Wednesday, July 7, 2010

फूल

शिवरतन स्वामी

मानव मन न तो संयमी होता है और न ही चंचल। वह मात्र परिस्थितियों के अनुकूल या प्रतिकूल कार्य करता है और उन्हीं के अनुसार ही यश और अपयश का भागी बनता है।  मैं आनन्द बाग, वाराणसी के श्री सारभूत मठ में रहता हूँ। इस मठ के कर्ता-धर्ता मेरे गुरूजी श्री सदानन्द जी स्वामी हैं। मुख्य व्यक्तियों में गुरूजी के अलावा श्री सजीवानन्द जी स्वामी और श्री तेजोमय जी स्वामी हैं। मैं मठ के विभिन्न कार्यों का संचालन व प्रबन्धन करता हूँ।

आज गुरूजी एक विशेष पूजा पर बैठने वाले हैं जो सन्ध्या से आरम्भ होकर भोर तक चलेगी। इस पूजा में अन्य सामग्रियों के अलावा जो विशेष चीज़ चाहिए, वे हैं कमल पुष्प, डंठल सहित अट्ठारह कमल पुष्प, जिनका प्रबन्ध गुरूजी के एक भक्त द्वारा किया गया है जो लखनऊ में रहता हैं। इस पूजा का सारा प्रबन्ध मेरे जिम्मे है। अभी कुछ देर पहले जो बंडल नन्दन पुष्प विक्रेता ने भेजा है, वह मेरे सामने खुला रखा है....

सन्देश प्रेमपूर्ण और काम भावना से ओत प्रोत था। लाल गुलाब के फूलों की कम से कम दो किलो पंखुड़ियों में अच्छी तरह से टेप से बन्द किया हुआ जो लिफाफा मिला था उसके भीतर चिकने और महक भरे कागज़ में जो संदेश लिखा था वह अत्यंत प्रेम से भरा था। तीन बार मैं सन्देश पढ़ चुका हूँ और तीनों बार भीतर तक झनझना गया हूँ। गुरूजी के आध्यात्मिकता भरे प्रवचन, इस मठ की मर्यादा, खुद का आत्मसंयम, अपने आचरण में ढाले गए कठोर नियम, जप-तप, सब इस सन्देश ने छिन्न-भिन्न कर दिये हैं। मुझे लगता था आध्यात्म के अलावा मैं सभी कुछ विस्मृत कर चुका हूँ किन्तु इस पत्र ने मुझे स्मरण करा दिया है कि अन्तत: मैं इस मायावी विश्व का ही हिस्सा हूँ, एक पुरुष हूं। कुर्ते की जेब में तह करके रखे कागज से मेरी उँगलियाँ फिर टकराईं। कागज उँगलियों की पकड़ में आया और बाहर निकल आया। आतुर उँगलियों ने उसे खोला, बेचैन नेत्रों से शब्द टकराये, अस्थिर मस्तिष्क ने उसे पढ़ना आरम्भ किया और तप्त अधरों ने बुदबदाना।

'प्रियतमा  सुनयना ,
जब तुम अपनी इन गुलाब की पंखुरियों से भी कोमल उँगलियों से इस कागज को स्पर्श करोगी  तो मैं समझूंगा कि तुमने मेरे चेहरे पर कोमल स्पर्श  किया है 
 जब स्नान की द्रोणी में पानी के साथ-साथ ये भीगी पंखुड़ियाँ तुम्हारा आलिंगन करेंगी  तो ये समझना कि ये मेरा स्पर्श है । स्नान के बीच जब तुम मदिरा पान कर रही होगी तो उसकी मादकता मैं यहाँ महसूस कर रहा हूँगा। तुम्हें कदाचित ज्ञात नहीं कि मदिरापान से स्त्रियों की सुन्दरता और बढ़ जाती है स्नान के पश्चात जब तुम ताजे गुलाब की तरह खिल चुकी होगी तो उसकी पहली खुशबू यहाँ मुझे महकायेगी। जब तुम खिड़की पर खड़ी मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी तो चंचल हवा का झोंका तुम्हें छूकर तुम्हारे कान में मेरा नाम फुसफुसा जायेगा और जब तुम्हारे रसभरे अधरों पर मेरा नाम आएगा तो उसकी मिठास मेरे अधरों पर आ जायेगी।

प्रतीक्षा लम्बी अवश्य होती है लेकिन उसके अन्त से मिलने वाले परम आनन्द की व्याख्या नहीं की जा सकती। हमारे सम्बन्धों के दो वर्ष पूर्ण होने पर अनेकों शुभकामनाएँ। अपने मन की बेचैनी तुम्हें लिखकर दे रहा हूँ। मैं तुम्हें फोन पर भी यह सब कह सकता था लेकिन मुँह से कहे शब्द हवा में उड़कर बिखर जाते हैं जबकि लिखे हुए शब्द हमेशा कायम रहते हैं, कागज पर तुम्हारे सामने। उन्हें कभी भी  पुरानी एलबम की तरह देखा जा सकता है।

वाराणसी एयरपोर्ट पर पहुँचते ही सम्पर्क करूँगा। वह हमारी प्रतीक्षा का अन्तिम चरण होगा। तुम्हारे साथ-साथ मेरी प्रतीक्षा का भी अन्त होगा।
तुम्हारा
प्रतीक्षारत प्रेमी।


पत्र फिर मेरे कुर्ते की जेब में पहुँच गया। एक प्रेमी प्रेमिका अपने मिलन के लिए आतुर है। मेरी कल्पना का चंचल पुरुष बार-बार सुनयना नाम की स्त्री का चित्र निर्मित कर रहा था, बहुत सुन्दर स्त्री का चित्र लेकिन किसी भी तरह वह चित्र पूर्ण नहीं हो रहा था। जैसे ही पूरा होने लगता, एकदम से बिखर जाता। मैं फिर से उसे बनाने लग जाता, वह फिर बिखर जाता। इस बिखराव से मेरे भीतर भी कुछ बिखर रहा था। गुरूजी द्वारा कहे गए शब्द भी मुझे कोई आश्वासन नहीं दे रहे थे- 'मन की वल्गाओं को ढीला छोड़ना हमेशा अहितकर होता है। उन्हें हमेशा कसकर रखो, बहुत सुख मिलेगा, सुदृढ़ता मिलेगी, जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने में सहायता मिलेगी।'

जीवन का लक्ष्य! क्या है जीवन का लक्ष्य? मठ के कठोर नियमों और दिनचर्या का पालन करते हुए मोक्ष की प्राप्ति की प्रतीक्षा करना? भगवा वस्त्र धारण कर खुद को संसार से काटने का भ्रम बनाये रखना जबकि सारी सांसारिक सुविधाएँ भोगना या फिर संन्यासी कहने या कहलवाने का अभिमान?

आज मेरी आयु पैंतालिस वर्ष है। मैं उन्नीस वर्ष का था जब मैं अस्सी घाट पर भिखारी की भाँति मर रहा था। उस समय मैंने बिल्कुल भी नहीं सोचा था कि मैं संन्यास धारण करूँगा, आध्यात्म का अध्ययन करूँगा। सोचने की स्थिति भी नहीं थी। विकट समस्या पेट भरने की थी, जीवित रहने की इच्छा बनाए रखने की थी। अस्सी घाट की एक घटना ने मुझे अज्ञात और असमय मृत्यु से बचाया। मठ के पूर्व व स्वर्गवासी गुरू श्री अद्वैत्वानन्द जी स्वामी ने नगर के एक व्यापारी के आदमियों से मेरी प्राण रक्षा की जो मुझ पर चोरी का मित्था आरोप लगा मुझे पीट रहे थे। भाग्य से व्यापारी स्वामी जी का भक्त था। मैं बच गया और मठ में शरण पा गया।

मेरे वर्तमान गुरूजी श्री सदानंद जी स्वामी या अन्य स्वामियों के पास कोई शक्ति नहीं है जो मोक्ष प्राप्ति में सहायता करे। परन्तु यह सच है कि मठ के आध्यात्मिक और भक्ति भावना भरे वातावरण में सचमुच यह भ्रम बना रहता है कि हमें मोक्ष मिलेगा, हमारी मृत्यु  उत्कृष्ट होगी।  गुरूजी कहते हैं, 'पेट तो सभी प्राणी अपने-अपने प्रयास से भर लेते हैं परन्तु भक्ति केवल मनुष्य कर सकता है। मनुष्य जीवन अस्थाई है लेकिन वह इस अस्थाई जीवन में पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर सकता है। ईश्वर की कृपा और अपनी इच्छाशक्ति से वह सब कुछ कर सकता है।'

अगर मनुष्य सब कुछ कर सकता है तो वही मनुष्य विचलित भी तो हो सकता है। अपनी मूलभूत इच्छाओं के आगे असहाय हो सकता है। वह अपने भीतर के कमजोर कोनों को उघाड़ सकता है। क्या मुझे ये जीवन भक्ति और साधना करने के लिए मिला है? अपनी भौतिक महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने का दायित्व भी तो मुझ पर ही है। उन्हें तो कोई और नहीं करेगा? कौन जानता है कि हमें फिर कभी मनुष्य जन्म प्राप्त हो या नहीं? गुरूजी गलत कहते हैं कि हमारी मृत्यु उत्कृष्ट होगी। चाणक्य ने कहा है, 'मृत्यु, चाहे वह कितने ही उत्कृष्ट रूप में हो, उस जीवन से बेहतर नहीं हो सकती जो चाहे कितना ही निकृष्ट हो।'

मैं झूठ नहीं बोलूँगा। मठ के जिस कक्ष में जिस आसन पर मैं बैठा हुआ हूँ, वहाँ तो मैं कतई झूठ नहीं बोल सकता। अपनी यौवनावस्था में जिन चीजों को मैंने दबा दिया था, पता ही नहीं चला कि कब वे दबी हुई चीजें धीरे-धीरे एक विस्फोटक पदार्थ में बदलती चली गयीं। वे और बलशाली हो गई हैं और आज इस पत्र ने उसमें पलीते का काम कर दिया। मेरी श्रद्धा, भक्ति और मेरे अब तक किये गए झूठे-सच्चे जप-तप की दीवार धराशायी हो गई। मुझमें फिर से वह मनुष्य जाग उठा है जो सब कुछ करना चाहता है, वे कर्म जिन्हें पापकर्म माना जाता है। मेरा अन्तर मुझसे ही द्वंद्व कर रहा है। क्या इस कागज के टुकड़े का निर्माण मेरे नैतिक पतन के लिए हुआ है?

अगर किसी स्त्री की चाह करना, उसे देखना पापकर्म है तो मैं यह पापकर्म करना चाहता हूँ, मैं सुनयना को देखना चाहता हूँ। हमारे आश्रम में बहुत कम स्त्रियाँ आती हैं। मुझे याद है पिछले बरस एक गोरी आयी थी। माखन में एक चुकती सिंदूर जैसा वर्ण था उसका। वह गुरूजी के कक्ष में बैठी थी और हठयोग के बारे में बात कर रही थी। मठ के कितने ही लोग उसे देखने के लिए किसी न किसी बहाने से गुरूजी के कक्ष के बाहर चक्कर लगा रहे थे। उनमें मैं भी था। उस समय मुझे लगा था कि स्त्री ईश्वर से भी अधिक शक्तिशाली है, ईश्वर से भी अधिक आकर्षित है, ईश्वर से भी अधिक प्रिय है।

मैं फिर अपनी कल्पना में सुनयना नाम की स्त्री को साकार करने का प्रयास कर रहा हूँ, कल्पना साकार नहीं हो पा रही है परंतु इस कल्पना को साक्षात देखने का अवसर मेरे पास अचानक आ गया है। उसके साकार हो जाने के बाद तो कितनी ही कल्पनाएँ की जा सकती हैं। मैंने फोन करके 'नन्दन पुष्प विक्रेता' से सुनयना का पता ले लिया है। वह साकेत नगर में रहती है जहाँ वाराणसी का संभ्रांत और उच्च वर्ग रहता है। उच्च वर्ग की स्त्रियाँ तो फूलों से भी अधिक कोमल होती हैं। हाथ लगाओ तो मैली हो जाती हैं। मैं ये कैसी अषिष्ट भाषा बोल रहा हूँ। मुझे कैसे मालूम कि कोई हाथ लगाने से मैला भी हो जाता है?

पुष्प विक्रेता के कर्मचारी की गलती से कदाचित बंडल बदल गए हैं। कमल पुष्प अवश्य उस स्त्री के पास पहुँच गए होंगे। अब तो उसके घर जाना अति आवश्यक हो गया है। अपने पुष्प भी तो लाने हैं। उसको देखने की इच्छा मेरे भीतर विकराल रूप धारण कर चुकी है। गुरूजी विश्वनाथ मन्दिर में होने वाली एक सभा में गए हुए हैं। इससे अच्छा अवसर कभी नहीं मिलेगा और किसी को कुछ पता भी नहीं चलेगा। हम अपनी कमजोरियों को दूसरों से तो छिपाते ही हैं, खुद अपने से भी छिपाते हैं। हमारी कमजोरियाँ बहुत शक्तिशाली होती है, तभी उन पर हमारा बस नहीं चलता।

गुरूजी कहते हैं, 'हम दुख से आनंद तक पहुँचें, हम अन्धकार से प्रकाश तक पहुँचें, मृत्यु से अमृत तक पहुँचें। इसी संघर्ष का नाम भक्ति है। हमारा सद आचरण ही हमें मोक्ष का द्वार दिखाता है।' परन्तु मुझे तो लगता है ये प्रेमीजन जो जीवन का परमानन्द ले रहे हैं, वही मोक्ष है। हम यहाँ जप तप करके मोक्ष की आशा कर रहे हैं किन्तु असली मोक्ष तो इन लोगों को प्राप्त हो रहा है। अपनी इच्छाओं, अपनी वासनाओं की पूर्ति ही मोक्ष है। जो वर्तमान में जी लिया वही सब कुछ है। मृत्यु के पश्चात कौन जानता है कि उसे क्या मिला? काम ही जीवन की ऊर्जा है बाकी सब मिथ्या है और कामिनी के संग तो काम जागेगा ही। मैं काम की इस ऊर्जा से वंचित हूँ, पूरे पैंतालिस वर्षों से वंचित हूँ। यह काम भी बड़ी विचित्र चीज़ है। दबाने से वह दब नहीं जाता बल्कि और अधिक खतरनाक हो जाता है।

गुरूजी ने एक कथा सुनाई थी, दो युवकों की। दोनों घूमने निकले थे। एक जगह रामकथा हो रही थी। एक ने कहा कि रामकथा सुनते हैं, कहते हैं रामकथा के श्रवण से भवसागर पार हो जाते है, सारे कष्ट दूर हो जाते है तो दूसरे ने कहा, तुम्हारी मर्जी, तुम सुनो। गाँव में वेश्या आई है, मैं तो उसका नृत्य देखने जा रहा हूँ। और दोनों अपने-अपने रास्ते चले गए। नृत्य देखने वाला युवक सोच रहा था कि ये मैं कहाँ आ गया? ऐसी बदशक्ल औरत का घटिया सा नृत्य देखने आ गया और वहाँ रामकथा में कितना आनन्द आ रहा होगा। प्रभु का स्मरण हो रहा होगा। ज्ञान और आनन्द की गंगा बह रही होगी। मैं भी वहीं रुक जाता तो अच्छा रहता। और रामकथा सुनने वाला सोच रहा था कि ये रामकथा भी क्या है, वही तो एक कहानी है-राम, सीता, स्वयंवर, वचन, वनवास, हनुमान, रावण, हरण, युद्ध, आदि। काश! मैं भी अपने मित्र के साथ नृत्य देखने चला जाता, कितना आनन्द आता। पहला युवक जो वेश्यालय में बैठा था बहुत शांत मन से घर लौटा क्योंकि पूरे समय उसके भीतर रामनाम चल रहा था। और दूसरा युवक जो रामकथा में बैठा था बहुत अशांत मन से घर लौटा क्योंकि पूरे समय उसके भीतर वेश्या का स्मरण चल रहा था।

इस कथा का जो भी तात्पर्य रहा हो मगर आज मैं रामकथा वाला युवक बन गया हूँ। मैं उस स्त्री के घर जा तो रहा हूँ लेकिन सोचने की बात है यदि मेरे पास कमल के फूल ही आते तो क्या मैं काम के बारे में सोचता? क्या मेरे भीतर ऐसा बवंडर मचता? जो हो रहा है ईश्वर की मर्जी से हो रहा है। ये ईश्वर की मर्जी है, मैं तो सिर्फ निमित्त मात्र हूँ। जब मैं अस्सी घाट पर मरणासन्न अवस्था में था तो वह भी ईश्वर की मर्जी थी। जब मठ में आया तो वह भी ईश्वर की मर्जी थी और जब मैं पतन के मार्ग पर हूँ तो यह भी ईश्वर की मर्जी है। हम चाहते हैं कि जो हो रहा है वैसा ही होता चला जाये क्योंकि यही वर्तमान है और यही सत्य है। हे प्रभु, मुझसे चाहकर भी नहीं रुका जा रहा है। इस अकिंचन के पग साकेत नगर की ओर बढ़ रहे हैं।

सुनयना उर्फ आभा

गुरूजी,

सादर चरण वन्दना। आपके आदेशानुसार डंठल सहित अट्ठारह कमल के फूल भिजवा दिये हैं, भक्त की सेवा स्वीकार करें। बहुत आग्रह और कठिन प्रयास से प्राप्त हुए हैं ये फूल। मैं जानता हूँ आज की यह विशेष पूजा वास्तव में विशेष है। इस पूजा को करने वाला और इसमें सम्मिलित होने वाला दोनों ही भक्ति और श्रद्धा के संदर्भ में अत्यन्त लाभान्वित होने वाले हैं। पत्र फूलों के साथ भेज रहा हूँ। प्रयास करूँगा कि पूजा में भी सम्मिलित होऊँ क्योंकि मैं इस अवसर को गँवाना नहीं चाहता। जैसा आपने बताया था कि यह अवसर जीवन में दोबारा नहीं मिलेगा क्योंकि ये पूजा पहली और आखिरी बार होनी है, इसमें कोई दोहराव नहीं है। वैसे तो मैं आपके दर्शन से ही अभिभूत हो जाता हूँ। आपके दर्शन से ही मेरी अंतर्यात्रा को सुगमता मिल जाती है और आपके सान्निध्य में मेरा 'मै' मर जाता है। शेष दर्शन होने पर।
आपका भक्त
बलभद्र सिंह


जो पैकेट मुझे मिला, उसमें कमल के अट्ठारह फूल थे और यह पत्र। षिष्टाचार के नाते मुझे यह पत्र खोलना नहीं चाहिए था लेकिन जब आपके नाम ये पैकेट आया है और उसमें ये पत्र मिला है तो न पढ़ने का प्रश्न नहीं उठता। निश्चित रूप से फूल और पत्र मेरे लिए नहीं हैं क्योंकि मेरे लिए तो दूसरे फूल आने थे जैसा कि उन्होंने कल फोन पर कहा था और उनका उपयोग भी दूसरा होना था। कैसी विचित्र बात है, फूल तो फूल ही होते है परन्तु किसी स्थान विशेष में उनकी उपयोगिता बदल जाती है, प्रकृति परिवर्तित हो जाती है। वही गुलाब किसी की सेज भी सजाता है और वही गुलाब हार के रूप में देवी देवताओं के गले की शोभा भी बनता है।

बैरी मोरे नैना, काहे को जगाये सारी-सारी रैना......... फरीदा खानम की गजल म्यूजिक सिस्टम पर बज रही है। उसकी खनकती हुई आवाज में अजीब सी कशिश है जो हमेशा मुझे मदहोश-सा कर देती है परन्तु ये पत्र पढ़ने के बाद अपनी अवस्था को गजल के साथ आत्मसात नहीं कर पा रही हूँ।

मैंने पत्र दोबारा पढ़ा है। इसमें भक्ति का कितना उज्ज्वल रूप प्रदर्शित हो रहा है। कैसे होंगे वे गुरू जिनके सामने जाते ही सारा अहम मर जाता है। उनके सामने तो व्यक्ति बिल्कुल कोरा हो जाता होगा? मैं भावविभोर हो गई हूँ। क्या मैं उन गुरूजी से मिल सकती हूँ? क्या मैं इस पूजा में शामिल हो सकती हूँ? कैसी है ये पूजा जो दोबारा कभी नहीं होगी? इसमें किस देवता की आराधना होगी? विधि क्या होगी?

सारे प्रश्न खुद कर रही हूँ और किसी का भी उत्तर मेरे पास नहीं है। इस पत्र ने मुझे विचलित कर दिया है। मैं क्या थी और अब क्या हो गई हूँ? मैं हमेशा से सिर्फ देह इच्छा तक ही सीमित रही हूँ। एक समय ऐसा भी था जब मेरा ईश्वर में अटूट विश्वास था। लेकिन ईश्वर के प्रति आकर्षण अधिक देर तक नहीं रहा शायद मेरे जीवन में घटनाएँ ऐसी हो गयीं थी जिससे मैं ईश्वर से विमुख हो गई।

मुझे आज भी याद है जब मैं अपने पति और बच्चे के साथ केदारनाथ की यात्रा पर गई थी। केदारनाथ मन्दिर में पहुँचकर चौदह किलोमीटर की पैदल चढ़ाई की मेरी सारी थकान, मेरा संताप उनके दर्शन मात्र से समाप्त हो गया था। उनके दर्शन से ऐसा लगा मानो मुझे सब कुछ मिल गया हो। मैं सचमुच बहुत सौभाग्यशाली थी। मन्दिर के प्रांगण में एक साधू ने मेरे माथे पर भभूत का टीका लगाया तो मैं सचमुच पवित्र हो गई। वहाँ पर मेरे पति के जानकार एक व्यक्ति और उनका परिवार भी मिले थे। उन जानकार ने कहा था, 'इस टीके से आपके चेहरे पर एक पवित्र आभा सिमट आई है।' फिर बाकी यात्रा उन्हीं के परिवार के साथ ही हुई। यात्रा के बाद जब वाराणसी लौटी तो मेरे पास दो चीजे थीं-ईश्वर के प्रति भक्तिभाव से भरा मन और 'एक पवित्र आभा'। उन्होंने मेरा नाम ही आभा रख दिया था। आज मेरे साथ न मेरे पति है और न मेरा बच्चा। दोनों का ढाई वर्ष पहले एक दुर्घटना में देहान्त हो चुका है। मणिकर्णिका घाट पर पति और बच्चे को जलाते समय मैं भी जल जाना चाहती थी या गंगा में डूब जाना चाहती थी और मैंने ऐसा करने की कोशिश भी की थी किन्तु मुझे बचा लिया गया था। ऐसे कठिन समय में, जिन्होंने मुझे आभा नाम दिया था, उन्होंने ही मुझे संभाला था। लेकिन मैं उनके साथ भी नहीं रहती।

मैं यहाँ वाराणसी में अकेली रहती हूँ और कबीर चौरा अस्पताल में एकाउन्ट विभाग में कार्य करती हूँ, वहीं जहाँ मेरे पति काम करते थे। पहले मैं अस्पताल के क्वार्टर में ही रहती थी लेकिन करीब डेढ़ वर्ष से यहाँ साकेत नगर में रह रही हूँ। यह मकान उनका है। वे अब अपनी पत्नी और बच्चों के साथ दिल्ली में रहते हैं। वे मुझे भी दिल्ली ले जाना चाहते थे, अभी भी चाहते हैं लेकिन मैं अपने ही शहर में जीना चाहती हूँ और इसी में मरना। और फिर यहाँ गंगा भी तो है। बेशक, आज गंगा बहुत गन्दी हो गई है किन्तु फिर भी उसका एक अलग ही आकर्षण है, अलग ही गरिमा और अलग ही रहस्य है। मगर मेरा गंगा जैसा रहस्य नहीं है, न ही ऐसी गरिमा और न आकर्षण। मैं तो मात्र भौतिक व्यसनों में लिप्त हूँ। जीवन की विभिन्न विलासिताओं को भोगती हुई मात्र स्त्री देह। महीने में दो बार दशाश्वमेध घाट पर गंगा में स्नान करने से मैं सोचती हूँ जितने भी भोग विलास मैं कर रही हूँ वे सब यहाँ धुलकर बह जाते हैं और मैं पवित्र हो जाती हूँ। इस पवित्र और आध्यात्मिक शहर में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति यही समझता है कि वह शुद्ध है। गंगा उसके बगल में से बह रही है तो वह निष्पाप है। कुछ भ्रम बने रहें तो बहुत अच्छे होते हैं, उनके बने रहने से जीवन सुखद और सुगम हो जाता है।

मैं सुनयना उर्फ आभा, मेरी व्याख्या अगर सच्चाई और कड़वाहट से की जाये तो मैं उनकी रखैल हूँ, अगर खुद को तसल्ली देने के बहाने से कहा जाये तो मेरा अपना भी अस्तित्व है, मैं अपना जीवनयापन खुद कर रही हूँ और अगर सिर्फ दिल से कहा जाये तो मैं उनसे प्रेम करती हूँ, अटूट प्रेम। उन्होंने मुझे मेरी देह से अवगत कराया। मैं तो उसे ढोती हुई जी रही थी। मुझे मालूम ही नहीं था कि अपनी देह से इस तरह से भी पहचान हो सकती है। हमारे शरीर के कितने कोने खुदरे अनछुए होते हैं, मरे हुए होते हैं, हमें पता ही नहीं होता। हम अपने शरीर की खोज खुद नहीं कर सकते। उन हिस्सों को खुद तलाश कर ठीक नहीं कर सकते। कोई दूसरा ही उन हिस्सों की गांठे खोल सकता है, अपने स्पर्श से उन्हें जीवित कर सकता है। ऐसा उन्होंने किया। मैं हमेशा उनकी अहसानमन्द रहूँगी कि उन्होंने मुझे उस सुख से भर दिया जिसे मैं जानती भी नहीं थी, न जान सकती थी।

आज हमारे सम्बन्ध को बने दो वर्ष हो गए हैं। आज वे दिल्ली से हमारी दूसरी वर्षगाँठ मनाने के लिए आ रहे हैं। अपनी विस्तृत कल्पनाओं को मेरे साथ साकार करने के लिए आ रहे हैं। मैं भी सुबह से तैयारी और उनकी प्रतीक्षा कर रही हूँ। उन्होंने कहा था कि वे गुलाब की ढेर सारी पंखुड़ियाँ भिजवायेंगे जिनका क्या-क्या उपयोग करना है, ये भी पहले से ही बता दिया था मगर अब?

अब मेरे सामने कमल के फूल हैं, हल्के गुलाबी कमल के फूल जिन्हें देखकर मन में वासना नहीं श्रद्धा उत्पन्न हो रही है। मेरे भीतर से उनसे मिलन का उत्साह मर रहा है और पूजा में जाने का उत्साह जन्म ले चुका है। भोग विलास का समय बहुत सीमित और छोटा होता है जो फिर लौटकर आ सकता है परन्तु ये अवसर नहीं आयेगा। यह पूजा फिर नहीं दोहराई जायेगी। इसमें तो मुझे सम्मिलित होना ही पड़ेगा। यह अवसर मुझे ईश्वर ने ही प्रदान किया है कि मैं इस बहाने फिर से ईश्वर से जुड़ जाऊँ। कैसी विडम्बना है कि इतनी धार्मिक और आध्यात्मिक नगरी में रहते हुए भी मेरा घर धार्मिक नहीं है। संकटमोचन और काशी विश्वनाथ जैसे पौराणिक मान्यताओं से भरे मन्दिरों के होते हुए भी मेरे घर में मन्दिर नहीं है। आध्यात्म की शिक्षा देने वाले इतने आश्रमों और मठों के होते हुए भी मेरे घर में आध्यात्म का नामोनिशान तक नहीं है। लेकिन, सब कुछ हो सकता है। अभी बिगड़ा ही क्या है? मैं अभी भी सब कुछ कर सकती हूँ।

उनका क्या होगा जो दिल्ली से यहाँ एक उत्सव मनाने के लिए आ रहे हैं? जरूरी नहीं कि वे सिर्फ मेरे लिए ही आ रहे हों, उनका अपना काम भी तो है। वे दिल्ली में एक ट्रैवल एजेन्सी चलाते हैं और विशेषत: विदेशियों को आगरा, वाराणसी और खजुराहो एक पैकेज के तहत भेजते हैं। अगर आज मैं इस पूजा में चली जाऊँ तो क्या वे नाराज हो जायेंगे? कहना कठिन है, हो भी सकते हैं और नहीं भी। अगर हो जाते हैं तो मेरी बला से। मैं अपना सब कुछ खो चुकी हूँ इसलिए अब मुझे किसी चीज़ को खोने से कोई फर्क पड़ेगा और न ही किसी चीज़ को पाने या अपना बनाने से। जैसा चल रहा है मैं उसे वैसा ही स्वीकार कर रही हूँ और आगे भी करती रहूँगी।

मैं इतना जानती हूँ कि कुछ चीजें कभी लौटकर नहीं आतीं जैसे बीता हुआ समय, छूटे चुके लोग, हाथ से निकले अवसर। बाकी चीजों को हम दोहराते रहते हैं-आदतवश, मजबूरीवश या फिर उत्सुकतावश।
मैंने सोच लिया है मैं जाऊँगी इसलिए मैंने 'नन्दन पुष्प विक्रेता' से मालूम कर लिया है ये कमल के फूल कहाँ जाने थे। ये फूल आनन्द बाग के श्री सारभूत मठ में जाने हैं, शायद वहीं ये विशेष पूजा होनी है।

फूल वाला माफी माँग रहा था। कह रहा था कि मेरे वाले फूल मठ में चले गए हैं। वह तो अपना आदमी भेजने भी वाला था लेकिन मैंने मना कर दिया और कह दिया कि मैं उसी ओर जा रही हूँ तो मैं ही दे आऊँगी। चार बज चुके हैं। उनका हवाई जहाज सात बजे वाराणसी पहुँचेगा। अभी मेरे पास काफी समय है। अब मुझे उनके लिए नहीं बल्कि पूजा में जाने की तैयारी करनी है। मैं हल्के पीले रंग वाली साड़ी पहनूँगी और माथे पर भभूत का टीका लगाऊँगी जो वे मेरे लिए दिल्ली के किसी मन्दिर से लाये थे। मैं फिर से पवित्र होना चाहती हूँ। गंगा ने मुझे पवित्र किया है या नहीं मैं नहीं जानती पर भभूत मुझे अवश्य पवित्र करती है, ऐसा मेरा विश्वास है।

साढ़े चार बज चुके हैं। मैं सारभूत मठ जा रही हूँ। अब ये घंटी किसने बजा दी। देखती हूँ...

शिवरतन स्वामी और सुनयना

सुनयना ने मुख्य दरवाजे की मैजिक आई से बाहर झाँका। बाहर उसे एक दाढ़ी वाला व्यक्ति दिखाई दिया। एक अजनबी को देखते ही वह उलझन में पड़ गई कि चलते समय कौन आ गया? अभी वह अनिश्चय की स्थिति में ही थी कि दोबारा घंटी बजी। इस बार घंटी में उसे अधीरता का आभास हुआ।
उसने दरवाजा खोला। बाहर गैरिक कुर्ते और धवल धोती में एक साधू खड़ा था। उसके हाथ में बड़ा सा पैकेट था। उसके कुछ कहने से पहले ही वह बोल पड़ा।

'प्रणाम देवी। मैं शिवरतन स्वामी हूँ और श्री सारभूत मठ से आया हूँ। सुनयना जी हैं क्या?'
'ओह! आप सारभूत मठ से आये हैं। मैं ही सुनयना हूँ।', सुनयना ने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा।

शिवरतन स्वामी ने सुनयना को नये सिरे से देखा। हल्के पीले रंग की साड़ी में सामने खड़ी स्त्री बहुत सुन्दर लग रही थी। 'बिल्कुल अमलतास के फूल जैसी।', उसने मन ही मन सोचा, 'तो यही है जो इन गुलाब की पत्तियों से नहाएगी।'

सुनयना को अजीब सा लगा। साधू की आँखों में उसे लाल डोरे स्पष्ट दिखाई दिये। उसे खतरे का आभास हुआ। वह सजग हो गई।
'दरअसल देवी, आपका सामान गलती से हमारे मठ में आ गया था।', उसने हाथ में पकड़े पैकेट की ओर इशारा करते हुए कहा, 'और हमारा सामान कदाचित आपके यहाँ आ गया है?'
'जी, बिल्कुल ऐसा ही हुआ है। मैं क्षमा चाहती हूँ। वैसे मैं खुद आपके फूल लेकर आपके आश्रम में आ रही थी। आपने क्यों कष्ट किया?'
'कष्ट कैसा? मुझे किसी कार्य से इधर ही आना था तो मैंने सोचा कि क्यों न मैं ही आपसे फूल बदल लूँ। क्या आप स्वयं मठ में पधार रही थीं?', वह पहली बार किसी स्त्री के इतने निकट था जिसे वह आँख भरकर देख रहा था। सुनयना की देह से जो गंध आ रही थी वह उसे मत्त करने के लिए पर्याप्त थी। लेकिन उसके माथे पर लगे सफेद टीके से वह उलझन में था क्योंकि वह टीका स्त्री के व्यक्तित्व से और उसकी अपनी कल्पना से मेल नहीं खा रहा था।

'जी। दरअसल उन कमल के फूलों के साथ एक पत्र भी था जिसमें किसी विशेष पूजा का उल्लेख था। क्या मैं...अरे, कृपया मुझे क्षमा करें। आप भीतर आइये न।'

सुनयना दरवाजे से एक ओर हुई ताकि शिवरतन भीतर आ सके। शिवरतन ने भीतर प्रवेश किया। फूलों का पैकेट उसने सामने मेज पर रख दिया जहाँ वैसा ही एक पैकेट पहले से रखा था। ड्राइंगरूम में आधुनिकता की छाप थी। सभी चीजें कीमती और नये चलन की थीं। वह हतप्रभ सा चारों ओर देख रहा था।
'बैठिये बाबाजी।', उसने सोफे की ओर इशारा करते हुए कहा।
बाबाजी हल्का सा हिचके, फिर बैठ गए।
'क्या लेंगे बाबाजी, चाय या ठंडा?'
'आप कष्ट न करें। औपचारिकता की कोई आवश्यकता नहीं। हमें हमारे पुष्प दे दीजिए ताकि हम चलें, हमें विलम्ब हो रहा है।', बाबाजी ने संयत स्वर में कहा।
'कष्ट कैसा ये तो मेरा सौभाग्य है। कुछ तो आपको लेना ही होगा।', वह विनीत स्वर में बोली।
'अगर आप सचमुच इसे सौभाग्य मानती हैं तो एक प्याली चाय ले लूँगा।' बाबाजी ने विनम्रता से कहा।

सुनयना हल्का सा मुस्कराई और भीतर चली गई। वह हल्की मुस्कान शिवरतन स्वामी के दिल में बैठ गई। उसके भीतर मदहोश करने वाली हिलोरे उठ रही थीं। मन के सारे कोने उसे उस स्त्री पर हमला करने के लिए उकसा रहे थे। उसे लग रहा था उसके भीतर से लम्बे नाखूनों वाले हाथ निकलेंगे और इस सुंदर नारी की देह को नोंच खायेंगे। परन्तु कुछ तो था जिसने उसका रास्ता रोका हुआ था, अड़ा हुआ था। उसकी तीव्र इच्छा हो रही थी कि वह गुसलखाने में जाकर स्नान द्रोणी को देखे और वहां मदिरापान करते हुए उसके पानी में लेटे होने की कल्पना करे। कल्पना के पंखों पर सवार होकर वह और आगे बढ़ा ही था.............

एकाएक उसे गुरूजी का ध्यान हुआ और उनका समाधिस्थ चेहरा याद आया। वह चेहरा याद आते ही शिवरतन स्वामी चिहुँककर उठा। जैसे उसे कोई भूली बात याद आ गई हो, उसने कमल के फूलों वाला पैकेट उठाया और तेजी से घर से बाहर निकल गया। मठ के उस कक्ष में बैठकर स्त्री के प्रति आसक्ति के विचार आना और इस स्त्री के घर में बैठकर गुरूजी का ध्यान आना कोई शुभ लक्षण नहीं थे। उसे लगा, गुरूजी ने उसे बिल्कुल सही समय पर उबार लिया। मठ की ओर जाते हुए वह भूल गया कि वह पत्र अभी भी उसके कुर्ते की जेब में पड़ा था जो उसने वापस फूलों में नहीं रखा था।

चाय का पानी चढ़ाने के बाद वह बाबाजी के लिए पानी लेकर आई तो देखा कमरा खाली था और कमल के फूलों वाला पैकेट भी अपने स्थान पर नहीं था। अचानक बाबाजी क्यों चले गए? क्या उससे कोई गलती हुई? पानी हाथ में लिए खड़ी वह सोचती रही। उसे अफसोस हुआ कि वह बाबाजी से पूजा के विषय में भी नहीं पूछ पाई। 'शायद ये पूजा मेरे लिए नहीं है। पूजा ही क्यों शायद बहुत सी चीजें मेरी किस्मत में नहीं हैं।' उसने सोचा।

थके हुए हाथों से पानी का गिलास मेज पर रख वह भारी कदमों से भीतर आईने के सामने गई और माथे पर लगा सफेद टीका मिटा दिया।