Tuesday, May 24, 2011

दो तस्वीरें दो कहानियां


अवनिका

अरे! हैलो!
कब तक ताकते रहोगे? अब बस भी करो। अधिक मत सोचो, मुझे कहने दो।
यह मेरा ही फोटो है। मैं, अवनिका, उम्र छब्बीस साल, रिहाइश दिल्ली। इस फोटो में मैं जहाँ हूँ वहीं से शुरू करती हूँ-

कुछ चीजों पर किसी का बस नहीं होता, शायद ईश्वर का भी नहीं। वे होने के लिए बनी होती हैं, होना ही उनकी नियति होती है। हम सिर्फ बाध्य होते हैं उसे होते देखते रहने के लिए। मेरे साथ क्या हुआ? यही तो। मेरे वश में कभी भी कुछ नहीं रहा। मेरे साथ जो घटता रहा, मैं मूक उसे देखती रही और आज भी देख रही हूँ। इस सबके पीछे कारण तो कई हो सकते हैं लेकिन सबसे बड़ा कारण है खुद को किस्मत के सहारे छोड़ देना और ठोस विश्वास करना कि यही मेरी किस्मत में लिखा है। किस्मत जैसा कि मैंने पहले कहा 'होना ही उनकी नियति होती है` का दूसरा रूप है।

मैं एक मॉडल हूँ। आज मैं रैम्प मॉडलिंग कर रही हूँ। इस समय मैं बैक स्टेज पर हूँ। हमारी फाइनल रिहर्सल हो रही थी। दो घण्टे बाद शो शुरू होना था। यह फोटो हमारी यूनिट के फोटोग्राफर विलास ने खींचा था।

जब उसने मुझे यह फोटो दिखाया था तो कुछ कहा भी था, 'जब मैंने तुम्हें इस पोज में देखा तो मेरा कैमरा मुझसे भी ज्यादा आतुर था तुम्हारा फोटो लेने के लिए। इसमें तुम्हारी आँखें जो कहना चाह रही हैं उसे तुम्हारा चेहरा कहने नहीं दे रहा क्योंकि उस पर निर्विकारता है। इस फोटो में मुझे जिसने सबसे ज्यादा एक्साइटेड किया वह है तुम्हारी मुड़ी हुई गर्दन का खम और पर्ल इयररिंग जो उस समय हौले-हौले हिल रहा था।`

मैं देख कुछ रही हूँ, सुन कुछ रही हूँ और सोच कुछ रही हूँ।
मैं देख रही हूँ सिक्योरिटी गार्ड मेरे पति को बाहर ले जा रहे थे जिसने यहाँ आकर हंगामा कर दिया था। उसने यहाँ चीखते-चिल्लाते हुए कहा था, 'ये औरत जो दुल्हन के लिबास में फुदकती फिर रही है लेकिन जिसे दुल्हन के मायने नहीं पता हैं, मेरी पत्नी है, कानूनन पत्नी जिस पर मेरा पूरा-पूरा हक है और मैं इसे अपने साथ ले जाने आया हूँ।`

और उसने मुझे तुरन्त चलने के लिए कहा था। यह जानते हुए कहा था कि हम पिछले दो सालों से साथ नहीं रह रहे हैं, यह जानते हुए कहा था कि उसने शादी से पहले भी और शादी के बाद मेरी जिन्दगी नर्क बना दी थी, यह जानते हुए कहा था कि मैं उसके साथ बिल्कुल नहीं रहना चाहती, यह जानते हुए कहा था कि वह मेरे घरवालों को धमकाता है कि वह मुझे मार डालेगा और मुझे धमकाता है कि वह मेरे घरवालों का अहित कर देगा।
उसके चिल्लाने से हमारे आसपास यूनिट के लोग जमा हो गये थे और सिक्योरिटी वाले भी किसी भी एक्शन के लिए तैयार खड़े थे। मेरा अच्छा खासा ड्रामा बन रहा था।
'चल, सोच क्या रही है? ये लिबास बदल। जल्दी कर।`, उसने बेशर्मी से कहा था।
'देखो, मुझे बहुत मुश्किल से काम मिला है, मुझे करने दो। प्लीज लीव मी अलोन............`
'अलोन छोड़कर ही तो तेरी ये हालत हो गयी है। अब मेरे साथ रह, तू बिल्कुल ठीक हो जायेगी।`,
उसने कुटिलता से कहा था।

जो मैंने कहा, इसके अलावा भी मैं उससे बहुत कुछ कहना चाह रही थी मगर मुझसे इतना ही कहा गया। मेरा पूरा शरीर पसीने से गीला हो गया था, मेरा गला सूख गया था, दिल बैठ गया था। बहुत ही अजीब सी स्थिति हो रही थी जो मेरे नियन्त्रण से बाहर थी। आज ही क्या स्थिति तो मेरी हमेशा से नियन्त्रण से बाहर थीं। पर जल्द ही स्थिति संभल गयी। हमारे फ्लोर मैनेजर मेरे लिए श्रीकृष्ण बन कर आ गये। उनके पूछने पर मैंने सिर्फ इतना कहा, 'आई डोन्ट वान्ट टू सी दिस मैन हेयर।`
उसके बाद यही वो क्षण था जिसे विलास ने क्लिक किया।

कोई भी व्यक्ति विवाह क्यों करता है? अपने जीवन को नये सिरे से आरम्भ करने के लिए, उसे व्यवस्थित करने के लिए, अपने साथी के साथ चलने के लिए, उसके सुख दुख को अपना सुख दुख बनाने के लिए, किसी का जीवन भर साथ निभाने के लिए। मगर सभी के लिए और सभी के साथ ऐसा नहीं होता। मेरे विवाह की तो नींव ही समझौते और शर्तों पर रखी गयी थी। वास्तव में, मैं श्रीनिवास से विवाह ही नहीं करना चाहती थी। उससे मेरी दोस्ती तो हो गयी थी लेकिन विवाह.....उसके बारे में तो बिल्कुल भी नहीं सोचा था और यह मैंने उसे बता भी दिया था मगर उसने धमकी दी थी कि वह पहले मुझे नहीं मेरी छोटी बहन की जिन्दगी बरबाद करेगा ताकि मुझे
हमेशा एहसास होता रहे कि इसका जिम्मेदार कौन है। मैं उसकी धमकी में नहीं आई थी लेकिन एक दिन किसी ने मेरी बहन पर हमला कर दिया। कॉलेज से घर आते हुए रास्ते में एक मोटरसाइकिल वाले ने उसे रोका और उसका नाम लेकर पूछा और उसके 'हाँ क्यों` कहते ही उसने उसे मोटर साइकिल से टक्कर मार दी जिससे उसे चोटें आई।

इस घटना से वह बुरी तरह डर गयी और उसके डरने से मैं भी। मेरी किसी से कहने या बताने की हिम्मत नहीं हुई कि इस हमले के पीछे श्रीनिवास हो सकता है। इसके बाद भी उसने मुझे कई बार मानसिक रूप से प्रताड़ित किया और अन्तत: मैंने हथियार डाल दिये। सोचा था कि यह उसका जुनून है जो शादी के बाद और करीब आने से प्यार में बदल जायेगा लेकिन नहीं, वह प्यार तो कभी था ही नहीं, वह तो सिर्फ वहशत भरा जुनून था बल्कि किसी चीज को पाने की एक नाजायज हठ थी, उसका अधिकार, उसका हक था।

मैंने उसके लिए हर किसी का विरोध सहा लेकिन मैंने जो सहा उसे कोई नहीं जान पाया। मैं उसके साथ तीन महीने रही और इन तीन महीनों में मैं तीन सौ बार मर गयी। और अपने मरने की मैंने कहीं भी शिकायत नहीं की, न अपने घरवालों को, न उसके, न पुलिस में और न किसी और को। सब कुछ अकेले ही भोगती रही। भोगना भी मुझे ही था क्योंकि धमकी या समझौता ही सही, निर्णय तो मेरा ही था।

उससे अलग होने के बाद मैं दिल्ली आ गई, अपने जीवन को नई दिशा देने के लिए। शुरू में, बतौर मॉडल पैर जमाने के जब मैंने प्रयास किये थे तो श्रीनिवास मेरे जीवन में आ गया था जिससे मेरा कैरियर, मेरा सुकून सब तहस-नहस हो गया था। मैंने फिर वहीं से आरम्भ किया जहाँ से मैंने छोड़ दिया था लेकिन दिल्ली जैसे शहर में ये इतना आसान नहीं था। फिर भी संघर्ष चलता रहा।

इस बीच श्रीनिवास ने कहीं से मेरा मोबाइल नम्बर हासिल कर लिया। लेकिन उसने मुझे धमकी नहीं दी। वह सिर्फ एसएमएस भेजने लगा - प्रेम भरे, समझाने वाले। मैं समझ गयी थी कि वह जानबूझ कर ऐसा कर रहा है ताकि मैं कहीं उसकी शिकायत न करूँ। जब मैंने उसे फोन करके मैसेज बन्द करने के लिए कहा तो उसने मुझे धमकाया कि वह मुझे जीने नहीं देगा। क्या कहा था उसने?

'मेरे प्यार से भरे ये मैसेज तुझे हमेशा कचोटते रहेंगे, डिलीट करने के बाद भी। इनसे यहीं समझा जायेगा कि तेरा पति तुझे दीवानावार चाहता है और अगर कोई कमी है तो तुझमें है, मुझमें नहीं। तू चाहकर भी किसी को शिकायत नहीं कर पायेगी। तुझे ऐसे ही प्रेम में डुबो-डुबोकर मारूँगा, तेरे मन में मेरे प्रति भरी नफरत के साथ जीने नहीं दूँगा।`
और आज तो हद ही हो गयी। मानो वह इसी मौके की ताक में था।
मैं देख कुछ रही हूँ, सुन कुछ रही हूँ और सोच कुछ रही हूँ।

मैं सुन रही हूँ, रैम्प के दूसरी ओर बॉस फ्लोर मैनेजर को डाँटते हुए कह रहा था, 'कैसी लड़की अरेंज की है, तुम्हें कोई और नहीं मिली? ये लफड़े वाला सामान मुझे नहीं चाहिए। अगर वो आदमी बाद में आता तो सारे शो की माँ बहन एक हो जाती। और इसकी परफारमेंस भी ठीक नहीं है। देखो जरा, ब्राइडलवियर में उसके चेहरे का फ्यूज उड़ा हुआ हैं। कोई खुशी ही नहीं है। ब्राइड तो शीशे की तरह दमदमाती है। और हाँ, सिक्योरिटी को बोल दिया है न कि वो आदमी आसपास भी न दिखाई दे, मैं शो में कोई बखेड़ा नहीं चाहता। और एक बात और इस शो के बाद इस लड़की को भी चलता करना। एक सेकेण्ड भी नहीं देखना चाहूँगा इसे मैं।`

'सब हो जायेगा, सर। डोन्ट वरी, सर। अभी देखना सर कैसी दमदमाती है।`, फ्लोर मैनेजर आश्वासन दे रहा था।
मैं देख कुछ रही हूँ, सुन कुछ रही हूँ और सोच कुछ रही हूँ।
मैं सोच रही हूँ, विवाह के अवसर पर हमारे धर्म में क्या हम सफेद कपड़े पहनने की कल्पना भी कर सकते हैं? नहीं न। लेकिन इस समय मैं ब्राइडलवियर में हूँ, विदेशी ब्राइडलवियर में, झक सफेद परिधान, जो हमारे यहाँ शोक का प्रतीक है। हिन्दू धर्म में सफेद परिधान को मृत्युशोक पर पहना जाता है। इस परिधान में मैं खुश कैसे हो सकती हूँ? जैसा कि बॉस ने कहा, दमदमा कैसे सकती हूँ? अभी जो मेरे साथ हुआ, उस परिस्थिति में मैं कैसे प्रसन्न हो सकती हूँ?

खैर! जब हमारे साथ और चीजें जुड़ने लगती हैं तो हमारा व्यवहार भी उनके अनुसार बदलता रहता है। मेरे फ्लोर मैनेजर ने बॉस को जो आश्वासन दिया है उसे पूरा करने की सबसे अहम जिम्मेदारी तो मेरी है। इसी बहाने खुश हो लिया जाये क्योंकि मुझे काम करना है, पैसे कमाने है, अपना पेट पालना है।

इस श्रीनिवास नाम के जानवर के साथ बाद में निपटूँगी। सिर्फ किस्मत के सहारे नहीं, अपने आत्मबल के साथ उससे निपटना होगा और बिना देर किये निपटना होगा। अब मुझे इसके लिए भी तैयार रहना है।

जिनके मकान में मैं किराये का कमरा लेकर रहती हूँ, उनके बड़े भाई कभी थियेटर में काम करते थे। एक अरसा हो गया उन्हें थियेटर छोडे हुए लेकिन अक्सर वे नाटकों के डायलॉग बोलते सुनाई देते हैं। उनका एक डायलॉग मुझे बहुत अच्छा लगता है जो अक्सर मुझे उनके कमरे से सुनाई पड़ जाता है और मुझे याद भी हो गया है। मुझे ऐसा महसूस होता है कि ये डायलॉग मेरे लिए ही है - 'ओ काली रात! आ, और दयनीय अवस्था में तड़पते इस दिन की आँखें बन्द कर ले। अपने काले, उस खून से सने हुए हाथों से, मेरी सारी चिन्ता और दुख को मसलकर चूर कर दे।`
लो, सीटी बज गयी। चलती हूँ, मेरा शो आरम्भ होने वाला है।

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रौनक लाल

ये तस्वीर किसने खींच ली, मुझे मालूम ही नहीं हुआ। लेकिन तस्वीर में मैं आश्चर्य से अपने चेहरे पर हाथ रखे एक नुक्कड़ नाटक देख रहा हूँ। समाज में फैली कुरीतियों और अंधविश्वासों को व्यंग्यपूर्ण ढंग से नाटक के माध्यम से दिखाना ही नुक्कड़ नाटक का उद्देश्य होता है। कॉलेज के लड़के लड़कियाँ कर रहे है ये नाटक। कितना जोश है इन बच्चों में मगर क्या इनमें ये जोश अन्त तक रहेगा?

हाँ, मुझे नाटकों से प्रेम है, बहुत प्रेम है पर उम्र बढ़ने के साथ-साथ बहुत सी चीजों की तरह प्रेम भी मरने लगता है। एक समय ऐसा था कि मैंने इसके लिए सब कुछ छोड़ दिया था मगर सब कुछ छोड़ने पर भी मुझे कुछ नहीं मिला। 'कुछ भी हो, एक दिन वह नियत समय अवश्य आयेगा। उस बीच में जो भी कठिन से कठिन दिन हैं वे भी किसी तरह निकल ही जायेंगे।` , मैकबेथ के इस संवाद ने मुझे कभी भी तसल्ली नहीं दी।

ये मेरे आज की तस्वीर है। मेरी तस्वीर, रौनक लाल की और मेरे निष्ठुर वर्तमान की। अतीत के मोह से जकड़ा हुआ मैं आज इस वर्तमान तक पहुँचा हूँ। पराजित। और भविष्य का कुछ पता नहीं। हमारे चेहरे पर क्या उम्र के ही निशान पड़ते हैं? हमारी अतृप्त इच्छाएँ, हमारे अभाव, अवसाद और गहरे दुखों की काली छायाओं के चिन्ह भी होते हैं जो चुपचाप हमारे चेहरे पर घर बनाकर बैठ जाते हैं और हमें पता भी नहीं चलता।

तकरीबन तीस साल हो गये जब मुझे ये शौक लगा। तब तेरह-चौदह की उम्र थी मेरी। मैं मण्डी हाउस की एक चाय की दुकान पर काम करता था। मण्डी हाउस का हर कलाकार उस चाय की दुकान पर चाय पीने आता था। वे कलाकार चाय पीते-पीते एक्टिंग करते, अपने संवाद बोलते, नाटकों की बात करते। हर किसी का यही सपना था कि उसे सबसे बेहतरीन रोल मिले, पहचान मिले, यश मिले। छोटे बड़े सभी थियटर ग्रुपों का यही हाल था, श्रीराम सेन्टर के कलाकारों का, रिपर्टरी कम्पनी के कलाकारों का, सभी एक ही उम्मीद पर जी रहे थे। अपनी दुकान पर, मण्डी हाउस के गोल चक्कर पर, श्रीराम सेन्टर के सामने फुटपाथ पर, जहाँ-जहाँ भी मैं चाय देने जाता था मैं बड़े ध्यान से उनकी बातें सुनता, उनके संवाद सुनता और चुपचाप उन्हें याद भी कर लेता। शायद ये ईश्वर की देन थी कि मेरी याददाश्त बहुत तेज थी। जो कुछ भी मैं सुनता वह मेरे मस्तिष्क के किसी कोने में कब्जा करके बैठ जाता। कितने तो नाटकों के नाम मुझे मालूम हुए थे और कितने ही नाटक ग्रुप। हर ग्रुप वाला दूसरे से बेहतर करने के लिए पागल रहता था। और ये नाट्य विद्यालय वाले तो किसी को कुछ समझते ही नहीं थे। क्या जमाना था वो भी। बहुत हिम्मत, बहुत समर्पण, बहुत जोश था कलाकारों में, हार ना मानने का जज्बा।

मुझे आज भी बहुत कुछ याद है, कितने ही संवाद, जिन्हें मैं आज भी अपने कमरे में दोहराता हूँ मानों रिहर्सल कर रहा हूँ। मेरा छोटा भाई, उसका परिवार, हमारी किरायेदार लड़की और पड़ोसी मुझे पागल समझते हैं। सच भी है, ये। मैं बरसों पहले ही पागल हो गया था। उसका नाम...। नाम नहीं लूंगा। नाम लूंगा तो वह आज भी बदनाम हो जायेगी। मुझे नहीं पता आज वह कहाँ है? मैंने तो उस दिन के बाद से उसकी सूरत ही नहीं देखी। और वैसे भी लड़कियों में नाटक के लिए जुनून विवाह होने तक ही होता है। उसके बाद तो वे आज्ञाकारी पत्नी और बहू के रोल में आ जाती हैं। ससुराल ही उनका रंगमंच होता है। वो भी ऐसे ही किसी रंगमंच पर होगी।

मेरा जो भी अनुभव है, ज्ञान है, नाटकों, उनके पात्रों और रंगमंचीय कल्पना का, वह मण्डी हाउस में
मेरे चाय की दुकान पर काम करने के समय का ही है और उसके बाद मैंने अपने जुनून से अर्जित किया है।

जब मैंने नाटकों के लिए काम छोड़ा तो मुझे इतना पैसा भी नहीं मिला जो मुझे चाय की दुकान पर काम करके मिल जाता था। बदले में काम मुझसे बहुत ले लिया जाता था, सामान उठाना, सबके कपड़े स्त्री करना, रंग सज्जा में मदद करना, पानी पिलाना और भी न जाने क्या क्या। इतना करने के बावजूद भी मेरे अतीत से जुड़ा हुआ 'चाय वाला छोटू` नहीं मिटा था। वहाँ भी बहुत बड़ा वर्ग संघर्ष था। फिर भी मैं सन्तुष्ट था कि मैं रंगमंच के लिए समर्पित हूँ, उसमें कुछ योगदान कर रहा हूँ। मुझे कुछ संक्षिप्त से रोल भी मिले मगर मेरी भूख तो बड़ी थी, गहरी थी।

मैं अन्धा युग का कृष्ण बनना चाहता था - 'अट्ठारह दिनों के इस भीषण संग्राम में/कोई नहीं केवल मैं ही मरा हूँ करोड़ों बार/जितनी बार जो भी सैनिक भूमिशायी हुआ/कोई नहीं था/मैं ही था/गिरता जो घायल होकर रणभूमि में।/अश्वथामा के अंगों से/रक्त पीप स्वेद बन कर बहूँगा/मैं ही युग युगांतर तक/जीवन हूँ मैं/तो मृत्यु भी मैं हूँ मां/शाप यह तुम्हारा स्वीकार है।`
कोर्ट मार्शल का बिकाश राय बनना चाहता था - 'सवाल ये नहीं कि रामचन्द्र को फाँसी होगी या नहीं, सवाल ये है कि पहले कौन मरेगा?`

पंक्षी ऐसे आते हैं का अरुण बनना चाहता था - बगैर किसी लगाव के बस घूमते जाना। पीछे छूट गये पथ से अपने को तोड़ते जाना, आगे चलना और आगे देखना। जहाँ पहुँच गये वहाँ सब कुछ अपना। जहाँ से चल पड़े वहाँ का सब कुछ दूसरे ही क्षण में औरों का। जीने का आसान सा नियम। न कोई मोह न उससे महसूस होने वाली कोई तकलीफ।

मैकबेथ का मैकबेथ बनना चाहता था - 'ओह! अब क्या हूँ मैं? एक तंग रास्ते में भिंच जाने वाला
दयनीय प्राणी, जिसका हृदय भय और श्ंका से हर पल बेचैन है!!`

और कालिगुला का कालिगुला बनना चाहता था - 'तर्क कालिगुला। देखो तर्क कहाँ ले जाता है। शक्ति अपनी सर्वोच्च सीमा तक, इच्छाशक्ति अपने अनन्त छोर तक। शक्ति तब तक सम्पूर्ण नहीं होती जब तक अपनी काली नियति के सामने आत्मसमर्पण न किया जाये। नहीं अब वापसी नहीं हो सकती मुझे आगे बढ़ते ही जाना है।`

...लेकिन मैं कुछ भी न बन सका। मगर हाँ, मैं पढ़ने बहुत लग गया था। वैसे मैं अधिक पढ़ा लिखा नहीं हूँ। चौथी कक्षा तक ही मैंने पढ़ाई की थी मगर हिन्दी नाटकों और कहानियों की पुस्तकें पढ़-पढ़कर मैंने बहुत कुछ सीखा। मेरे आचरण में बहुत बदलाव आया। मैं इंसान बन गया।

मेरा आखिरी नाटक 'आषाढ़ का एक दिन` था और ग्रुप भी। उसके बाद सब छूट गया। ग्रुप में जो
हो रहा था वह तो था ही, साथ ही घर का भी बहुत दबाव पड़ रहा था कि मैं किसी काम धन्धे से लगूं ताकि घर में सहारा लग सके। उनकी नजर में नाटक नौटंकी कोई काम थोड़े ही था। नहीं, मैंने खुद नहीं छोड़ा था। मुझे निकाला गया था। मैंने उसके साथ अशिष्टता जो की थी।

वह ग्रुप में दूसरे नम्बर पर थी और इस नाटक में वह नायिका का रोल कर रही थी, मल्लिका का। जब उसने कह दिया था कि इस ग्रुप में या तो मैं रहूँगा या वो तो सभी एक मत से मुझे निकालने में सहमत थे क्योंकि मेरे रहने न रहने से उनका कोई नफा नुकसान नहीं था। वह मंचन से दो रात पहले की बात थी। मुझे आज भी वो रात याद है, बारह मई उन्नीस सौ अट्ठासी।

नाटक का पात्र विलोम कह रहा था, 'विलोम क्या है? एक असफल कालिदास। और कालिदास? एक
सफल विलोम। हम कहीं एक दूसरे के बहुत निकट पड़ते हैं।`
कालिदास कह रहा था, 'जानती हो, इस तरह भीगना भी जीवन की एक मह ्रवकांक्षा हो सकती है? वर्षों के बाद भीगा हूँ। अभी सूखना नहीं चाहता।`
मल्लिका कह रही थी, 'मैंने भावना में एक भावना का वरण किया है। मेरे लिए वह सम्बन्ध और सब सम्बन्धों से बड़ा है। मैं वास्तव में अपनी भावना से प्रेम करती हूँ जो पवित्र है, कोमल है, अनश्वर है।`

अम्बिका कह रही थी, 'किसी सम्बन्ध से बचने के लिए अभाव जितना बड़ा कारण होता है, अभाव की पूर्ति उससे बड़ा कारण बन जाती है।`
प्रियंगुमंजरी कह रही थी, 'इस सौन्दर्य के सामने जीवन की सब सुविधाएँ हेय हैं। इसे आँखों में
व्याप्त करने के लिए जीवन भर का समय भी पर्याप्त नहीं।`
मैं निक्षेप का रोल कर रहा था, 'योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। श्ो पूर्ति
प्रतिष्ठा द्वारा होती है।`

फिर बाद में अनुस्वार का रोल दिया गया और अन्तिम दिन नाटक से ही निकाल दिया गया।

मैं नाटक से निकल तो गया मगर ये नाटक मुझमें से नहीं निकला। मैंने आषाढ़ का एक दिन पूरा याद किया और हर पात्र का रोल मैंने ही अदा किया। आज भी यह नाटक मुझे याद है, एक-एक वाक्य, एक-एक संवाद, सब कुछ। विलोम का व्यंग्य, मलिल्का का प्रेम, अम्बिका की असमर्थता भरी पीड़ा, प्रियंगुमंजरी का अहंकार और कालिदास की विवशता। सब कुछ मेरी नसों में दौड़ रहा है। आज भी इस नाटक को मुझे मंचित करने का अवसर दिया जाये तो मैं अकेला ही पूरा नाटक खेल सकता हूँ।

मैंने ऐसा क्या कह दिया था? मैंने तो उसके प्रेमी अक्षत के शब्दों को दोहराया भर था जो उसे पसन्द नहीं आये थे। शब्द वही थे, सही थे पर मु ँह दूसरा था। वह मल्लिका का रोल कर रही थी, हेमन्त कालिदास का और अक्षत विलोम का। ग्रुप में सभी को मालूम था वह और अक्षत एक दूसरे को चाहते है और जल्द ही विवाह के बन्धन में भी बँधने वाले थे। दोनों चाहते थे कि कालिदास का रोल अक्षत को मिलता मगर हमारे निर्देशक शर्मा ने उसे कालिदास का रोल नहीं दिया था क्योंकि उनके अनुसार अक्षत कालिदास के साथ न्याय नहीं कर पायेगा। मैंने रिहर्सल में ही देखा था। हेमन्त ने कालिदास की व्यथा को जीवन्त कर दिया था, 'जो कुछ लिखा है वह यहाँ के जीवन का ही संचय था। 'कुमारसम्भव` की पृष्ठभूमि यह हिमालय है और तपस्विनी उमा तुम हो। 'मेघदूत` के यक्ष की पीड़ा मेरी ही पीड़ा है और विरह-विमर्दिता यक्षिणी तुम हो यद्यपि मैंने स्वयं यहाँ होने और तुम्हें नगर में देखने की कल्पना की। 'अभिज्ञान शाकुन्तल` में शकुन्तला के रूप मे तुम्हीं मेरे सामने थीं। मैंने जब-जब लिखने का प्रयत्न किया तुम्हारे और अपने जीवन के इतिहास को फिर-फिर दोहराया।`

उस दोपहर आखिरी रिहर्सल थी, पूरी होते-होते शाम हो गयी थी। धीरे-धीरे सभी लोग चले गये थे। मैं और किशोर सामान समेटने के लिए रह गये थे। किशोर थोड़ी देर के लिए बाहर गया था। मैं वहाँ अकेला था लेकिन मुझे नहीं पता था कि वह और अक्षत अभी वहीं है। गलियारे के अन्तिम सिरे के छोटे कमरे से कुछ आवाजें सुनाई दे रही थीं। मैं दबे पाँव वहाँ पहुँचा और आवाजें स्पष्ट हुईं तो मालूम हुआ।

मेरे कानों में अक्षत की आवाज सुनाई दी, 'देवी मल्लिका, यह अकिंचन विलोम अपनी जिह्वा से आपकी देहयात्रा करना चाहता है, कृपया अनुमति दें।`

मल्लिका का खिलखिलाता और शरारती स्वर, 'आर्य विलोम, आपकी भाषा अशिष्ट हो रही है। आप शिष्टाचार की सीमा लाँघ रहे है। अनुचित इच्छाओं का मोह त्याग दें आर्य।`

'इस इच्छापूर्ति के पश्चात् विलोम सारे मोह त्याग देगा।`, विलोम का स्वर भी शरारती हो गया।
'आपकी इच्छापूर्ति के लिए मुझे अनावृत्त होना पड़ेगा।`
'संकोच न करें देवी। प्रत्येक देह का अपना आकर्षण होता है।`

अभी तक जो सुना उससे मैं घबरा गया। मेरा गला सूख गया और दिल जोर-जोर से सीने पर हथौड़े मार रहा था। कमरे का दरवाजा बन्द था। उस स्थिति के हिसाब से मैं जो कर सकता था मैंने किया।

'किशोर? किशोर? अरे, कहाँ मर गया?`, मैं दरवाजे के सामने पहुँचकर चिल्लाया।

उस समय के उनके चेहरे तो मैं नहीं देख पाया था क्योंकि बाहर आने पर उनके चेहरे सामान्य थे। आखिर स्टेज आर्टिस्ट थे, फौरन भाव पलट गये। दोनों सहज भाव से निकलकर चले गये।

और अगले दिन मैंने उसे अकेले में अक्षत का संवाद नाटकीय ढंग से सुना दिया, 'देवी मल्लिका, इस इच्छापूर्ति के पश्चात् विलोम सारे मोह त्याग देगा।`

इस छोटी सी गलती का बहुत बड़ा दुष्परिणाम हुआ। कई मिथ्या आरोपों के साथ मुझे निकाल दिया गया।

मुझे 'अन्तिम अरण्य` में निर्मल वर्मा की लिखी कुछ पंक्तियाँ याद आ गयी- 'क्या आदमी खुद अपने बीते के बारे में तय कर सकता है, वह क्या था? अब क्या है? जैसे हम बचपन में किवाड़ पर पेंसिल का निशान लगाकर अपनी लम्बाई नापते थे...एक दिन जब हम सचमुच बड़े हो जाते हैं तो सूखे काठ पर छुटपन के वे निशान कितने बेमानी जान पड़ते हैं।`

पुरानी बातें याद करना सचमुच बेमानी है.............।
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प्रस्तुत दोनों रचनाएँ काल्पनिक है। इनका तस्वीरों से या किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है।