में होने वाली एक सभा में गए हुए हैं। इससे अच्छा अवसर कभी नहीं मिलेगा और किसी को कुछ पता भी नहीं चलेगा। हम अपनी कमजोरियों को दूसरों से तो छिपाते ही हैं, खुद अपने से भी छिपाते हैं। हमारी कमजोरियाँ बहुत शक्तिशाली होती है, तभी उन पर हमारा बस नहीं चलता।

गुरूजी कहते हैं, 'हम दुख से आनंद तक पहुँचें, हम अन्धकार से प्रकाश तक पहुँचें, मृत्यु से अमृत तक पहुँचें। इसी संघर्ष का नाम भक्ति है। हमारा सद आचरण ही हमें मोक्ष का द्वार दिखाता है।' परन्तु मुझे तो लगता है ये प्रेमीजन जो जीवन का परमानन्द ले रहे हैं, वही मोक्ष है। हम यहाँ जप तप करके मोक्ष की आशा कर रहे हैं किन्तु असली मोक्ष तो इन लोगों को प्राप्त हो रहा है। अपनी इच्छाओं, अपनी वासनाओं की पूर्ति ही मोक्ष है। जो वर्तमान में जी लिया वही सब कुछ है। मृत्यु के पश्चात कौन जानता है कि उसे क्या मिला? काम ही जीवन की ऊर्जा है बाकी सब मिथ्या है और कामिनी के संग तो काम जागेगा ही। मैं काम की इस ऊर्जा से वंचित हूँ, पूरे पैंतालिस वर्षों से वंचित हूँ। यह काम भी बड़ी विचित्र चीज़ है। दबाने से वह दब नहीं जाता बल्कि और अधिक खतरनाक हो जाता है।

गुरूजी ने एक कथा सुनाई थी, दो युवकों की। दोनों घूमने निकले थे। एक जगह रामकथा हो रही थी। एक ने कहा कि रामकथा सुनते हैं, कहते हैं रामकथा के श्रवण से भवसागर पार हो जाते है, सारे कष्ट दूर हो जाते है तो दूसरे ने कहा, तुम्हारी मर्जी, तुम सुनो। गाँव में वेश्या आई है, मैं तो उसका नृत्य देखने जा रहा हूँ। और दोनों अपने-अपने रास्ते चले गए। नृत्य देखने वाला युवक सोच रहा था कि ये मैं कहाँ आ गया? ऐसी बदशक्ल औरत का घटिया सा नृत्य देखने आ गया और वहाँ रामकथा में कितना आनन्द आ रहा होगा। प्रभु का स्मरण हो रहा होगा। ज्ञान और आनन्द की गंगा बह रही होगी। मैं भी वहीं रुक जाता तो अच्छा रहता। और रामकथा सुनने वाला सोच रहा था कि ये रामकथा भी क्या है, वही तो एक कहानी है-राम, सीता, स्वयंवर, वचन, वनवास, हनुमान, रावण, हरण, युद्ध, आदि। काश! मैं भी अपने मित्र के साथ नृत्य देखने चला जाता, कितना आनन्द आता। पहला युवक जो वेश्यालय में बैठा था बहुत शांत मन से घर लौटा क्योंकि पूरे समय उसके भीतर रामनाम चल रहा था। और दूसरा युवक जो रामकथा में बैठा था बहुत अशांत मन से घर लौटा क्योंकि पूरे समय उसके भीतर वेश्या का स्मरण चल रहा था।

इस कथा का जो भी तात्पर्य रहा हो मगर आज मैं रामकथा वाला युवक बन गया हूँ। मैं उस स्त्री के घर जा तो रहा हूँ लेकिन सोचने की बात है यदि मेरे पास कमल के फूल ही आते तो क्या मैं काम के बारे में सोचता? क्या मेरे भीतर ऐसा बवंडर मचता? जो हो रहा है ईश्वर की मर्जी से हो रहा है। ये ईश्वर की मर्जी है, मैं तो सिर्फ निमित्त मात्र हूँ। जब मैं अस्सी घाट पर मरणासन्न अवस्था में था तो वह भी ईश्वर की मर्जी थी। जब मठ में आया तो वह भी ईश्वर की मर्जी थी और जब मैं पतन के मार्ग पर हूँ तो यह भी ईश्वर की मर्जी है। हम चाहते हैं कि जो हो रहा है वैसा ही होता चला जाये क्योंकि यही वर्तमान है और यही सत्य है। हे प्रभु, मुझसे चाहकर भी नहीं रुका जा रहा है। इस अकिंचन के पग साकेत नगर की ओर बढ़ रहे हैं।

सुनयना उर्फ आभा

गुरूजी,

सादर चरण वन्दना। आपके आदेशानुसार डंठल सहित अट्ठारह कमल के फूल भिजवा दिये हैं, भक्त की सेवा स्वीकार करें। बहुत आग्रह और कठिन प्रयास से प्राप्त हुए हैं ये फूल। मैं जानता हूँ आज की यह विशेष पूजा वास्तव में विशेष है। इस पूजा को करने वाला और इसमें सम्मिलित होने वाला दोनों ही भक्ति और श्रद्धा के संदर्भ में अत्यन्त लाभान्वित होने वाले हैं। पत्र फूलों के साथ भेज रहा हूँ। प्रयास करूँगा कि पूजा में भी सम्मिलित होऊँ क्योंकि मैं इस अवसर को गँवाना नहीं चाहता। जैसा आपने बताया था कि यह अवसर जीवन में दोबारा नहीं मिलेगा क्योंकि ये पूजा पहली और आखिरी बार होनी है, इसमें कोई दोहराव नहीं है। वैसे तो मैं आपके दर्शन से ही अभिभूत हो जाता हूँ। आपके दर्शन से ही मेरी अंतर्यात्रा को सुगमता मिल जाती है और आपके सान्निध्य में मेरा 'मै' मर जाता है। शेष दर्शन होने पर।
आपका भक्त
बलभद्र सिंह


जो पैकेट मुझे मिला, उसमें कमल के अट्ठारह फूल थे और यह पत्र। षिष्टाचार के नाते मुझे यह पत्र खोलना नहीं चाहिए था लेकिन जब आपके नाम ये पैकेट आया है और उसमें ये पत्र मिला है तो न पढ़ने का प्रश्न नहीं उठता। निश्चित रूप से फूल और पत्र मेरे लिए नहीं हैं क्योंकि मेरे लिए तो दूसरे फूल आने थे जैसा कि उन्होंने कल फोन पर कहा था और उनका उपयोग भी दूसरा होना था। कैसी विचित्र बात है, फूल तो फूल ही होते है परन्तु किसी स्थान विशेष में उनकी उपयोगिता बदल जाती है, प्रकृति परिवर्तित हो जाती है। वही गुलाब किसी की सेज भी सजाता है और वही गुलाब हार के रूप में देवी देवताओं के गले की शोभा भी बनता है।

बैरी मोरे नैना, काहे को जगाये सारी-सारी रैना......... फरीदा खानम की गजल म्यूजिक सिस्टम पर बज रही है। उसकी खनकती हुई आवाज में अजीब सी कशिश है जो हमेशा मुझे मदहोश-सा कर देती है परन्तु ये पत्र पढ़ने के बाद अपनी अवस्था को गजल के साथ आत्मसात नहीं कर पा रही हूँ।

मैंने पत्र दोबारा पढ़ा है। इसमें भक्ति का कितना उज्ज्वल रूप प्रदर्शित हो रहा है। कैसे होंगे वे गुरू जिनके सामने जाते ही सारा अहम मर जाता है। उनके सामने तो व्यक्ति बिल्कुल कोरा हो जाता होगा? मैं भावविभोर हो गई हूँ। क्या मैं उन गुरूजी से मिल सकती हूँ? क्या मैं इस पूजा में शामिल हो सकती हूँ? कैसी है ये पूजा जो दोबारा कभी नहीं होगी? इसमें किस देवता की आराधना होगी? विधि क्या होगी?

सारे प्रश्न खुद कर रही हूँ और किसी का भी उत्तर मेरे पास नहीं है। इस पत्र ने मुझे विचलित कर दिया है। मैं क्या थी और अब क्या हो गई हूँ? मैं हमेशा से सिर्फ देह इच्छा तक ही सीमित रही हूँ। एक समय ऐसा भी था जब मेरा ईश्वर में अटूट विश्वास था। लेकिन ईश्वर के प्रति आकर्षण अधिक देर तक नहीं रहा शायद मेरे जीवन में घटनाएँ ऐसी हो गयीं थी जिससे मैं ईश्वर से विमुख हो गई।

मुझे आज भी याद है जब मैं अपने पति और बच्चे के साथ केदारनाथ की यात्रा पर गई थी। केदारनाथ मन्दिर में पहुँचकर चौदह किलोमीटर की पैदल चढ़ाई की मेरी सारी थकान, मेरा संताप उनके दर्शन मात्र से समाप्त हो गया था। उनके दर्शन से ऐसा लगा मानो मुझे सब कुछ मिल गया हो। मैं सचमुच बहुत सौभाग्यशाली थी। मन्दिर के प्रांगण में एक साधू ने मेरे माथे पर भभूत का टीका लगाया तो मैं सचमुच पवित्र हो गई। वहाँ पर मेरे पति के जानकार एक व्यक्ति और उनका परिवार भी मिले थे। उन जानकार ने कहा था, 'इस टीके से आपके चेहरे पर एक पवित्र आभा सिमट आई है।' फिर बाकी यात्रा उन्हीं के परिवार के साथ ही हुई। यात्रा के बाद जब वाराणसी लौटी तो मेरे पास दो चीजे थीं-ईश्वर के प्रति भक्तिभाव से भरा मन और 'एक पवित्र आभा'। उन्होंने मेरा नाम ही आभा रख दिया था। आज मेरे साथ न मेरे पति है और न मेरा बच्चा। दोनों का ढाई वर्ष पहले एक दुर्घटना में देहान्त हो चुका है। मणिकर्णिका घाट पर पति और बच्चे को जलाते समय मैं भी जल जाना चाहती थी या गंगा में डूब जाना चाहती थी और मैंने ऐसा करने की कोशिश भी की थी किन्तु मुझे बचा लिया गया था। ऐसे कठिन समय में, जिन्होंने मुझे आभा नाम दिया था, उन्होंने ही मुझे संभाला था। लेकिन मैं उनके साथ भी नहीं रहती।

मैं यहाँ वाराणसी में अकेली रहती हूँ और कबीर चौरा अस्पताल में एकाउन्ट विभाग में कार्य करती हूँ, वहीं जहाँ मेरे पति काम करते थे। पहले मैं अस्पताल के क्वार्टर में ही रहती थी लेकिन करीब डेढ़ वर्ष से यहाँ साकेत नगर में रह रही हूँ। यह मकान उनका है। वे अब अपनी पत्नी और बच्चों के साथ दिल्ली में रहते हैं। वे मुझे भी दिल्ली ले जाना चाहते थे, अभी भी चाहते हैं लेकिन मैं अपने ही शहर में जीना चाहती हूँ और इसी में मरना। और फिर यहाँ गंगा भी तो है। बेशक, आज गंगा बहुत गन्दी हो गई है किन्तु फिर भी उसका एक अलग ही आकर्षण है, अलग ही गरिमा और अलग ही रहस्य है। मगर मेरा गंगा जैसा रहस्य नहीं है, न ही ऐसी गरिमा और न आकर्षण। मैं तो मात्र भौतिक व्यसनों में लिप्त हूँ। जीवन की विभिन्न विलासिताओं को भोगती हुई मात्र स्त्री देह। महीने में दो बार दशाश्वमेध घाट पर गंगा में स्नान करने से मैं सोचती हूँ जितने भी भोग विलास मैं कर रही हूँ वे सब यहाँ धुलकर बह जाते हैं और मैं पवित्र हो जाती हूँ। इस पवित्र और आध्यात्मिक शहर में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति यही समझता है कि वह शुद्ध है। गंगा उसके बगल में से बह रही है तो वह निष्पाप है। कुछ भ्रम बने रहें तो बहुत अच्छे होते हैं, उनके बने रहने से जीवन सुखद और सुगम हो जाता है।

मैं सुनयना उर्फ आभा, मेरी व्याख्या अगर सच्चाई और कड़वाहट से की जाये तो मैं उनकी रखैल हूँ, अगर खुद को तसल्ली देने के बहाने से कहा जाये तो मेरा अपना भी अस्तित्व है, मैं अपना जीवनयापन खुद कर रही हूँ और अगर सिर्फ दिल से कहा जाये तो मैं उनसे प्रेम करती हूँ, अटूट प्रेम। उन्होंने मुझे मेरी देह से अवगत कराया। मैं तो उसे ढोती हुई जी रही थी। मुझे मालूम ही नहीं था कि अपनी देह से इस तरह से भी पहचान हो सकती है। हमारे शरीर के कितने कोने खुदरे अनछुए होते हैं, मरे हुए होते हैं, हमें पता ही नहीं होता। हम अपने शरीर की खोज खुद नहीं कर सकते। उन हिस्सों को खुद तलाश कर ठीक नहीं कर सकते। कोई दूसरा ही उन हिस्सों की गांठे खोल सकता है, अपने स्पर्श से उन्हें जीवित कर सकता है। ऐसा उन्होंने किया। मैं हमेशा उनकी अहसानमन्द रहूँगी कि उन्होंने मुझे उस सुख से भर दिया जिसे मैं जानती भी नहीं थी, न जान सकती थी।

आज हमारे सम्बन्ध को बने दो वर्ष हो गए हैं। आज वे दिल्ली से हमारी दूसरी वर्षगाँठ मनाने के लिए आ रहे हैं। अपनी विस्तृत कल्पनाओं को मेरे साथ साकार करने के लिए आ रहे हैं। मैं भी सुबह से तैयारी और उनकी प्रतीक्षा कर रही हूँ। उन्होंने कहा था कि वे गुलाब की ढेर सारी पंखुड़ियाँ भिजवायेंगे जिनका क्या-क्या उपयोग करना है, ये भी पहले से ही बता दिया था मगर अब?

अब मेरे सामने कमल के फूल हैं, हल्के गुलाबी कमल के फूल जिन्हें देखकर मन में वासना नहीं श्रद्धा उत्पन्न हो रही है। मेरे भीतर से उनसे मिलन का उत्साह मर रहा है और पूजा में जाने का उत्साह जन्म ले चुका है। भोग विलास का समय बहुत सीमित और छोटा होता है जो फिर लौटकर आ सकता है परन्तु ये अवसर नहीं आयेगा। यह पूजा फिर नहीं दोहराई जायेगी। इसमें तो मुझे सम्मिलित होना ही पड़ेगा। यह अवसर मुझे ईश्वर ने ही प्रदान किया है कि मैं इस बहाने फिर से ईश्वर से जुड़ जाऊँ। कैसी विडम्बना है कि इतनी धार्मिक और आध्यात्मिक नगरी में रहते हुए भी मेरा घर धार्मिक नहीं है। संकटमोचन और काशी विश्वनाथ जैसे पौराणिक मान्यताओं से भरे मन्दिरों के होते हुए भी मेरे घर में मन्दिर नहीं है। आध्यात्म की शिक्षा देने वाले इतने आश्रमों और मठों के होते हुए भी मेरे घर में आध्यात्म का नामोनिशान तक नहीं है। लेकिन, सब कुछ हो सकता है। अभी बिगड़ा ही क्या है? मैं अभी भी सब कुछ कर सकती हूँ।

उनका क्या होगा जो दिल्ली से यहाँ एक उत्सव मनाने के लिए आ रहे हैं? जरूरी नहीं कि वे सिर्फ मेरे लिए ही आ रहे हों, उनका अपना काम भी तो है। वे दिल्ली में एक ट्रैवल एजेन्सी चलाते हैं और विशेषत: विदेशियों को आगरा, वाराणसी और खजुराहो एक पैकेज के तहत भेजते हैं। अगर आज मैं इस पूजा में चली जाऊँ तो क्या वे नाराज हो जायेंगे? कहना कठिन है, हो भी सकते हैं और नहीं भी। अगर हो जाते हैं तो मेरी बला से। मैं अपना सब कुछ खो चुकी हूँ इसलिए अब मुझे किसी चीज़ को खोने से कोई फर्क पड़ेगा और न ही किसी चीज़ को पाने या अपना बनाने से। जैसा चल रहा है मैं उसे वैसा ही स्वीकार कर रही हूँ और आगे भी करती रहूँगी।

मैं इतना जानती हूँ कि कुछ चीजें कभी लौटकर नहीं आतीं जैसे बीता हुआ समय, छूटे चुके लोग, हाथ से निकले अवसर। बाकी चीजों को हम दोहराते रहते हैं-आदतवश, मजबूरीवश या फिर उत्सुकतावश।
मैंने सोच लिया है मैं जाऊँगी इसलिए मैंने 'नन्दन पुष्प विक्रेता' से मालूम कर लिया है ये कमल के फूल कहाँ जाने थे। ये फूल आनन्द बाग के श्री सारभूत मठ में जाने हैं, शायद वहीं ये विशेष पूजा होनी है।

फूल वाला माफी माँग रहा था। कह रहा था कि मेरे वाले फूल मठ में चले गए हैं। वह तो अपना आदमी भेजने भी वाला था लेकिन मैंने मना कर दिया और कह दिया कि मैं उसी ओर जा रही हूँ तो मैं ही दे आऊँगी। चार बज चुके हैं। उनका हवाई जहाज सात बजे वाराणसी पहुँचेगा। अभी मेरे पास काफी समय है। अब मुझे उनके लिए नहीं बल्कि पूजा में जाने की तैयारी करनी है। मैं हल्के पीले रंग वाली साड़ी पहनूँगी और माथे पर भभूत का टीका लगाऊँगी जो वे मेरे लिए दिल्ली के किसी मन्दिर से लाये थे। मैं फिर से पवित्र होना चाहती हूँ। गंगा ने मुझे पवित्र किया है या नहीं मैं नहीं जानती पर भभूत मुझे अवश्य पवित्र करती है, ऐसा मेरा विश्वास है।

साढ़े चार बज चुके हैं। मैं सारभूत मठ जा रही हूँ। अब ये घंटी किसने बजा दी। देखती हूँ...

शिवरतन स्वामी और सुनयना

सुनयना ने मुख्य दरवाजे की मैजिक आई से बाहर झाँका। बाहर उसे एक दाढ़ी वाला व्यक्ति दिखाई दिया। एक अजनबी को देखते ही वह उलझन में पड़ गई कि चलते समय कौन आ गया? अभी वह अनिश्चय की स्थिति में ही थी कि दोबारा घंटी बजी। इस बार घंटी में उसे अधीरता का आभास हुआ।
उसने दरवाजा खोला। बाहर गैरिक कुर्ते और धवल धोती में एक साधू खड़ा था। उसके हाथ में बड़ा सा पैकेट था। उसके कुछ कहने से पहले ही वह बोल पड़ा।

'प्रणाम देवी। मैं शिवरतन स्वामी हूँ और श्री सारभूत मठ से आया हूँ। सुनयना जी हैं क्या?'
'ओह! आप सारभूत मठ से आये हैं। मैं ही सुनयना हूँ।', सुनयना ने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा।

शिवरतन स्वामी ने सुनयना को नये सिरे से देखा। हल्के पीले रंग की साड़ी में सामने खड़ी स्त्री बहुत सुन्दर लग रही थी। 'बिल्कुल अमलतास के फूल जैसी।', उसने मन ही मन सोचा, 'तो यही है जो इन गुलाब की पत्तियों से नहाएगी।'

सुनयना को अजीब सा लगा। साधू की आँखों में उसे लाल डोरे स्पष्ट दिखाई दिये। उसे खतरे का आभास हुआ। वह सजग हो गई।
'दरअसल देवी, आपका सामान गलती से हमारे मठ में आ गया था।', उसने हाथ में पकड़े पैकेट की ओर इशारा करते हुए कहा, 'और हमारा सामान कदाचित आपके यहाँ आ गया है?'
'जी, बिल्कुल ऐसा ही हुआ है। मैं क्षमा चाहती हूँ। वैसे मैं खुद आपके फूल लेकर आपके आश्रम में आ रही थी। आपने क्यों कष्ट किया?'
'कष्ट कैसा? मुझे किसी कार्य से इधर ही आना था तो मैंने सोचा कि क्यों न मैं ही आपसे फूल बदल लूँ। क्या आप स्वयं मठ में पधार रही थीं?', वह पहली बार किसी स्त्री के इतने निकट था जिसे वह आँख भरकर देख रहा था। सुनयना की देह से जो गंध आ रही थी वह उसे मत्त करने के लिए पर्याप्त थी। लेकिन उसके माथे पर लगे सफेद टीके से वह उलझन में था क्योंकि वह टीका स्त्री के व्यक्तित्व से और उसकी अपनी कल्पना से मेल नहीं खा रहा था।

'जी। दरअसल उन कमल के फूलों के साथ एक पत्र भी था जिसमें किसी विशेष पूजा का उल्लेख था। क्या मैं...अरे, कृपया मुझे क्षमा करें। आप भीतर आइये न।'

सुनयना दरवाजे से एक ओर हुई ताकि शिवरतन भीतर आ सके। शिवरतन ने भीतर प्रवेश किया। फूलों का पैकेट उसने सामने मेज पर रख दिया जहाँ वैसा ही एक पैकेट पहले से रखा था। ड्राइंगरूम में आधुनिकता की छाप थी। सभी चीजें कीमती और नये चलन की थीं। वह हतप्रभ सा चारों ओर देख रहा था।
'बैठिये बाबाजी।', उसने सोफे की ओर इशारा करते हुए कहा।
बाबाजी हल्का सा हिचके, फिर बैठ गए।
'क्या लेंगे बाबाजी, चाय या ठंडा?'
'आप कष्ट न करें। औपचारिकता की कोई आवश्यकता नहीं। हमें हमारे पुष्प दे दीजिए ताकि हम चलें, हमें विलम्ब हो रहा है।', बाबाजी ने संयत स्वर में कहा।
'कष्ट कैसा ये तो मेरा सौभाग्य है। कुछ तो आपको लेना ही होगा।', वह विनीत स्वर में बोली।
'अगर आप सचमुच इसे सौभाग्य मानती हैं तो एक प्याली चाय ले लूँगा।' बाबाजी ने विनम्रता से कहा।

सुनयना हल्का सा मुस्कराई और भीतर चली गई। वह हल्की मुस्कान शिवरतन स्वामी के दिल में बैठ गई। उसके भीतर मदहोश करने वाली हिलोरे उठ रही थीं। मन के सारे कोने उसे उस स्त्री पर हमला करने के लिए उकसा रहे थे। उसे लग रहा था उसके भीतर से लम्बे नाखूनों वाले हाथ निकलेंगे और इस सुंदर नारी की देह को नोंच खायेंगे। परन्तु कुछ तो था जिसने उसका रास्ता रोका हुआ था, अड़ा हुआ था। उसकी तीव्र इच्छा हो रही थी कि वह गुसलखाने में जाकर स्नान द्रोणी को देखे और वहां मदिरापान करते हुए उसके पानी में लेटे होने की कल्पना करे। कल्पना के पंखों पर सवार होकर वह और आगे बढ़ा ही था.............

एकाएक उसे गुरूजी का ध्यान हुआ और उनका समाधिस्थ चेहरा याद आया। वह चेहरा याद आते ही शिवरतन स्वामी चिहुँककर उठा। जैसे उसे कोई भूली बात याद आ गई हो, उसने कमल के फूलों वाला पैकेट उठाया और तेजी से घर से बाहर निकल गया। मठ के उस कक्ष में बैठकर स्त्री के प्रति आसक्ति के विचार आना और इस स्त्री के घर में बैठकर गुरूजी का ध्यान आना कोई शुभ लक्षण नहीं थे। उसे लगा, गुरूजी ने उसे बिल्कुल सही समय पर उबार लिया। मठ की ओर जाते हुए वह भूल गया कि वह पत्र अभी भी उसके कुर्ते की जेब में पड़ा था जो उसने वापस फूलों में नहीं रखा था।

चाय का पानी चढ़ाने के बाद वह बाबाजी के लिए पानी लेकर आई तो देखा कमरा खाली था और कमल के फूलों वाला पैकेट भी अपने स्थान पर नहीं था। अचानक बाबाजी क्यों चले गए? क्या उससे कोई गलती हुई? पानी हाथ में लिए खड़ी वह सोचती रही। उसे अफसोस हुआ कि वह बाबाजी से पूजा के विषय में भी नहीं पूछ पाई। 'शायद ये पूजा मेरे लिए नहीं है। पूजा ही क्यों शायद बहुत सी चीजें मेरी किस्मत में नहीं हैं।' उसने सोचा।

थके हुए हाथों से पानी का गिलास मेज पर रख वह भारी कदमों से भीतर आईने के सामने गई और माथे पर लगा सफेद टीका मिटा दिया।

Thursday, January 14, 2010

एक भीगती हुई शाम



महालक्ष्मी रेलवे स्टेशन
चर्चगेट जाने वाली लोकल महालक्ष्मी स्टेशन पर रुकी। लेडिज कम्पार्टमेन्ट से ढेर सारी महिलाओं के रेले के साथ वह भी बारिश से भीगते हुए प्लेटफार्म पर उतरी। आज सुबह से बारिश हो रही थी लेकिन बारिश की वजह से मुम्बई की जिन्दगी थम नहीं जाती। उतरने के साथ ही वह रेसकोर्स की ओर जाने वाले गेट की ओर चल पड़ी। आज उसने साड़ी पहनी थी। जब भी वह विदित के साथ जाती है तो अधिकतर साड़ी पहनती है क्योंकि विदित को वह साड़ी में बहुत अच्छी लगती है हालांकि नियमित रूप से साड़ी न पहनने के कारण उसे उलझन महसूस होती है पर ग्राहक ग्राहक है, उसके मन मुताबिक तो करना ही पड़ता है फिर वह बिल्कुल अलग किस्म का ग्राहक है।
तभी उसके पर्स में रखा उसका मोबाइल फोन थरथराया। उसके चेहरे पर मुस्कराहट खेल गई। उसे विदित का अधीर चेहरा याद आया। वह स्टेशन के बाहर उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। वह मोबाइल निकालने के लिए पर्स खोलने ही लगी थी कि उसकी थरथराहट रुक गई। किसी ने मिस कॉल छोड़ी थी। उसने मोबाइल निकालकर नम्बर देखा जो पहचाना था। उसने उसी नम्बर पर कॉल लगाई।
''कैसी है अपुन का सेहर बाई?'' दूसरी ओर से कॉल मिलते ही कहा गया।
''तेरे को मेइच मिली थी मिस कॉल छोड़ने कू?'' साड़ी, मोबाइल, छाता, पर्स और खुद को भीड़ में सँभालती हुई वह बोली, जिसका नाम सेहर है।
''अरे पइसा किदर इदर? साला इदर बैलेन्स डालो उदर फुर्र।''
''फालतू सयानपन्ती नईं समझा न और मेरा बैलेन्स काये कू बिगाड़ने का? किस वास्ते मिलाया जल्दी बोल।''
''कायकू चिनता करती, तू तो पइसे वाली है न, क्या?''
''तेरे को मालूम न, मालूम न मैं कइसे कमाती। काम बोलने का या मैं काटती।''
''तेरे वास्ते गुड न्यूज है तबीच मिलाया मैं फोन।''
''तो टाइम क्यों खोटी करने का। दे गुड न्यूज।''
''तेरा चाचा अक्खा फैमली के साथ हाजी अली चौराहे पर है आजकल।''
''पण मेरे कू तो खबर लगा था कि वो भाण्डुप में कहीं है और किसी नशेपानी के धन्धे में है।''
''इसका मेरे कू मालम नेई पण हाजी अली का खबर बरोबर है। वो भाण्डुप में हो या अक्खा मुम्बई में पण वो हाजी अली जरूर मिलेंगा, क्या?''
''सालिड खबर है न या तेरी खाली पीली की भंकस?'' सेहर उत्तेजित स्वर में बोली।
''बरोबर सालिड। बोले तो सलमान खान का बाडी जैसा सालिड।'' उधर से हँसते हुए कहा गया।
''अगर खबर बरोबर होयेंगा न तो तेरा बैलेन्स पक्का।'' उसने कहा और फोन काट दिया।
''आज का प्रोग्राम खल्लास करना पडेंग़ा।'' वह बड़बड़ाई।

स्टेशन से बाहर निकलते ही उसने छाता खोल लिया। चेहरे पर उसके ऐसे भाव थे कि साफ पता चलता था कि आज उसके चाचा की खैर नहीं। और विदित का क्या होगा?

केशव राव खड्ये मार्ग
विदित ने अपनी कलाई घड़ी में समय देखा। सवा चार हो रहे थे। उसकी कार का चेहरा स्टेशन वाली सड़क की ओर था। सेहर यहीं से आने वाली थी। पाँच मिनट पहले ही वह यहाँ पहुँचा है। बारिश अभी हल्की थी मगर अब तेज हो गई थी। उसका नाम विदित राय है और वह दादर स्थित एक एक्सपोर्ट हाउस में ऊँचे पद पर काम करता है। इसके अलावा वह शेयर बाजार में भी अपनी किस्मत आजमाता है। वह सिवरी में पत्नी और दो बच्चों के साथ रहता है।
सेहर से उसकी पहली मुलाकात करीब आठ महीने पहले एक बार में हुई थी जहाँ उसका एक दोस्त उसे लेकर आया था और तभी उसे मालूम हुआ था वह धन्धे वाली है, सस्ती धन्धे वाली है। मगर उसमें एक कशिश थी, कातिल कशिश, और, और भी कुछ था जिसकी वजह से वह उस पर मोहित हो गया था। अगले ही दिन उसने सेहर को बुक कर लिया था। उसने पत्नी के अलावा बहुत-सी औरतों के साथ रात गुजारी है मगर पैसा देकर औरत का साथ उसने उस दिन पहली बार हासिल किया था। पहला साथ उसे बेहद पसन्द आया था क्योंकि वह उसके टेस्ट की लड़की थी। फिर वह अक्सर उसे बुलाने लगा था। ऐसा नहीं था कि उसे अपनी पत्नी अच्छी नहीं लगती थी या वह उसकी शारीरिक पूर्ति नहीं कर पाती थी, बस उसे बाहरी औरतों का शौक लगा हुआ था। अपने आफिस की भी कई महिलाओं के साथ वह सम्बन्ध बना चुका था।
लेकिन पिछले एक महीने से वह परेशान था। पिछले महीने वह एक लड़की के साथ डॉ. एनी बेसेन्ट रोड़ स्थित अतरिया मॉल में था। जहाँ वह लड़की तीसरे लेवल के एक शोरूम से कुछ खरीदारी कर रही थी। वह उसकी खरीदारी से बोर होता हुआ बाहर आ गया था और रेलिंग के किनारे पर खड़ा होकर नीचे झाँक रहा था। नीचे जो उसने देखा तो उसके होश उड़ गए। उसने देखा पहले लेवल पर उसकी पत्नी इरा किसी गैर मर्द की बाहों में बाहें पिरोये घूम रही है। वह हैरान रह गया कि उसकी मासूम-सी दिखने वाली बीवी किसी के साथ मौज मार रही थी। अपने खौलते खून को काबू करता हुआ वह तुरन्त उस लड़की के पास पहुँचा और जरूरी काम का हवाला देकर वहाँ से विदा हो गया। उस दिन वह समय से जल्दी घर पहुँचा था तो इरा खाना बना रही थी। बच्चों की स्कूल की छुट्टी थी तो वे अपनी नानी के यहाँ गए हुऐ थे। उसने इरा से पूछा था।
''आज क्या किया दिन भर?''
''आज तो दिन भर लेटी रही, सरदर्द था।'' उसने मासूमियत से कहा।
''अब कैसा है?'' उसने भी मासूमियत भरे स्वर में पूछा।
''ठीक है अब।'' इरा ने जवाब दिया और उसके लिए चाय का पानी चढ़ाने लगी।
ठीक तो होगा ही, यार के साथ मॉल की हवा जो खाकर आई है। उसने मन ही मन सोचा।
उसकी विचारधारा टूटी। उसका मोबाइल बज रहा था। नम्बर अजीत का था। अजीत प्राइवेट जासूस है। उसने इरा के आशिक के बारे में मालूमात करवाने के लिए अजीत की सेवाएँ ली थी।
''हाय अजीत, हाउ आर यू?'' विदित ने फोन ऑन करते ही कहा।
''फाइन। रिपोर्ट तैयार है। कहाँ दूँ, सर?''
''मैं आपके आफिस से कल क्लैक्ट कर लेता हूँ।'' वह सेहर के शरीर की कल्पना करता हुआ बोला।
''एक्चुली, मैं आज ही देना चाहता हूँ। कल मैं फुल वीक के लिए पुणे जा रहा हूँ। और...कुछ खास बात भी है।'' अजीत की गम्भीर आवाज उसके कानों के रास्ते भीतर उतर गई।
''क्या खास बात?'' वह भी गम्भीर हो गया।
''ये बात तो मिलकर ही बतायी जायेगी। आप कहाँ पर हो?''
''रेसकोर्स।''
''क्या घोड़ों का शौक भी रखते हैं? और हमें मालूम भी नहीं।''
''अरे नहीं। रेसकोर्स के बाहर हूँ, वेटिंग फॉर समबॉडी। और फिर ऐसी बरसात में कहाँ घोड़े दौड़ रहे होंगे?''
''तो आप तो पास ही हो। मैं यहाँ पेडर रोड़ पर हूँ। ऐसा करते हैं महालक्ष्मी मन्दिर के पास एक रेस्तरां है मिकास। वहाँ मिलते हैं। अभी चार पैंतीस हुए हैं। पाँच बजे ठीक रहेगा?''
विदित सोचने लगा। सेहर का क्या होगा? कुछ देर वेट कर लेगी गाड़ी में।
''रिपोर्ट क्या है?'' उसने अजीत के सवाल पर अपना सवाल लाद दिया।
''रिपोर्ट तो ओके है, सर। मगर उससे जुड़ी कोई बात बहुत सीरियस है।''
''कोई लफड़ा है क्या?''
''ऐसा ही समझो।''
''अच्छा! तो ठीक है, पाँच बजे मिकास में मिलते हैं। ये मिकास, मन्दिर के पास ही है न?''
''जी हाँ। मेन रोड़ पर ही है, भूला भाई देसाई रोड़ पर। हीरा पन्ना टि्वन बिल्डिंग्स के सामने।''
''ओके दैन। सी यू।''
''बाय सर।'' अजीत ने दूसरी ओर से कहा और फोन काट दिया।
क्या बात हो सकती है जो वह फौरन मिलना चाहता है? इसके साथ-साथ वह सोच रहा था कि सेहर का प्रोग्राम कैन्सल करना पड़ेगा। ऐन वही बात जो स्टेशन से बाहर निकलती हुई सेहर सोच रही थी। जिस बारिश के कारण उसने सेहर को बुलवाया था और जो उसे रोमान्चित, आनन्दित कर रही थी वही अब परेशान करने लगी। फिर उसने दिल को तसल्ली दी कि सेहर तो हमेशा उपलब्ध है, फिर बन जाएगा प्रोग्राम।
तभी किसी ने उसकी कार का शीशा खटखटाया।
सेहर थी। सेहर ने उसकी बगल में बैठने के बाद छाता बाहर की बाहर बन्द किया और उसे कार के फर्श पर डाल दिया और दरवाजा बन्द किया। उसके बाद वह मुस्कराहट भरे चेहरे के साथ उसकी ओर पलटी और बोली, ''कइसा है मेरा सेठ?''
बौछारों से भीगा उसका साँवला मुस्कराता चेहरा देख विदित खुश हो गया। एक पल को वह सब कुछ भूल गया। उसने उसे अपनी ओर खींचा और उसके गाल को चूमा और छोड़ दिया।
''मालूम हो गया कैसा हूँ मैं?'' वह शरारतपूर्ण स्वर में बोला।
''सेठ, तू कभीच नईं बदलेंगा।'' सेहर भी उसी स्वर में बोली।
''मैं बदलने के लिए नहीं बना हूँ, डियर। और तुम साड़ी में बहुत हसीन लगती हो। मेरे लिए ही पहनी है न?''
''तुम्हेरे वास्ते सेठ, सिर्फ तुम्हेरे वास्ते।'' उसने सहमति में सिर हिलाते हुए मुदित स्वर में कहा, ''मेरे कू तेरी भोत सारी बातें अच्छी लगती हैं। तू औरों की माफिक नोंच खसोच नेई करता, तू औरों की माफिक रकम की पाई पाई वसूल नेई करता।''
''साली, मेरे को चलाती है। बहुत चालू आइटम है तू।'' विदित ने हँसते हुए कहा।
''मैं बरोबर सच्ची बोलती रे, आई शपथ।'' उसने गले की घण्टी को ऐसे छुआ जैसे उसकी माँ वहीं बैठी हो।
विदित ने कार स्टार्ट की।
''सेठ, एक बात पूछने का था अपुन को।'' उसकी मुस्कराहट का स्विच ऑफ हो गया और स्वर भी बुझ सा गया, ''मेरे को हाजी अली चौराहे पर कुछ काम... अगर टैम का तोड़ा न हो तो मेरे को कुछ देर वहाँ रुकना माँगता?''
''क्या काम है?'' उसने पूछा। उसे भी तो वहीं काम था। दोनों की मन्जिल आसपास ही थी।
''परसनल करके थोड़ा।'' सेहर ने हल्के से हिचकते हुए कहा। ग्राहक है, बल्कि प्रिय ग्राहक है, बिदकना भी तो नहीं चाहिए।
''ज्यादा टाइम तो नहीं लगेगा।''
''ज्यासती कमती तो उदरिच मालूम होयेंगा। पण तुम इदर से हिलेगा तबी तो।'' वह बोली, ''अगर कोई लफड़ा न हुआ तो... वरना तो प्रोग्राम खोटा होयेंगा।''
विदित कुछ नहीं बोला। उसने कार स्टार्ट की और कार आगे रोड़ पर डाल दी। रोड़ सीधा हाजी अली चौराहे पर जा रहा था। क्या संयोग था? इसका भी कोई लफड़ा और उसका भी कोई लफड़ा।
सेहर ने भी उससे नहीं पूछा कि प्रोग्राम खोटा होने के बारे में उसने कोई सवाल नहीं किया। आज सेठ का मूड कुछ खराब लग रहा है। दोनों चुपचाप रहे। दोनों की खामोशी को रेडियो मिर्ची तोड़ रहा था। अभिनव बिन्द्रा ने ओलम्पिक में गोल्ड मैडल जीता है, उसकी चर्चा हो रही थी। विदित ने कार आगे रोड़ पर बढ़ा दी।
बरसात की वजह से सड़क पर ट्रैफिक धीमा चल रहा था।
''क्या हुआ सेठ?'' उसने उसकी ओर देखते हुए पूछा, ''कोई लोचा?''
''नहीं...। शायद...।'' वह अनिश्चय स्वर में बोला।
सेहर ने जिद नहीं की। उसे मालूम है कि कब क्या करना चाहिए। कब क्या कहना चाहिए।


हाजी अली चौराहा
''इण्डिया को गोल्ड! इण्डिया को गोल्ड!!''
एक दस-ग्यारह साल की लड़की चौराहे पर लाल बत्ती पर रुके वाहनों के बीच बारिश में भीगती हुई, पॉलीथिन में शाम के अखबारों का पुलन्दा लिए चिल्लाती घूम रही थी। अभिनव बिन्द्रा ने चीन ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीता है, लड़की उसी खबर को कैश करती हुई अखबार बेचने का प्रयास कर रही थी।
''इण्डिया को गोल्ड! इण्डिया को गोल्ड!!''
बारिश अब फिर से हल्की हो गई थी। विदित की कार भी उसी जगह रुकी थी जिस ओर वह लड़की अखबार बेच रही थी।
''वो सामने चौराहा है, तुम्हें यहाँ उतरना है क्या?'' उसने सेहर से पूछा।
''बरोबर सेठ, बिना उतरे तो कामिच नई होना।'' उसने दरवाजा खोलने के लिए हाथ बढ़ाया, ''तुम मेरे को बाजू वाली सड़क के किनारे पर मिलने का। बरोबर?''
''सुनो।'' विदित बोला, ''मुझे भी महालक्ष्मी मन्दिर के पास कुछ काम है, तो जो पहले फ्री होगा वो दूसरे को कॉल कर लेगा। ठीक है?''
सेहर ने सहमति में सिर हिलाया और उतर गई। उसकी कार ट्रैफिक में खड़ी रही। रश अधिक था, चौराहा पार करते-करते ही पाँच बज जाने थे। तभी उसका मोबाइल फोन बजा। इरा का फोन था।
सेहर ने सीधे अखबार बेचने वाली लड़की की ओर रुख किया। लड़की एक-एक कार का दरवाजा खटखटाकर अखबार बेचने की कोशिश कर रही थी।
''ऐ इदर आ।'' सेहर चिल्लाई, ''ऐ... ये बाजू।''
लड़की ने आवाज की दिशा में देखा। नीले छाते के नीचे मौजूद सेहर को देखते ही उसके चेहरे पर हैरानी के भाव आए। लड़की के देखते ही सेहर ने उसे अपनी ओर आने का इशारा किया। लड़की ने उसके पास आने की कोई कोशिश नहीं की।
''इण्डिया को गोल्ड! इण्डिया को गोल्ड!! इण्डिया को गोल्ड!!!'' लड़की ने अपनी आवाज तेज कर दी और सेहर से विपरीत दिशा में जाने लगी।
सेहर के चेहरे के भाव बदले और वह उसके पीछे लपकी। जल्द ही उसने उसे पकड़ लिया।
''इण्डिया को तो वो छोकरा गोल्ड दे दिया पण तेरे को क्या मंगता? कायकू गला फाड़ के चिल्लाती? तेरे कू क्या मिल रेला है ये भीगेले पेपर की बदली? साला, मुम्बई का अक्खा लोक मैडल मैडल ही चिल्ला रेला है।'' सेहर उस लड़की से बोली।
''छोड़ मेरे कू अबी। मेरे को पेपर बेचने का है।'' लड़की उससे छूटने का प्रयास करती हुई बोली।
''अबी तो तू पेपर बेच रेली है पण बाद में क्या बेचगी? मेरे माफिक अपना तन?'' सेहर कह रही थी, ''वो तेरे कू भी वोइच बनायेंगा जो मेरे कू बनाया। क्या?''
लड़की उसकी पकड़ से छूटने को कसमसा रही थी।
''मैं भी तेरी माफिक पिछली बार येइच चार साल पेले इण्डिया को सिलवर-इण्डिया को सिलवर गल्ले को निकाल-निकाल कर पेपर बेची थी पण मिला क्या? कुछ नई। ये दुनिया बड़ी हरामी साली। क्या?''
''मेरे को नई जमती तेरी बात। छोड़ मेरे कू।'' लड़की छोड़ने की रट लगा रही थी।
''छोड़ तो मैं देगी, मेरे कू बता, तेरा बाप किदर है?''
''वो सामने जूस वाले की बाजू में आई बैठेली है, उसको पूछ।''
सेहर ने लड़की की बताई दिशा में देखा। उसे सिर्फ चलते हुए, रुके हुए वाहन ही वाहन दिखाई दे रहे थे, उनके पीछे किस्तों में जूस वाला तो दिख जाता था पर उस लड़की की मां नहीं।
''मेरे कू छोड़ न।'' लड़की फिर उसकी पकड़ में छटपटाई। सेहर ने अपनी पकड़ ढीली कर दी। लड़की छूटी और इण्डिया को गोल्ड का नारा बुलन्द करती रुके हुए वाहनों के बीच गुम हो गई। लाल बत्ती के हरा होने के बीच का ही अल्प समय उसकी दुकानदारी का समय है। इस अल्प समय में अधिक से अधिक अखबार या अन्य वस्तुएं बेचना ही उसकी काबलियत होगी, उसकी सेल्समेनशिप होगी।
सेहर लाला लाजपत राय पार्क के सिरे से गुजरती हुई जूस वाले की ओर चल पड़ी जिसके पहलू से हाजी अली दरगाह को रास्ता जाता है।


कॉफी कैफे डे, पेडर रोड़
प्राइवेट जासूस को गए दस मिनट हो गए थे मगर वह अभी भी वहीं बैठी हुई थी। टेबल पर दो बड़े लिफाफे रखे थे जिनके एक कोने में ''स्पाई आई'' और उसके नीचे वर्ली का एक पता और फोन नम्बर लिखे थे। वे दो लिफाफे नहीं, पलीते में आग लगे बम थे।
वह उदास है। उसका नाम इरा है। टेबल पर प्राइवेट जासूस अजीत की जो रिपोर्ट पड़ी थी, देख चुकी थी। एक लिफाफे में उसके प्रिय और वफादार पति विदित की करतूतों का चिट्ठा था। उसमें विदित के विभिन्न फोटो थे जिसमें वह तीन लड़कियों के साथ था। उसमें से एक लड़की तो साफ-साफ बाजारू लग रही थी, लग क्या रही थी, थी। लड़की की डिटेल में उसका नाम सेहर था और धन्धा वेश्यावृत्ति लिखा था। उसे समझ नहीं आ रहा था उसमें ऐसी क्या कमी आ गई थी जिससे वह बाजारू औरतों के पास भी जाने लगा था। पता नहीं ये एडवेन्चर था या मौज-मस्ती, सोच-सोचकर उसका दिमाग भन्ना गया था। और दूसरे लिफाफे में...
कॉफी बहुत पहले खत्म हो चुकी थी। अपने भन्नाये हुए दिमाग को काबू करने के लिए उसने एक कॉफी का और ऑर्डर दिया।
अपने पति के पीछे जासूस उसने कोई एकाएक नहीं लगाया था। उसके बहुत से कारण थे, जैसे विदित का लगातार झूठ बोलना, होना कहीं और पर बताना कहीं और, एक की जगह तीन मोबाइल फोन रखना, उनकी कॉल लॉग्स, एसएमएस वगैरह वगैरह। कोई पन्द्रह-बीस दिन पहले उसने अखबार में से देख अजीत नाम के प्राइवेट जासूस को हायर किया था। उसकी रिपोर्ट उसे सन्तोषजनक लगी थी लेकिन उसने अभी यह नहीं सोचा था कि इस रिपोर्ट का वह क्या और कैसे इस्तेमाल करेगी? फिलहाल उसे ये तसल्ली थी कि उसका शक सही निकला था लेकिन तसल्ली ही काफी नहीं थी, उस पर पलट वार हो गया था।
शीशे के पार उसे पेडर रोड़ और बरसती हुई बरसात दिखाई दे रही थी। बरसात उसे सदा से रोमांचित करती है। शादी से पहले वह उज्जैन रहती थी, बरसात के मौसम का जैसे वह इन्तजार करती थी। मगर मुम्बई की बरसात अच्छी तो है लेकिन खतरनाक भी है। उसे जुलाई दो हजार पाँच की बरसात याद है जिसमें न जाने कितने लोग मारे गए थे। उसकी याद आते ही शरीर में झुरझुरी आ गई। लेकिन मुम्बई की बरसात उसे रोमांचित नहीं करती और आज की बरसात तो उसे मानसिक रूप से भी परेशान कर रही है।
उसने एक आह भरी। मेज पर पड़े दोनों लिफाफे उठाकर उसने अपने पर्स में रखे। दूसरा लिफाफा अधिक खतरनाक था। लिफाफे रखते समय उसे मोबाइल दिखाई दिया। उसने मोबाइल निकाला और विदित को फोन लगाया। तभी वेटर कॉफी रख गया।
''हाँ जी?'' दूसरी ओर से विदित ने कहा। वह उसके फोन के जवाब में हमेशा ''हाँ जी'' कहता है।
''क्या कर रहे हो?'' उसने पूछा।
''ट्रैफिक जाम में फँसा हूँ, उससे निकलने की कोशिश कर रहा हूँ।'' उसने जवाब दिया, ''बोल?''
''बाजू में कौन है?''
''बाजू में कौन है? मतलब?'' विदित का उलझा स्वर उसके कानों में पड़ा।
''वैसे ही पूछा। अकेले जा रहे हो?'' वह अपने स्वर को सन्तुलित करने का भरसक प्रयास कर रही थी।
''मैं अकेले जा रहा हूँ। आफिस के काम से जा रहा हूँ। मीटिंग के लिए जा रहा हूँ। और? विदित झल्ला गया, ''वैसे, क्या हुआ तुझे? तू कहाँ है?'' उसे अजीब लगा कि इरा बड़ा अटपटा सवाल कर रही थी।
''मैं...मैं मार्किट में हूँ। तुम्हारी याद आई तो फोन किया।''
''बारिश में कहाँ मार्किट घूम रही है? अच्छा..., ठीक है मैं काटता हूँ। ट्रैफिक खुल रहा है। ठीक है?''
''हूँ।'' इरा धीरे से बोली और फोन काट दिया और कॉफी की ओर आकडि्र्ढत हुई। विदित से हुई बातों से तो लग रहा था जैसे उसे कुछ मालूम ही न हो।
''यह बात मेरे धन्धे से मेल नहीं खाती फिर भी मैं आपको एक राज की बात बताता हूँ।'' अजीत ने चलते समय दूसरा लिफाफा निकालकर मेज पर रखते हुए रहस्यमय स्वर में कहा था, ''आपके हसबैण्ड को मैं पहले से जानता हूँ क्योंकि उनसे मेरे अच्छे बिजनेस टर्म्स हैं लेकिन जो रिपोर्ट आपको दी है उसके बारे में मैं भी नहीं जानता था...''
वह समझ नहीं पा रही थी कि अजीत क्या कहना चाह रहा है।
''...मैं आपको इन्कार भी कर सकता था लेकिन धन्धा धन्धा है और ग्राहक ग्राहक। इस बात का मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि इस रिपोर्ट में मैंने उनका कोई फेवर नहीं लिया। रिपोर्ट उतनी ही सच्ची है जितनी धरती और आकाश।''
इरा के चेहरे पर अभी भी उलझन के भाव थे।
''जिस समय विदित की जासूसी की जा रही थी, उसी समय आपकी भी जासूसी हो रही थी जो विदित करवा रहे थे।'' कहते समय अजीत का स्वर सामान्य से और धीरे हो गया था।
''क्या?'' इरा को जबरदस्त झटका लगा था।
''जी हाँ।'' उसने दूसरे लिफाफे की ओर इशारा करते हुए अर्थपूर्ण स्वर में कहा, ''इसमें आपकी रिपोर्ट है।''
वह हैरानी से उस लिफाफे को देख रही थी जिसका ''स्पाई आई'' का लोगो उसे घूर रहा था।
''क्या... इस...इसके...'' इरा से बोला नहीं गया।
''कुछ मत कहिए। कोई जरूरत भी नहीं है। सिर्फ सोचिए।''
इरा खाली निगाहों से लिफाफों को देखती रही।
''यह मेरे धन्धे के खिलाफ है लेकिन मेरा आपको बताने का मकसद सिर्फ यही है कि विदित से मेरे बहुत अच्छे सम्बन्ध हैं और मैं नहीं चाहता कि उनके वैवाहिक सम्बन्धों को कोई नुकसान पहुँचे। आप दोनों एक दूसरे का सच जान गए है, अगर हो सके तो एक बुरा सपना या बुरा दौर समझ कर इसे भुला दीजिएगा, बाकी आप समझदार हैं। गुडबाय भाभी जी।'' पहली बार अजीत के मुँह से ''भाभी'' शब्द बहुत अजीब लगा।
''और हाँ भाभी जी, जो आपने मुझे एडवान्स दिया था वो रकम लिफाफे में रखी है। फीस के बदले में मैं आपके घर में सुख और शान्ति चाहूँगा। गुडनाइट।''
कॉफी खत्म हो चुकी थी। उसने वेटर को इशारा किया।
अनिश्चय से घिरी कुछ देर बाद वह उठ खड़ी हुई। उसकी कार सामने ही खड़ी थी।


मिकास रेस्टोरेंट, भूला भाई देसाई रोड़
विदित जब वहाँ पहुँचा तो अजीत को उसने कोने की मेज पर विराजमान पाया। उसके सामने बीयर भरा आधा गिलास, किंगफिशर की बोतल और मूँगफली की कटोरी थी। अजीत का ध्यान अपने मोबाइल फोन पर था। विदित उसकी ओर न जाकर टॉयलेट की ओर चला गया।
कुछ देर बाद वह लौटा। बीयर की मात्रा में कोई अन्तर नहीं आया था। इस समय अजीत फोन पर किसी से बात कर रहा था।
''हैलो।'' विदित ने उसके पास पहुँचकर अपना हाथ आगे बढ़ाया। अजीत ने उसे देखा, मुस्कराया और हाथ मिलाने के लिए खड़ा हुआ। हाथ मिलाते हुए फोन काटा और बोला, ''कैसे हैं सर?''
''फाइन।'' वह उसके सामने बैठते हुए बोला, ''आप तो शायद यहीं बैठे हुए थे।'' बीयर पर निगाहें डालते हुए उसने अर्थपूर्ण स्वर में कहा।
''अरे नहीं सर। मैं बस थोड़ी ही देर पहले ही पहुँचा हूँ।'' वह हँसते हुए बोला, ''अभी तो दो घूँट ही लगाये हैं। आप?''
''बिल्कुल। नेकी और पूछ-पूछ। पूरी मुम्बई में झमाझम पानी बरस रहा है मगर यहाँ गले सूखे पड़े हैं।''
दोनों हँसे। अजीत ने वेटर को गिलास लाने का इशारा किया।
विदित गम्भीर हुआ।
''क्या समस्या है, अजीत साहब।''
''पहले गला तो गीला करो, सर। फिर बात करके हैं।''
गिलास आने, बीयर गिलास में डलने और उसका तृप्तिपूर्ण ढ़ंग से विदित का घूंट लगाने तक दोनों में से कोई नहीं बोला।
''प्रोसीड।'' विदित ने अधीरता से कहा।
अजीत तैयार था। बिना कोई भूमिका बनाये उसने कहना आरम्भ किया।
''सर, रिपोर्ट तैयार है जो मेरे बैग में पड़ी है।'' कहते हुए उसने अपने पैरों के पास रखा एक्सीक्यूटिव बैग उठाया और उसमें से एक वैसा ही लिफाफा निकालकर मेज पर रख दिया जैसा वह अभी थोड़ी देर पहले इरा को देकर आया था, ''पहले आप रिपोर्ट देखेंगे या...'' अजीत ने धीरे से वाक्य को रहस्य में लपेट पर अधूरा छोड़ दिया।
विदित का हाथ लिफाफे पर पहुँच चुका था पर वह लिफाफे पर ही रुक गया।
''यार, क्या सस्पैंस है?'' उसने एक गहरी सांस छोड़ते हुए कहा।
''सस्पैंस कुछ नहीं, संयोग है। ये संयोग भी बड़ी अजीब चीज होती है, सुख और दुख दोनों उससे जुड़े होते हैं पर किसके हिस्से में क्या आता है यह वही जानता है, जो इस संयोग से गुजरता है।''
''आप क्या कहना चाह रहे हैं?'' विदित ने उलझनपूर्ण स्वर में कहा।
''इन शॉर्ट सर, मैं बताना तो नहीं चाहता क्योंकि ये मेरे धन्धे के खिलाफ है लेकिन बताये बिना भी मुझसे रहा नहीं जायेगा क्योंकि आप मेरे अजीज है, आपकी कम्पनी से मुझे बल्कि यों कहा जाए आपसे मुझे बहुत काम मिलता है तो मेरा फर्ज बनता है कि कम से कम ये बात मैं आपसे शेयर करूँ।'' अजीत रुका, बीयर का घूँट लिया और आगे कहना शुरू किया। इस दौरान धैर्य की प्रतिमूर्ति बना विदित उसे देख और सुन रहा था।
''जब आपने मुझे अपनी पत्नी को वॉच करने का काम दिया था तो उसी दौरान आपकी पत्नी ने भी मुझे आपको वॉच करने के लिए हायर किया था...।'' अजीत प्रतिक्रिया देखने के लिए रुका।
''अच्छा!'' विदित के मुँह से सिर्फ इतना निकला लेकिन भीतर ही भीतर वह जड़ हो गया था।


हाजी अली चौराहा
सेहर को वह दिखाई दे गई। दीवार के सहारे एक तिरपाल टँगा हुआ था जिसके नीचे उसकी चाची बैठी हुई थी। उसकी गोद में एक एक-डेढ़ साल का बच्चा था। उसके सामने गुलाब के फूलों का ढेर था और कुछ गुच्छे तैयार किए हुए बगल में रखे थे। उसकी बगल में मवाली सा एक आदमी बैठा हुआ था। सेहर उसके सामने जा खड़ी हुई। सेहर ने उड़ती हुई निगाह उस आदमी पर डाली और अपनी चाची को देखा और उसकी चाची ने उसे।
''तू! किदरीच है तू? आजकल तो दिखतीच नई तू?'' उसकी चाची ने उसे देखते ही कहा।
''जिदरीच हूँ, बरोबर हूँ।'' सेहर बोली, ''चाचा किदर है?''
''बारिश में कायकू भीग रेली है, भीतर आजा। चा मँगाऊँ तेरे वास्ते?''
''मेरे को नई मँगता तेरी चाय। मय पूछ रेली हूँ किदर में है वो?'' उसने अभी भी छाता ताना हुआ था।
''मेरे कू क्या मालम, इसकू पूछ'' चाची ने बगल में बैठे आदमी की ओर इशारा किया, ''आजकल इसकेइच साथ रैता है।''
''तेरे से जी भर गया क्या?''
''हैं!! क्या बोली छोकरी तू?'' चाची चौंकती हुई बोली।
लेकिन सेहर नए सिरे से उस अजनबी आदमी को देख रही थी। वह आदमी उसे घूर रहा था।
''मय इसकू नई पिछानती, तू बता मेरे को, किदर है वो?'' सेहर फिर चाची की ओर आकर्षित हुई।
''पहचान बनाने में क्या देर लगती है, बाई।'' वह आदमी बोला। वह अभी भी उसे घूर रहा था।
''ऐ, ज्यासती नेई। क्या?'' सेहर उबल पड़ी।
''मैं कहाँ ज्यासती किया?'' वह बेशर्मी से हँसा, ''किया क्या?'' उसने चाची को देखा, ''किया क्या मैं ज्यासती।''
''जरा बी नई।'' वह उसकी हाँ में हाँ मिलाती हुई हँसती हुई बोली, ''तू तो कमती भी नई किया, ज्यासती कायकू करेंगा।''
सेहर अपमान से जल उठी।
''मेरे कू मेरा पइसा चाइये।'' वह चाची से बोली। उसे लगा बात बढ़ाने से कोई फायदा नहीं होगा। फिर उसका चाचा भी गायब था।
''कइसा पइसा?'' वह नकली आश्चर्य का प्रदर्शन करती हुई बोली, ''मेरे कू दी तू। जिसकू दी उससे लेने का, क्या? और पइसा होता तो क्या मैं चौराहे पर पड़ी होती। मेरे पास तेरा पइसा नई क्या? और अपुन के ऊपर नई खड़े होने का। अब फूट इदर से।''
''तो चाचा का पता बोल। मुझे बरोबर खबर लगेला है वो नशेपानी के धन्धे में है और भोत पइसा बना रेला है। तू बता मेरे कू।''
''तेर कू सुनताच नई क्या? मेरे कू नई मालम।''
सेहर कुछ कहने ही लगी थी कि मवाली बोला, ''तुझे जगदीश का पता चाहिए? पण वो तो इधर ही रहता है, इसी तिरपाल के नीचे।''
''वो अब्बी किदर है?'' सेहर ने पूछा।
मवाली और चाची की नजरें आपस में मिलीं। भगवान जाने क्या इशारा हुआ। क्या साली सैफ करीना की जोड़ी है। सेहर ने सोचा।
''वो भुसावल गया है।'' फिर वह बोला।
''ये किदर है?'' उसने पूछा।
''बहुत दूर है। चार-छह घण्टे लगते हैं वहाँ पहुँचने में।''
''मेरे को अलीबाग से आई समझ रेला है तू।'' वह रोड्ढपूर्ण स्वर में बोली और चाची से बोली, ''ये तेरा भौंपू करके है क्या? मेरे कू मेरा पइसा चाहिए। कबी आयेगा वो हरामी।''
''अपने चाचा कू हरामी बोली तू?'' चाची बोली।
''बरोबर बोली। वो हरामिच ही है। मेरे कू रण्डी बनाने वाला वोइच, मेरी कमाई खाने वाला वोइच और मेरा सारा पइसा डकारने वाला वोइच।'' उसका चेहरा तमतमा गया था।
चाची का चेहरा स्याह पड़ गया था। उससे कुछ कहते नहीं बन रहा था। मवाली लगातार उसे घूर रहा था जैसे नजरों में ही हजम कर जाएगा।
''मेरे कू नई बतायेगी तू उसका पता?'' सेहर बोली।
''मेरे कू मालमइच नेइ है और मालम बी हो तोबीच नेइ बताती।'' चाची रूखे स्वर में बोली, ''अब इदर से खिसकने का। धन्दे का टैम है, टैम खोटी नेइ करने का।''
''आज मय फैसला करके जाएगी।''
''तेरी मर्जी।''
सेहर की कुछ समझ नहीं आ रहा था। उसने फिलहाल इन्तजार करने का फैसला किया। कम से कम तब तक, जब तक विदित का फोन नहीं आ जाता।
बारिश फिर से तेज हो गई थी। वह जूस वाले की तिरपाल के नीचे जाने के लिए उस ओर बढ़ी।


मिकास रेस्टोरेंट, भूला भाई देसाई रोड़
अजीत अभी भी चुप था और विदित को देख रहा था। विदित कहीं नहीं देख रहा था। वह सोच रहा था। इरा उसकी उम्मीद से कहीं अधिक होशियार निकली थी। उसने सपने में भी नहीं सोचा था वह ऐसा भी कर सकती है लेकिन उसने गलत क्या किया, इरा ने वही तो किया जो वह कर रहा था।
विदित ने अपना बीयर का गिलास उठाया और एक बार में खाली कर दिया। अजीत ने गहरी सांस छोड़ी। प्रतिक्रिया सामने आ गई थी।
''आगे?'' विदित ने पूछा।
''और बीयर मँगाता हूँ।'' अजीत ने कहा।
''यार, मसखरी मत करो। तुमने मेरी जासूसी की?''
''वो मेरा धन्धा है, मुझे करना ही था और उस समय मुझे पता भी नहीं था कि वो भाभी जी हैं। लेकिन मैं सिर्फ इतना कहना चाह रहा हूँ कि इस सारे खेल में आपको जो नुकसान हुआ है...।''
''मुझे तुमसे ऐसी उम्मीद नहीं थी। मेरे साथ ठीक नहीं किया तुमने।'' विदित ने उसकी बात काटते हुए कहा।
''...उसकी भरपाई हो सकती है।
वह अपने चेहरे पर प्रश्नचिन्ह लिए अजीत को देख रहा था।
''जी हाँ।'' अजीत ने वेटर को और बीयर लाने का इशारा करते हुए कहा।
''मेरा जितना नफा नुकसान करना था वो आपने कर दिया है।'' वह तनिक निराशापूर्ण स्वर में बोला और लिफाफा खोलने लगा।
''देखिये सर, अगर मैं आपको नहीं बताता तो आपको कभी मालूम नहीं होता। आपको बताने का मेरा सिर्फ यही मकसद है कि आपसे मेरे बहुत अच्छे सम्बन्ध हैं और उन्हें मैं हमेशा बनाये रखना चाहता हू। दरअसल, मैं नहीं चाहता कि आपके वैवाहिक सम्बन्धों को कोई नुकसान पहुँचे इसलिए यह बात मैं आपको बता रहा हूँ।
''तो मुझे पहले क्यों नहीं बताया? और आज क्यों बता रहे हो?''
''पहले शायद इसलिए नहीं बताया कि मैं सोचता था रिजल्ट नेगेटिव आएगा। और अब इसलिए बता रहा हूँ क्योंकि पहले ही बहुत देर हो चुकी है।''
''हाँ, साला प्रेगनेंसी टैस्ट है जो नेगेटिव आएगा क्योंकि मैंने तो कंडोम यूज किया था। क्यों?'' विदित ने खिन्न स्वर में कहा।
तभी वेटर बीयर ले आया। अजीत कुछ कहना चाहकर भी नहीं बोला।
वेटर के जाने के बाद विदित ने लिफाफा खोला। लिफाफे में चार तस्वीरें थीं जिनमें उसकी पत्नी इरा किसी अजनबी के साथ थी। जो डिटेल उनके साथ थी उसके अनुसार इरा चार बार इस व्यक्ति से मिली थी। उसने गौर से उस अजनबी को देखा। अजनबी वही था जिसे उसने मॉल में इरा के साथ बाँहों में बाँहें पिरोये देखा था। रिपोर्ट में उसका नाम अलंकार नैमा लिखा था जो ठाणे के एक इंजीनियरिंग कॉलेज का छात्र था। उसे नाम से कुछ याद आने लगा। उसे याद आया इरा ने ही उसे बताया था कि उसके किसी रिश्तेदार का लड़का उज्जैन से यहाँ पढ़ाई के लिए आया है और जिसका नाम उसने अलंकार नैमा बताया था। तो इससे मोहब्बत की पींगे बढ़ाई जा रही हैं।
''हाँ तो मैं कह रहा था सर कि अगर आप ये सब बाहर के धन्धे बन्द कर दें तो सब ठीक हो जाएगा।''
विदित ने अजीत को जलते हुए नेत्रों से देखा।
''अपनी फीस बताओ?'' उसने कठोर शब्दों में कहा।
''आप मेरे साथ बीयर पी रहे हैं, यही मेरी फीस है।'' अजीत ने धीरे से कहा।
विदित गुस्से में और कुछ कहना चाह रहा था लेकिन गुस्से की अधिकता से ही उससे बोला नहीं गया।
''रिलैक्स सर, जिन्दगी हमें सबक सिखा रही है। इसे बुरा वक्त समझ कर भूल जाने की कोशिश कीजिए और अपने घर परिवार में ध्यान दीजिए।''
विदित शून्य में कहीं देख रहा था। अजीत का उपदेश वह समझ नहीं पा रहा था।


हाजी अली चौराहा
सेहर अनिश्चित-सी फुटपाथ पर छाता ताने खड़ी थी। अभी वह जूस वाले की ओर पलटी ही थी कि...
''ऐ छोकरी'' मवाली गुस्से से बोला, ''मेरे को भौंपू बोली तू?'' भौंपू बोली मेरे को?''
''सुनाईच तो दिया न तेरे कू। फिर कायकू पूछता है?'' वह भी उसी स्वर में बोली।
''साली कुतरी, मेरे साथ ज्यासती अड़ी की न मैं फाड़ के डाल देंगा तेरे कू।'' कहते हुए वह उठ खड़ा हुआ।
''साले, हलकट, मवाली मेरे कू कुतरी बोला तू।'' सेहर फिर उबल पड़ी, ''अपनी माँ को खुला छोड़ कू आया या बाँध कू आया। साला मेरे कू कुतरी बोलता है...''
अब मवाली के हाथ में चाकू लहरा रहा था और वह तिरपाल से बाहर निकल आया।
चाकू देखते ही सेहर की बोलती बन्द हो गई। क्या वह इतने भीड़ भरे चौराहे पर चाकू मारने की हिम्मत कर सकता है। उसने आसपास देखा। सैकड़ों लोग थे पर उसे नहीं पता चल रहा था कि कौन उसे या उस मवाली को देख रहा है और कौन नहीं।
''क्यों, कांटी देखते ही जबान सूख गया। निकाल, निकाल दो हाथ की।'' मवाली क्रूर स्वर में बोला।
''देख'' वह हिम्मत करके बोली, ''मेरा तेरे से कोई लफड़ा नेई, कोई लेन-देन नेई। पण मेरे को मेरा पइसा तो मँगता न। तेरे को बीच में नेई पड़ने का। बरोबर।''
''पण बीच में तो अब कांटी है, वोईच बरोबर करेगी जो बरोबर होयेंगा, क्या?'' मवाली पूर्ववत खूँखार स्वर में बोला।
सेहर ने चाची को देखा। वह उसे नहीं देख रही थी, वह तो गुलाब के गुच्छे तैयार करने लग गई थी। अब जो कुछ करना था, सेहर ने करना था।
मवाली उसकी ओर बढ़ा।
''देख अपुन का तेरे से कोई लफड़ा नेई, अपुन...''
मवाली ने उस पर चाकू से वार किया। सेहर ने अपनी छतरी चाकू के आगे कर दी। चाकू छतरी को चीरता हुआ निकल गया। सेहर छाता छोड़कर सड़क की ओर भागी। मवाली उसके पीछे। साड़ी का लहराता आँचल उसके हाथ में आ गया। सेहर ने पलटकर अपने पर्स से उस पर वार किया।
वहाँ मौजूद लोग उन्हें देख रहे थे, वाहन वाले उन्हें देख रहे थे लेकिन सब लोग सिर्फ देख रहे थे।
मवाली ने पर्स के वार को बचाते हुए चाकू से सेहर पर वार किया पर पर्स से बचते हुए उसका पैर पानी भरी सड़क पर फिसल गया लेकिन उसके चाकू ने अपना काम कर दिया। चाकू सेहर की कमर के पिछले हिस्से पर तेज घाव बनाता हुआ मवाली के हाथ से फिसल कर सड़क पर गिर गया।
सेहर ''हाय'' करती हुई चिल्लायी और भूला भाई देसाई रोड़ की ओर से आने वाली एक कार के बोनट से टकराई। घाव से खून बहता हुआ उसकी साड़ी पर गिर रहा था। सेहर ने हिम्मत करते हुए कार का दरवाजा खोलने की कोशिश की। दरवाजा खुल गया। वह तेजी से भीतर घुस गई। ड्राइवर की सीट पर एक स्त्री बैठी हुई थी। जो भी हुआ था इतने अप्रत्याशित ढंग से हुआ था कि वह स्त्री हड़बड़ा गई थी। उसे एकाएक समझ नहीं आया कि क्या करे? क्या बोले?
सेहर ने शीशे से बाहर मवाली को देखा। मवाली के पैर में मोच आ गई थी। उठने की कोशिश करता हुआ वह कार में बैठी सेहर को घूर रहा था। सेहर उस महिला की ओर पलटी।
''ऐ बाई'' सेहर पीड़ा भरे स्वर में बोली, ''गाड़ी भगा न इदर से।''
महिला को स्थिति समझ आने लगी।
''क्या...क्या प्राब्लम है? नीचे उतरो फौरन। जल्दी करो।'' महिला बोली।
''बाई मैं तुम्हेरे हाथ जोड़ती मेरे कू यां से ले चल बाई। वो मेरे कू मार डालेंगा।'' सेहर भर्राये स्वर मे बोली। उसे बहुत दर्द हो रहा था।
''मैं कुछ नहीं जानती, तुम उतरो जल्दी...ओ माई गॉड।'' उसने सेहर की कमर से बहता खून देख लिया जो कार की सीट खराब कर रहा था, ''जल्दी उतरो, मेरी सीट भी खराब कर दी।'' स्त्री तमतमा गई।
पीछे से वाहनों के हॉर्न बज रहे थे। स्थिति बड़ी विकट थी। न चाहते हुए भी महिला को कार आगे बढ़ानी पड़ी। वह पहले से ही दुखी थी और एक और दुखी महिला ने उसके दुख को और बढ़ा दिया था। वह इरा थी। वह महालक्ष्मी रेसकोर्स की तरफ मुड़ना चाह रही थी लेकिन हड़बड़ाहट, पीछे के वाहनों के दबाव और कार में बैठी घायल स्त्री के कारण वह सीधे लाला लाजपत राय मार्ग पर आ गई।
''मेरे कू भोत दरद हो रहा है, कोई आजू बाजू असपताल हो तो मेरे कू उदर छोड़ दे बाई।'' सेहर अपनी साड़ी के पल्लू को कमर के गिर्द लपेटती हुई इरा से बोली।
इरा को सेहर का चेहरा कुछ पहचाना लग रहा था लेकिन परेशानी, मुसीबत और बारिश में कार ड्राइव करने की मशक्कत में उसे याद नहीं आ रहा था कि यह वही बाजारू औरत है जिसका कुछ देर पहले उसने अपने पति के साथ फोटो देखा था।
इरा कार किनारे रोककर इस मुसीबत से छुटकारा पाना चाह रही थी लेकिन उसकी पीड़ा और खून देखकर उससे कुछ कहते नहीं बना। वह कार किनारे करने ही लगी थी कि सेहर विनती करने लगी, ''ऐ बाई, कार इदर मत रोकने का, वो मवाली फिर इदर आ जाएगा।''
इरा ने एक गहरी साँस छोड़ी और कार की गति बनाए रखी। सड़क पार दूसरी ओर इरा को एक साइन बोर्ड दिखाई दिया जिसे देखते ही उसके चेहरे पर सन्तोष की आभा फैल गई। साइन बोर्ड एआईआईपीएमआर अस्पताल का था जो कुछ ही मीटर दूर था। थोड़ा आगे जाने पर अस्पताल की इमारत भी दिखाई दे गई। वह सोच रही थी कि अस्पताल भी पास ही मिल गया, अब जल्द ही इस मुसीबत से छुट्टी मिल जाएगी। उसने सेहर को देखा। सेहर किसी को फोन मिला रही थी।
''अस्पताल आ गया।'' इरा बोली।
सेहर ने भी अस्पताल की इमारत को देखा। मोबाइल फोन कान पर लगा था। अभी कॉल लगी नहीं थी। दर्द की अधिकता से उसका चेहरा विकृत होने लगा था और सिर घूमने लगा था।


मिकास रेस्टोरेंट, भूला भाई देसाई रोड़
''शायद आप समझ रहे होंगे सर कि मैं आपका गुनहगार हूँ।'' अजीत कह रहा था, ''लेकिन मुझे जो ठीक लगा मैंने किया और अब भी मुझे जो ठीक लग रहा है वही कर रहा हूँ।''
विदित खामोशी से उसे देख रहा था। एकाएक उसे याद आया।
''रिपोर्ट...रिपोर्ट कहाँ है? अभी तो उसे नहीं दी न?'' उसने उत्तेजित स्वर में पूछा।
अजीत ने प्रतिक्रियास्वरूप अपना बीयर का गिलास उठाया और एक बड़ा-सा घूँट लिया।
उसकी प्रतिक्रिया से विदित ने जो अनुमान लगाया वह निराश करने वाला था।
''मेरी पीठ में छुरा घोंपने वाले जरा अपना मेहनताना भी बता दो।'' वह गुस्से से बोला।
''मैंने ये काम फीस के लिए नहीं किया।'' अजीत अभी भी बीयर चुसक रहा था।
''मेरी बीवी से तो ली होगी?'' विदित ने व्यंग्यपूर्ण स्वर में कहा।
''उनसे भी नहीं।'' अजीत ने धीरे से कहा, ''मेरा मकसद है दोनों को सच बताकर उसका समाधान करना। मैं किसी को अन्धेरे में नहीं रखना चाहता था। मैं आपको दिल से अपना दोस्त मानता हूँ और बहुत इज्जत करता हूँ। मैंने पहले भी कहा, मुझे जो ठीक लगा मैंने किया।''
''अच्छा! सच में ही बहुत...'' वह रुक गया। उसका मोबाइल बज रहा था।
स्क्रीन पर सेहर का नाम और नम्बर चमक रहा था। विदित ने अजीत को देखा। वह बीयर का अन्तिम घूँट ले रहा था। उसने मोबाइल का हरा बटन दबाया और कान से लगाया।
''हाँ?''
''सेठ...सेठ?'' सेहर की डूबी-सी आवाज उसके कानों में पहुँची।
''क्या हुआ? बोलो सेहर, क्या हुआ?'' विदित का स्वर थोड़ा तेज हो गया।
सेहर का नाम सुनते ही अजीत ने उसे देखा और असहाय भाव से गर्दन हिलाई।
''सेठ, मेरे कू...चाकू मारा किसी ने। भोत खून बहता है सेठ। एक बाई मेरे कू हस्पताल लेकू आई। अपुन की मदद कर न सेठ। सेठ सुन...रहा...है।''
''सेहर! सेहर! कौन से अस्पताल में है? बताओ मुझे।'' वह अधीरता से बोला।
अजीत उलझनतापूर्वक उसे देख रहा था लेकिन विदित उसे नहीं देख रहा था।
''हस्पताल का नाम... बता न... बाई।'' उसे सेहर अस्पष्ट-सी आवाज आई। शायद उसे ज्यादा चोट आई है। उसे कौन चाकू मार सकता है? वह अभी सोच ही रहा था कि नई आवाज उसके कानों में पड़ी।
''एआईआईपीएमआर अस्पताल है, हाजी अली के सामने। मैं इन्हें एमरजेन्सी में ले जा रही हूँ, आप इनके जो भी हैं, जल्दी आ जाइये।'' और फोन कट गया।
फोन कटने के बाद भी विदित उसे कान से लगाये रहा। वह असमंजस में था। फोन पर जो दूसरी आवाज उसने सुनी थी वह इरा की आवाज जैसी थी। पूछना चाहकर भी वह पूछ नहीं पाया। वह अस्पताल का नाम भी पूरी तरह नहीं सुन पाया।
''क्या हुआ, सर?'' अजीत भी परेशान हो गया।
''हाजी अली के पास कौन-सा हॉस्पिटल है?'' मोबाइल को मेज पर रखते हुए उसने पूछा।
''वहाँ तो एआईआईपीएमआर है, क्या हुआ?''
''कुछ नहीं। मुझे वहाँ जाना है।'' वह उठ खड़ा हुआ, ''बिल मेरे आफिस भेज देना।''
''सर, आप अभी भी नाराज हैं। आप बाद में सोचेंगे तो शायद आपको लगेगा कि मैंने जो किया, ठीक किया। मुझ पर भरोसा रखो, सर।'' अजीत गम्भीरतापूर्वक बोला।
''ओके।'' विदित ने अपना मोबाइल फोन उठाया और मुड़ गया।
''आपने सेहर का नाम लिया था, कोई प्राब्लम खड़ी हो गई क्या? मैं साथ आ सकता हूँ अगर कोई दिक्कत न हो तो?''
विदित ठिठक गया। फिर पलटकर बोला, ''थैंक्यू।'' और तेजी से बाहर निकल गया।


एआईआईपीएमआर अस्पताल, लाला लाजपत राय मार्ग
इरा सेहर को एमरजेन्सी वार्ड में ले गई।
फोन पर बात करते समय सेहर को चक्कर आ गए थे जिसके कारण इरा ने फोन पर किसी को अस्पताल के बारे में बताया था। फोन काटकर उसने उसे डैशबोर्ड पर रख दिया था। सेहर को पकड़कर वार्ड में ले जाने के कारण वह उसका फोन वहीं भूल गई।
घाव वास्तव में गहरा था। डाक्टर ने इसे पुलिस केस बताया था। सेहर ने जब डाक्टर को अपना नाम बताया तो इरा को उसका फोटो वाला चेहरा याद आ गया। यह वही बाजारू औरत थी जिसके चक्कर में आजकल उसका पति है। उसने एक आह भरी। क्या अजीब संयोग हुआ है? उसे आज ही उसके बारे में मालूम हुआ था और आज ही उससे मुलाकात भी हो गई। जब उसने सेहर और विदित का फोटो देखा था तभी उसके भीतर सेहर के प्रति नफरत भर गई थी और अब हालात ऐसे हो गए कि वह उसकी जान बचाने में सहायता कर रही है।
अब एक मुसीबत और खड़ी हो गई थी। सेहर का पुलिस केस बन गया था और उसे पुलिस के आने तक रुकने के लिए कहा गया था।
उसने समय देखा। छह बजने वाले थे। उसने पर्स में से मोबाइल निकाल कर अपने घर फोन लगाया। उसके बच्चे घर में नौकरानी के साथ थे। उसने बच्चों को कहा भी था कि वह छह बजे तक आ जाएगी। फोन करने के बाद वह वाहर बिछी बैन्च पर बैठ गई। वह सोच रही थी, ''अभी तक मैंने खुद को विदित से बात करने के लिए भी तैयार नहीं किया है। अगर वह मेरा सच जानता है तो मैं भी उसका सच जानती हूँ। नुकसान दोनों को ही होगा। क्या हमारे बीच इस बारे में बात हो पाएगी? या हम दोनों ही खामोश रहेंगे?''
हम दोनों का सच!
जैसे कुछ चीजें आपके चाहने भर से ही नहीं होने लगती, ऐसे ही कुछ चीजें न चाहते हुए भी अपने आप होती चली जाती हैं। ऐसा इरा के साथ हुआ था। अलंकार उसके दूर के रिश्ते में कुछ लगता था जो उज्जैन के पास देवास में रहता था। पहली बार उसका फोन आया था जो उसे उज्जैन में इरा की भाभी ने दिया था। उसने बताया था कि वह ठाणे के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने आया था। और एक बार वह उससे मिलने चली गई थी, एक औपचारिक रिश्तेदारी निभाने वाली मुलाकात। उसे अलंकार अच्छा लड़का लगा। उसने अलंकार के बारे में विदित को भी बताया था जिसे विदित ने भावहीन तरीके से लिया था। फिर, जो होता गया उसमें गलती किसी की नहीं थी, स्थितियाँ वैसी बनती गईं।
अब क्या-क्या हो सकता है उसमें इरा का दिमाग उलझने लगा। उसे महसूस हुआ जैसे वह पहेलियों में घुस गई है जहाँ सारे रास्ते एक जैसे लग रहे हैं। फिर उसे सेहर का खयाल आया। उसके प्रति जो शुरू की नफरत थी वह सामने हो रही बारिश के पानी की तरह ही बह गई थी। वह तो लड़की है, वेश्या है, उसका तो काम ही यही है। उसकी कोई गलती नहीं है, गलती विदित की है जो शादीशुदा और बाल बच्चे वाला होते हुए भी ऐसे काम कर रहा है। जैसे हवा से बरसते पानी की दिशा बदल जाती है वैसे ही उसकी नफरत सेहर से शुरू होकर विदित पर आकर रुक गई।
तभी उसे अपनी कार का ध्यान आया जिसे सेहर को उतारने के कारण वह गलत पार्क कर आई थी। वह बैन्च पर से उठी और तेज कदमों से कार की दिशा में चल दी। कम्पाउण्ड पार कर वह अपनी कार की ओर जाने ही लगी थी कि तेजी से चलती हुई एक लाल रंग की वैगन आर कार कम्पाउण्ड में दाखिल हुई। गाड़ी पहचानी हुई सी लगी, नहीं, पहचानी सी नहीं, पहचानी ही थी। यह विदित की वैगन आर थी। पार्किंग के लिए उसे आगे से घूम कर आना था इसलिए कार आगे निकल गई। बारिश और काले शीशे होने के कारण वह विदित को नहीं देख पाई। अभी वह कम्पाउण्ड के साये में ही थी। उसने पर्स में से मोबाइल निकाला और विदित का नम्बर मिलाया। वह पशोपेश में थी कि विदित यहाँ कैसे? कहीं सेहर ने उसे ही तो फोन नहीं लगाया था? कहीं उस बाजारू औरत का सेठ विदित ही तो नहीं?
''हाँ, मैं अभी बिजी हूँ'' फोन उठाते ही विदित की आवाज उसके कानों में पड़ी, ''थोड़ी देर में करता हूँ। तू पहुँच गई घर?''
''मैं रास्ते में हूँ।'' इरा ने धीरे से कहा।
''ठीक है।'' उसने फोन काट दिया।
आज विदित ने फोन उठाते ही ''हाँ जी'' नहीं कहा, अगर कोई और समय होता तो उसे बहुत अजीब लगता।
वह अपनी कार के पास पहुँची। सबसे पहले उसने कार मुनासिब जगह लगाई फिर डैशबोर्ड से सेहर का फोन उठाया।
ग्यारह मिस कॉल!
उसने नम्बर देखा। नम्बर विदित का था जो ''साड़ी वाला सेठ'' के नाम से उसमें फीड था। इरा ने सेहर के मोबाइल से ही कॉल बैक की। जब कॉल विदित तक पहुँची, वह एमरजेन्सी वार्ड में दाखिल हो रहा था। उसने फौरन फोन का हरा बटन दबाया।
''कहाँ हो तुम?'' वह अधीरता से बोला।
''इरा बोल रही हूँ।''
''कौन?'' वह असमंजस स्वर में बोला।
''इरा, इरा। अपनी पत्नी की आवाज नहीं पहचान रहे।'' इरा भरसक अपने स्वर को शान्त करने का प्रयास कर रही थी।
''तू!! तेरे पास ये फोन कहाँ से आया? और तू है कहाँ? अस्पताल में?'' विदित ने उलझे-सुलझे स्वर में कई प्रश्न पूछ लिए।
''हाँ, मैं अस्पताल में हूँ। आपकी बाजारू औरत को मैं ही यहाँ लेकर आई हूँ। बेचारी बहुत घायल है, दीदार कर लो, सहला लो, कन्सोल कर लो। तुम्हारे इन्तजार में उसकी आँखें पथरा गई हैं।'' इरा जो दिल में आ रहा था बोले जा रही थी, ''आप सामने दिखाई दोगे तो उसके दिल को तसल्ली मिलेगी। आखिर आप डेढ़ करोड़ की आबादी में अकेले जो हो जिसको उसने मुसीबत के समय फोन लगाया। जाओ, पहुँचों उसके पास...।''
''इरा, इरा। मेरी बात सुन। कोई दौरा पड़ गया है? क्या हो गया तुझे?'' विदित लगभग चिल्लाते हुए बोला।
''...उसके दर्द में कमी आएगी, बहता हुआ खून रुक जाएगा। मेरा यार आ गया है। मेरा साड़ी वाला सेठ आ गया है। फिर आप उस मवाली को मारने की कसम खाओगे और आँधी-तूफान की परवाह करे बगैर उसे तलाश करने चल दोगे। जाओ, तुम्हारी सेहर प्रतीक्षा कर रही है। जाओ...जाओ...।'' उसकी रुलाई फूट पड़ी।
''इरा, कहाँ है तू? बता मुझे।''
इरा नहीं सुन रही थी। वह सिर्फ रो रही थी। कुछ पल तक विदित को उसके रोने की आवाज सुनाई देती रही फिर फोन कट गया।
विदित ने कॉल बैक की। घण्टी बजती रही...बजती रही।
विदित सेहर को भूल चुका था। उसे इरा की चिन्ता हो रही थी। इस अजीत के बच्चे ने कैसी मुसीबत खड़ी कर दी थी। वह बारिश में भीगता हुआ इरा की सफेद आल्टो खोजने लगा। जल्दी ही उसने कार ढूँढ ली। इरा ड्राइविंग सीट पर बैठी हुई थी। उसने शीशा खटखटाया। इरा ने सिर उठाया और शीशा नीचे किया।
''इरा, घर चलो।'' विदित बोला।
इरा अब तक शान्त हो चुकी थी। रोेने से जी हल्का हो गया था। वह बिना कुछ कहे बाहर निकली। अब दोनों बारिश में भीग रहे थे।
''जो भी कुछ हुआ है उस बारे में हमें जो भी बात करनी है, घर पर करते हैं। ठीक है?'' विदित बोला।
इरा ने कोई उत्तर नहीं दिया।
''तू घर चल। मैं अपनी गाड़ी लेकर आता हूँ।''
''नहीं जा सकती। उस लड़की का पुलिस केस बन गया है, पुलिस के आने तक रुकना पड़ेगा।'' उसने धीरे से कहा और बारिश से बचने के लिए कम्पाउण्ड की ओर चल दी।
''पुलिस से मैं निपट लूँगा, तू जा।'' विदित भी पीछे लपका।
''पुलिस से मैं निपट लूँगी, आप जाओ।'' कम्पाउण्ड में आने के बाद उसने कहा, ''मैंने कुछ नहीं किया। मैं सिर्फ उसे लेकर आयी हूँ। मुझे पुलिस से बचने की जरूरत नहीं है।''
विदित निरुत्तर हो गया।
''मैं साथ रहूँगा।'' फिर उसने कहा।
''लेकिन मैं नहीं चाहती कि आप मेरे साथ रहें।'' उसने स्प शब्दों में कहा और आगे बढ़ गई।
विदित पशोपेश में वहीं खड़ा रहा और इरा को जाते देखता रहा। कुछ देर में वह नजरों से ओझल हो गई। वह खाली नजरों से अस्पताल की इमारत, उसमें घूमते अस्पतालकर्मी, डॉक्टर और लोगों को देखता रहा।
कुछ बातों का छिपा रहना ही हमारे लिए अच्छा होता है, जो खामोश कहीं दबी रहती है लेकिन उनके सामने आते ही समस्यायें शुरू हो जाती हैं। जो हो रहा था उसकी शुरुआत उसने की थी और अन्त? और अन्त कौन करेगा? या भीतर ही कहीं अटक जाएगा जो एहसास दिलाता रहेगा कि गलतियों का परिणाम भुगतना ही पड़ता है चाहे वह किसी रूप में हो।
इरा सेहर के पास पहुँची। उसके जख्म पर पट्टी बँध चुकी थी और उसे दो-तीन इन्जेक्शन दिये जा चुके थे। उसका चेहरा नुचड़ा हुआ लग रहा था। वह बैड पर करवट लेकर लेटी हुई थी। इरा को देख वह हल्का-सा मुस्कराई।
''अब कैसी तबीयत है?'' इरा ने आत्मीयता से पूछा।
''मैं ठीक है, मेडम। अब बरोबर है बस थोड़ा दुखता है।'' सेहर क्षीण स्वर में बोली।
''लगा है तो दुखेगा भी। तुम जल्दी ही ठीक हो जाओगी।'' इरा ने पर्स खोलकर सेहर का मोबाइल फोन निकाला और उसकी ओर बढ़ाया, ''तुम्हारा सेठ तो अभी आया नहीं।''
''बारिश में... कहीं अटक गया होयेंगा।'' सेहर ने मोबाइल ले लिया और हिचकते हुए कहा।
''सेठ तुमको कितने पैसे देता है?'' इरा ने उसकी आँखों में झाँकते हुए पूछा।
''बोले तो?...क्या?'' सेहर समझ नहीं पाई कि ये अजनबी महिला क्या कहना चाह रही है।
''मैं पूछ रही हूँ तुम्हारा ये वाला सेठ तुम्हें कितने पैसे देता है, एक बार में।'' इरा ने एक-एक शब्द को साफ-साफ और जोर देते हुए कहा।
''तुम्हेरे को मालम मय क्या करती?'' वह हैरानी से बोली।
इरा ने सहमति में सिर हिलाया।
''कायकू पूछती? और अपुन नेई बोले तो?''
''कोई जरूरी नहीं।'' इरा ने दृढ़तापूर्वक कहा, ''मुझे नहीं पता वो सेठ तुमको क्या देता था पण मेरे पास तीन हजार रुपये हैं। सेठ की तरफ से आज की तुम्हारी फीस मैं भरूँगी।'' कहते हुए उसने पर्स खोला और उसमें से पाँच सौ के कुछ नोट सेहर के हाथ में जबरदस्ती ठूँस दिए। सेहर की आँखों में आश्चर्य ठहर गया था।
''आज के बाद वो सेठ तुम्हारे पास नहीं आयेगा।'' इरा बोली, मुड़ी और बाहर की ओर चल पड़ी।
सेहर से कुछ कहते नहीं बना। वह जड़ अवस्था में उस अजनबी महिला को जाते देखती रही