Tuesday, April 28, 2015

और नैना बहते रहे......


     कहाँ से शुरू करूँ?
     ली मैरिडियन के कमरा नम्बर नौ सौ सात से, जहाँ मैं अभी हूँ और अनिरुद्ध की प्रतीक्षा कर रही हूँ। या परसों हुई उस मुलाकात से, जब मैं और अनिरुद्ध चौदह साल बाद मिले थे, बिल्कुल अचानक, अनपेक्षित। या अपने मन में पनप चुके प्यार के एहसास को अनिरुद्ध को बताने से, जब उसकी कोई आवश्यकता ही नहीं थी क्योंकि मेरी शादी होने में कुछ दिन ही बाकी थे। या पुरानी मोहब्बत की कहानी, जिसने एकदम से ही मेरे भीतर नये सिरे से सिर उठा लिया था। ...सोच रही हूँ वर्तमान से ही शुरू करती हूँ, उसमें अतीत अपने आप आ जायेगा, दिन बीत जाने के बाद रात की तरह।
     पाँच सितारा होटल का कमरा अपने ऐश्वर्य से मुझे चिढ़ा रहा था। सच तो ये था कि मैंने पहली बार ऐसा कमरा देखा था। मैं सिर्फ और सिर्फ चकित थी। सुख की, वैभव की ऐसी परिभाषा भी होती है? मैंने तो अपने जीवन में धर्मशालाएँ और गेस्ट हाउस ही देखे हैं। पाँच सितारा होटल तो बिल्कुल अलग अनुभव है। जब अनिरुद्ध ने फोन पर मुझे कहा था कि उसने पहले वाला होटल छोड़कर ली मैरिडियन में कमरा बुक कर लिया है और मैं अपने समयानुसार इस कमरे में पहुँचू तो मैं घबरा गई थी कि मैं अकेले कैसे जाऊँगी? हालाँकि उसने ये होटल भी मेरी सहूलियत के लिए ही बदला था ताकि मुझे उससे मिलने के लिए बहुत दूर न जाना पड़े। मैंने उसे कहा था कि मैं उसका बाहर ही इन्तजार कर लूँगी लेकिन उसने बताया था कि उसे देर हो जायेगी और जिस काम में वह फँसा होगा उसे वह हरगिज नहीं छोड़ सकता। इसमें उसकी गलती नहीं थी बल्कि मैंने ही अपनी सुविधानुसार उससे मिलने का समय चुना था। क्या मजबूरी है न? मेरा समय सुबह दस बजे से दो बजे तक का था। एक विवाहित घरेलू स्त्री का समय जब वह अपने पति और बच्चों से मुक्त होती है।
‘क्या हम...अकेले में कुछ समय बिता सकते हैं?’, मैंने हिचकते हुए अपनी डोर अनिरुद्ध के हवाले कर दी थी। यह परसों की बात थी। जब मैं और अनिरुद्ध करोल बाग मार्किट में अचानक ही मिल गये थे। वह अकेला नहीं था। मुझे देखकर उसे शॉक सा लगा था। वह मुझसे बात करना चाहता था इसलिए उसने अपने साथ मौजूद व्यक्ति से माफी माँग ली थी। वह मुझे मैकडॉनोल्ड ले गया था। मेरी दयनीयता देख कर उसे दुख हुआ था और सबसे अधिक दुख उसे मेरे टूटे हुए दाँत की खाली जगह देखकर हुआ था जिसकी वजह से मैं तनिक बदसूरत लग रही थी। कुछ साल पहले मेरा बायीं ओर का निचला दाँत टूट गया था।
     मैं उससे कितनी बातें करना चाहती थी, कितना कुछ कहना-सुनना चाहती थी लेकिन मैं सिर्फ यही कह सकी, ‘क्या हम...अकेले में कुछ समय बिता सकते हैं?’ यह मैंने अचानक ही, बिना सोचे समझे कह दिया था।
     पिछले दो दिनों से मैं ढँग से सो भी नहीं पाई थी। बिल्कुल वैसी हालत, जो मेरी तब हुई थी जब मैंने उसे अपने मन की बात बताई थी। उसे देखने और मिलने के बाद उससे सम्बन्धित घटनाएँ एक के बाद एक कूदती-फाँदती मेरे जेहन से निकल रहीं थी जो जितनी जल्दी पकड़ में आती थीं उतनी जल्दी ही छूट भी जाती थीं। पर उनको याद करने पर एक मीठा-मीठा एहसास जरूर हो रहा था जो सुख और दुख से बिल्कुल परे था।
     परसों मिलने की बात तय हो गयी। उस समय मैंने सोचा था कि मैं उसके साथ दो तीन घण्टे बिताकर डेढ-दो़ बजे तक घर वापस आ जाऊँगी लेकिन मुझे क्या पता था कि उसे सुबह नौ बजे कहीं पहुँचना होगा।
     ‘क्या तुमने मालूम किया कि आर्टिफिशियल दाँत कितने में लगेगा?’, उसने पूछा था। वह दाँत पर ही अटक गया था, ‘और ये टूटा कैसे?’
     ‘टूटा कैसे?’, मैंने उसके आखिरी दो शब्द ऐसे दोहराये जैसे मुझे भी न पता हो कि मेरा दाँत कैसे टूटा?
     वह प्रतीक्षा कर रहा था और मैंने उसे बताया कि एक अच्छा दाँत दस-पन्द्रह हजार तक का लगेगा। प्रश्न के दूसरे हिस्से को मैंने मैकडॉनोल्ड के शोर में धकेल दिया पर शोर में भी उसका प्रश्न हवा में लटका मुझे ताक रहा था। वह मुझे यह रकम देने के लिए तैयार हो गया लेकिन मैंने मना कर दिया। मना करते समय सिर्फ और सिर्फ राहुल मेरे दिमाग में था।
    मैं हमेशा से सोचती थी कि कभी कोई काम एकदम से नहीं होता। पहले भूमिका बनती है, फिर उस पर विचार होता है और अन्त में उस पर निर्णय लेकर काम किया जाता है। वो सन् दो हजार की बात थी। मेरी शादी से कुछ ही दिन पहले। भूमिका बन चुकी थी, विचार हो चुका था, निर्णय भी लिया गया किन्तु उस काम को बिल्कुल गलत समय किया गया जबकि उस समय उसकी कोई आवश्यकता ही नहीं थी।
     और आज का निर्णय? उसकी कहीं कोई भूमिका नहीं लिखी गयी, कभी उस पर सोचा भी नहीं गया था। न कभी पहले, न परसों। बस निर्णय हुआ और मैं यहाँ ली मैरिडियन के कमरा नम्बर नौ सौ सात में मौजूद हूँ। यह उस खामखाह लिये गये निर्णय की परिणति है जो मैंने सन् दो हजार में लिया था।
     मैं ठीक साढ़े दस बजे होटल में थी। जोरों से धड़कते दिल के साथ मैं भीतर दाखिल हुई थी। हालाँकि मैं अपना सबसे अच्छा सूट पहन कर आई थी लेकिन फिर भी ऐसा लग रहा था कि शीशमहल में कोई चोर घुस आया हो। उसने मुझे समझा दिया था इसलिए मैं सीधे रिसेप्शन पर पहुँची। रिसेप्शन के पीछे दीवार पर कई घड़ियाँ लगी हुई थीं जो दुनिया के कई शहरों का समय बता रहीं थी। जब रिसेप्शनिस्ट ने एक प्लास्टिक कार्ड मुझे दिया तो मैं हैरत से उसे उलट-पुलट कर देखती रही। मेरी हैरानी से हैरान हुई रिसेप्शनिस्ट ने बताया कि ये ‘की कार्ड’ है यानी रूम की चाबी। उसकी अचरज भरी मुस्कान मुझे अभी भी याद है। मैं झिझकते हुए नवीं मन्जिल पर कमरे के सामने पहुँची। बड़ी मशक्कत के बाद कमरे का दरवाजा खुला। खुला लेकिन नई समस्या। भीतर अँधेरा था। मैंने टटोलकर बोर्ड खोजा तो लाइट ही न जले। मैं घबराकर बाहर आ गई। कॉरीडोर में होटल का स्टाफ मिल गया। उसे बताया। वह मुस्कराया। पता नहीं उसकी मुस्कराहट कैसी थी क्योंकि घबराहट और शर्म के कारण मैं उसे नहीं देख रही थी। उसने दरवाजे के पास बने एक खाँचे में कार्ड डाला। कार्ड डालते ही कमरा रोशन हो गया। उसने बताया कि जब बाहर आना हो तो कार्ड यहाँ से निकाल लें। मैंने उसे धन्यवाद कहा। उसके जाने के बाद मैंने चैन की साँस ली।
     मुझे इस बात की खुशी थी कि अनिरुद्ध की सम्पन्नता और बढ़ गई थी जैसी सम्पन्नता उसके घर की उन दिनों थी, उससे भी अधिक और मेरे हालात उतने ही निम्न थे जितने पहले थे। शायद पहले से भी बदतर। मुझे आज भी वो दिन याद है जो शीशे की तरह साफ मेरे भीतर मौजूद है। चौदह साल गुजर जाने के बावजूद, मेरी शादी और दो बच्चे हो जाने के बावजूद, जिन्दगी के स्याह-सफेद रंग देखने के बावजूद वो दिन मुझे याद है।
     अनिरुद्ध मेरे घर के सामने वाले मकान में रहता था जहाँ मेरा आना जाना था क्योंकि उसकी बहन और मैं एक ही पॉलीटैक्नीक कॉलेज में कोर्स कर रहे थे। वह सम्पन्न परिवार से था और मैं निम्न। एक अनाथ लड़की जो अपने बड़े और छोटे दो भाइयों के साथ रहती थी। उससे कभी कभार हल्का फुल्का हँसी मजाक चलता था। प्रेम रोग फिल्म भी मैंने उन्हीं के घर देखी थी। इस फिल्म में ऋषि कपूर का एक डायलॉग मुझे आज भी याद है। वह कहता है, ‘सभी इन्सान एक जैसे ही तो होते हैं, वही दो हाथ, दो पाँव, आँखें, कान, चेहरा। सबके एक जैसे ही तो होते हैं फिर कोई एक, सिर्फ एक ऐसा होता है जो इतना प्यारा लगने लगता है कि अगर उसके लिए जान भी देनी पड़े तो हँसते-हँसते दी जा सकती है।’
     ‘कोई एक, सिर्फ एक’ अनिरुद्ध था। हालाँकि शुरू में ऐसा कुछ नहीं था। मुझे नहीं पता कि वो कौन सी पढ़ाई कर रहा था लेकिन ये मालूम था कि वो कहानियाँ-उपन्यास भी लिखता था। मैंने एक बार उसे कहा था कि वह अपनी कहानियाँ मुझे दिखाये। उसका जवाब था कि वह मुझे वो कहानी देगा जो वह मेरे ऊपर लिखेगा और कहानी का शीर्षक होगा - और नैना बहते रहे...। मेरा नाम नैना है और मुझे मालूम था कि वह मेरा मजाक उड़ा रहा था। हालाँकि बाद में मुझे उसने अपनी तीन-चार कहानियाँ पढ़ने के लिए दी थीं। उसकी वे कहानियाँ अजीब सी प्रेम कहानियाँ थीं। उसकी वे अजीब सी प्रेम कहानियाँ पढ़कर ही वह मेरे लिए ‘कोई एक, सिर्फ एक’ बन गया। वह मेरी खामोश चाहत बन गया। मैंने अपनी चाहत का मुँह नहीं खोला, शायद मैं हमारे सम्बन्धों को अमीरी गरीबी में तोल रही थी। लेकिन उस दिन मुँह खुल ही गया।
     मेरा भाई और मेरे रिश्तेदार मेरे लिए लड़का देख रहे थे। जैसे ही उन्हें उपयुक्त लड़का मिला तुरन्त सगाई कर दी और दो महीने बाद शादी की तारीख भी तय। सगाई होने के बाद राहुल मुझसे कई बार मिला और हमारे बीच वो सम्बन्ध भी बना जो शादी के बाद बनना चाहिए था। राहुल के साथ घूमने फिरने, बातचीत करने के बावजूद मुझमें वो कीड़ा कुलबुला गया। मुझे लगता है ऐसा इसलिए हुआ होगा शायद मैं राहुल में भी अनिरुद्ध को देखती थी।
     खैर! मैं सिर्फ वो बताती हूँ जो मैंने उसे कहा था क्योंकि उसने प्रतिक्रियास्वरूप अधिक कुछ नहीं कहा था। उस दिन जैसे ही वह कॉलेज से घर लौटा, किसी बच्चे के द्वारा मैंने उसे अपने घर बुलवा लिया। कुछ देर बाद वह आया और उसके बैठते ही मैंने हिचकते हुए, रुक रुक कर कहना शुरू किया।
     ‘...पहले मैंने सोचा कि लिखकर कह देती हूँ, मैंने लिखा भी, फिर फाड़ दिया और फिर सोचा, कह देना ही ठीक है और सामने कह देना ज्यादा ठीक है। मैं... पिछले काफी दिनों से इसी उधेड़बुन में हूँ कि आपसे कैसे कहूँ? और तीन दिन से तो मेरा बुरा हाल है, मैं ठीक से सो भी नहीं पाई हूँ। पता नहीं आपके बारे में सोचते ही मेरी अजीब सी हालत हो जाती है। मैं बता नहीं सकती कैसी हालत हो जाती है? आप भी सोच रहे होंगे कि मेरी शादी होने वाली है और मैं कैसी बहकी बातें कर रही हूँ? पता नहीं...पता नहीं कब आपको देखते हुए, कब आपसे बातें करते हुए, कब आपकी कहानियाँ पढ़ते हुए मैं आपको चाहने लगी, आपको प्यार करने लगी। आप...आप दूसरे लड़कों से बिल्कुल अलग हो मैं...मैं जानती थी कि हमारा कुछ नहीं हो सकता इसलिए मैंने आपको कभी बताया नहीं। आज इसलिए बता रही हूँ कि कुछ दिनों बाद मैं चली जाऊँगी, कहीं दिल की बात दिल में ही न रह जाये। आप मेरे बारे में क्या सोचते हैं मुझे नहीं पता मगर मैं आपको...बहुत प्यार करती हूँ...।’
     बोलने के बाद मेरा चेहरा लाल हो गया था। मैंने उससे नजरें भी नहीं मिलाई थी।
     कुछ देर की खामोशी बहुत लम्बी हो गई थी।
     ‘मैंने तुम्हारे बारे में इस तरह कभी नहीं सोचा था। पर एक बात है, तुम बहुत समझदार लड़की हो।’ अनिरुद्ध ने बस इतना ही कहा और चला गया।
     ये तो मैं शुरू से जानती थी कि उसने मेरे बारे में कभी इस तरह नहीं सोचा था। मगर उसने ये क्यों कहा कि मैं बहुत समझदार हूँ? मैं और समझदार? कतई नहीं।
     उस दिन के बाद हमारी मुलाकात मेरी शादी वाले दिन हुई। उसने मुझे एक बहुत सुन्दर हैण्ड बैग उपहार में दिया था। मेरे प्यार का पहला और आखिरी उपहार। मैंने उस बैग को आज तक सहेज कर रखा हुआ है। बहुत विशेष अवसरों पर मैं उसका इस्तेमाल करती हूँ। जैसे आज यह मेरे साथ है। मैंने राहुल को इस बैग को देने वाले के बारे में कभी नहीं बताया। अगर बता देती तो वह कब का उसे जला चुका होता या फेंक चुका होता।
     राहुल...शुरू के दिनों में ये नाम मुझे बहुत प्यारा लगता था। पर इतना भी नहीं, जितना अनिरुद्ध। और मैं उन दिनों उस पर पूरी तरह समर्पित थी इसलिए वो सम्बन्ध भी बन गया जो बनना ही शादी के बाद चाहिए था। कदम उसने बढ़ाया था और मैंने उसके कदम पर कदम रख दिया था। मुझे न बुरा लगा, न ही पाप। और लगता भी क्यों? हमारी शादी जो होने वाली थी। अपने होने वाले पति पर पूर्ण समर्पित। मैंने लड़की होते हुए ऐसी मर्यादाओं, नैतिकताओं की बातों के बारे में नहीं सोचा और वही किया जो राहुल चाहता था।
     हमारा विवाह हो गया लेकिन कुछ न होते हुए भी कुछ ऐसा था जिसने उसको शक्की बना दिया। और आज ये स्थिति है कि वह अपने अज्ञात शक की बिना पर मेरे साथ कुछ भी कर सकता है। शायद मेरी हत्या भी।
     जब भी मैं कभी उसके अनावश्यक शक के बारे में सोचती हूँ तो मुझे एक ही वजह समझ आती है और वो है हमारा विवाह पूर्व शारीरिक सम्बन्ध। वह निश्चित ही ये सोचता होगा कि शादी से पहले मैं उसके साथ तुरन्त तैयार हो गई तो शायद मैं किसी के साथ भी तैयार हो गई होऊँगी।
     विवाह के चौदह वर्ष गुजर जाने के बावजूद उसके शक का कोई इलाज नहीं मिला। मेरे दाँत का टूटना भी उसके शक की परिणिति है। लेकिन मैं यहाँ राहुल पुराण या राहुल गाथा के लिए नहीं आई हूँ। मैं एक मर चुकी इच्छा में प्राण फूँकने की कोशिश करने आई हूँ लेकिन आज समय बीतने के साथ-साथ इस कोशिश का भी दम निकल रहा है।
     कमरे के ऐश्वर्य से गश खाने के बावजूद सबसे पहले मैंने उसे यहाँ आते ही फोन किया था जो उसने तुरन्त ही काट दिया था मगर अगले ही पल मैसेज आ गया था - ‘मैं मीटिंग में हूँ। अगर आप होटल पहुँच गई हैं तो मेरा इन्तजार करो। फ्री होते ही फोन करूँगा।’
     मैंने भी उसे मैसेज कर दिया था - ‘हाँ मैं होटल पहुँच चुकी हूँ और आपका इन्तजार कर रही हूँ।’
     ‘आपके समयानुसार पहुँचने की पूरी कोशिश करूँगा।’
     उसका ये मैसेज पढ़कर मैं भाव विभोर हो गई थी।
     उसके बाद मैंने कमरे का जायजा लिया। वहाँ मौजूद हर सामान को छू छूकर, उठा-उठाकर देखा। अनिरुद्ध का सामान भी देखा। उसका सामान देखते हुए मुझे एक अजीब सा ख्याल आया। उसके सूटकेस में उसका सामान उसकी बीवी ने रखा होगा, बड़े प्यार से, सहेज कर। और उसे ढेर सारी हिदायतों के बीच उसे बताया होगा कि फलाँ सामान इस तरफ है और फलाँ उस तरफ। शेविंग किट, डियो, स्लीपर...सब पर उसके निशान होंगे। मन में अजीब सी इच्छा हुई कि मैं उन निशानों की तलाश करूँ मगर जल्द ही मैंने उस इच्छा को मार दिया। शायद मैं उस औरत को खोजना चाहती थी जो अनिरुद्ध से जुड़ी है और जो उसके सामान में मौजूद है। मुझे लगा इस बहाने से एक बहुत पुरानी, दफन हो चुकी इच्छा को जीवित करना चाह रही हूँ।
     कमरे को देखने के बाद मैंने बाथरूम देखा। जैसा मैंने कभी फिल्मों में देखा था वैसा ही बाथरूम था। बाथरूम की एक-एक चीज मैं छू छूकर देख रही थी। बाथटब देखकर तो मेरा मन नहाने का हो आया। फिर मैंने निश्चय कर ही लिया कि नहा ही लेती हूँ। पता नहीं जीवन में कब बाथटब में नहाने का मौका मिले?
इस बीच अनिरुद्ध आ गया तो? तो? तो...तो...तो...?
     अपनी समझ के हिसाब से मैं नहा ही ली। नहाने का अनुभव बहुत अद्भुत था। मैं बिल्कुल फिल्मी तरीके से नहाई थी। जब मैं कमरे में वापस आई तो देखा बारह बज चुके थे। अपना मोबाइल चैक किया। कोई कॉल नहीं। विशेषतः राहुल की। कितनी शान्ति मिलती है जब आप चोरी छिपे कोई काम कर रहे हों और आपके मोबाइल पर उस व्यक्ति की कोई कॉल न हो जिसकी आप ऐसे समय सबसे अधिक अपेक्षा कर रहे हों। ये प्रतीक्षा भी कितनी मुश्किल होती है न, खासतौर पर जब आपके पास समय की बहुत कमी हो और प्रतीक्षा करवाने वाले से मिलना भी बहुत जरूरी हो। डेढ़ घण्टा था मेरे पास और अनिरुद्ध के आने का कुछ पता नहीं था।
     मुझे भूख लगने लगी थी। यहाँ आने के चक्कर में, जल्दी जल्दी घर के काम निपटाने के बाद सिर्फ चाय पीकर आई थी। टेबल पर फलों की एक प्लेट रखी थी जिसमें एक सेब, दो केले और दो आलूबुखारे थे। मैं तीनों चीज एक एक खा गई। अमीरी लाइफ भी क्या लाइफ है! मुझे हल्का सा दुख हुआ कि मैं अनिरुद्ध की पत्नी नहीं हूँ। हालाँकि मेरी सगाई होने से पहले मैं उसकी पत्नी बनने के बारे में ही सोचती रहती थी। अनिरुद्ध के पास मोटरसाइकिल थी। उसकी बाइक पर उसके पीछे बैठने की न जाने कितनी बार मैंने कल्पना की थी, कितनी बार कल्पनाओं में उसके पीछे बैठी, कभी एक प्रेमिका के रूप में तो कभी पत्नी के रूप में।...जीन्स में दोनों टांगे क्रास करके बिल्कुल चिपककर तो कभी साड़ी पहले हुए कमर में हाथ डाले। कुछ कल्पनाएँ या कुछ इच्छाएँ कभी पूरी नहीं होती...चाहे कोशिश करें या ना करें, वे भीतर ही घुटकर रह जाती हैं और वहीं मर जाती हैं।
     पिछले दो दिन मैंने सिर्फ अनिरुद्ध के बारे में ही सोचा। आखिर, चौदह वर्ष बाद मैं उससे मिली हूँ। विधाता की अजीब सी मर्जी रही जो हम कभी मिल नहीं पाये। हालाँकि, मिलकर भी क्या होता? पुरानी कसक, पुरानी टीस फिर उभर आती। हमारे ना मिलने का कारण शायद ये भी रहा कि मेरी शादी के बाद घटनाएँ बड़ी तेजी से हुईं मानो घटनाओं को मेरी शादी का ही इन्तजार हो। शादी के बाद मैं नोयडा से दिल्ली आ गई-अपने ससुराल। उसके तुरन्त बाद मेरे चाचा और ताऊ ने हमारा मकान बिकवा दिया ताकि तीन हिस्से हो सकें। भाई को जो हिस्सा मिला उससे वह मेरी शादी का कर्जा ही चुका पाया फिर वह भी छोटे भाई के साथ दिल्ली आकर बस गया। राहुल ने कभी मेरे भाइयों को पसन्द नहीं किया इसलिए वे मेरे पास बहुत कम ही आते हैं। भाइयों के दिल्ली आने के बाद नोयडा बिल्कुल ही छूट गया। कोमल, अनिरुद्ध की बहन, की शादी में भी नहीं जा पाई। परसों की मुलाकात में अनिरुद्ध ने सिर्फ इतना ही बताया था कि वह पिछले आठ सालों से पूना में रह रहा है और वहीं पर एक बड़ी कम्पनी में नौकरी कर रहा है। उसके एक बेटी है, बीवी के बारे में कुछ नहीं बताया। उसकी पत्नी कैसी होगी? पता नहीं नौकरी करती होगी या नहीं? क्या उसी से उसकी शादी हुई जिससे प्यार करता था।
     जब मैंने उसे अपने मन की बात बताई थी तो मुझे पहले से ही मालूम था कि किसी के साथ उसका चक्कर चल रहा था पर वो चक्कर किस अन्जाम तक पहुँचा मुझे पता नहीं चल पाया। लड़की के बारे में कोमल से सुना था कि वो बहुत खूबसूरत है। मैं उस अनजान लड़की की खूबसूरती का अनुमान ही लगाती रह गयी, कभी देख नहीं पाई। खैर! आज मैं उसकी प्रतीक्षा कर रही हूँ और निश्चित ही वह भी मुझसे मिलने के लिए बैचेन होगा।
     सुख! सारा खेल इस छोटे से शब्द का है। आज मैं यहाँ अपने रूटीन भरे जीवन में हल्के से बदलाव की चाह में हूँ। एक ऐसे सुख के लिए हूँ जो मेरे लिए बना ही नहीं था, पर इच्छा तो होती है न। जैसे आज की इच्छा। अगर मैं न भी कहूँ तो भी ये सच था कि मैं यहाँ अपने को समर्पित करने आई हूँ। अपने मरे हुए प्यार को सिर्फ आज के लिए हासिल करने आई हूँ। पर मेरी इच्छाएँ, कैसी भी इच्छाएँ पूरी कहाँ होती हैं? लेकिन अपने लिए, अपने तरीके से कुछ समय जीने की इच्छा तो मेरी भी है न। क्या करूँ? मेरी जिन्दगी तो पति और बच्चों में ही निकल गई। विवाह के बाद मैंने सोचा था कि राहुल बहुत प्यार करने वाला होगा, विश्वास और सहयोग करने वाला होगा। जैसा वह विवाह से पहले दिखाता था। विवाह के बाद बहुत जल्दी उसमें बदलाव आ गया बल्कि अपने असली रूप में आ गया। जब हमारा मकान बिका था तो उसकी नजर भाई के हिस्से की रकम पर थी जिसके लिए वह कहता था कि इसमें मेरा भी हिस्सा है और वो मुझे हर हाल में लेना चाहिए लेकिन मुझे पता था कि वो पैसा मेरे विवाह के कर्ज में ही जायेगा। जो थोड़ा बहुत बचा था वह छोटे भाई के भविष्य के लिए सुरक्षित रख दिया गया। मगर राहुल वह रुपया हथियाना चाहता था। उसको रोकना मेरे और भाई के लिए महाभारत था। और जब बच्चे हुए तो मैं बिल्कुल ही बँध गयी। मेरी विडम्बना तो देखो कि यहाँ पर मुझे जिसके बारे में सोचना चाहिए, मैं उसके बारे में न सोचकर वही अपने पति और बच्चों के बारे में सोच रही हूँ जिनसे कुछ देर पीछा छुड़ाकर यहाँ आई हूँ। कैसे सुख मिलेगा मुझे?
     एक आशंका मेरे भीतर पनपी। अगर अनिरुद्ध डेढ़ बजे तक नहीं आया तो?
     तो मेरी किस्मत।
     मुझे याद है एक बार मैं अपनी दवाई लेने जा रही थी तो मैंने सोचा कि अनिरुद्ध को साथ ले चलती हूँ। वह अपने घर मिल भी गया। मैंने उसे साथ चलने के लिए कहा तो पहले तो वो सोचता रहा फिर तैयार हो गया।
    ‘आपको मेरे साथ चलते हुए अच्छा लग रहा होगा, है न?', मैंने शरारती मुस्कान के साथ पूछा।
    ‘मुझे अच्छा लग रहा है? पागल है तू। मुझे क्यों अच्छा लगेगा?’, उसे गुस्सा तो नहीं आया पर उसका स्वर तेज हो गया था।
    ‘धीरे बोलो, मैं अपने लिए कह रही थी कि मुझे आपके साथ चलते हुए अच्छा लग रहा है।’
    उसने कुछ जवाब नहीं दिया बस सामने कहीं देखता हुआ चलता रहा। मैंने आगे कहा।
    ‘वो देखो, पड़ोस वाली आण्टी हमें देख रही है, फिर भी मुझे आपके साथ चलते हुए डर नहीं लग रहा।’
    ‘इसमें डरने की क्या बात है? हम साथ चलते हुए क्या चोरी कर रहे हैं?’
    ‘वो बात नहीं, ये आण्टी इधर की उधर लगाती है।’
    ‘फिर तो तेरी शादी में दिक्कत हो जायेगी।’, उसने बड़ी गम्भीरता से कहा
    आपके साथ तो मैं सारी दिक्कतें झेल लूँगी - ये मैंने सिर्फ मन में कहा।
    ‘क्यों? बोल कुछ?’, अनिरुद्ध ने जोर देते हुए कहा।
    ‘मैं दवाई लेने जा रही हूँ, अपनी शादी की तारीख पक्की करने के लिए नहीं।’, मैंने हँसते हुए कहा था। तब मुझे लगा था कि यही उचित मौका है अपने मन की बात कह देने का। पर नहीं कही, सँजोकर मन में ही पड़े रहने दी।
     बाद में, ये शुक्र रहा कि उस आण्टी ने हमारे बारे में मोहल्ले में कुछ लगाई सिकाई नहीं की, नहीं तो, अनिरुद्ध की माँ तो मुझे खा ही जाती और मेरा पूरा खानदान मेरा जीना हराम कर देता।
     तभी मोबाइल पर अनिरुद्ध का मैसेज आया, ‘सॉरी, मुझे अभी टाइम लग सकता है। अगर भूख लग रही हो तो फोन पर कुछ आर्डर कर देना, रूम में आ जायेगा। चाय कॉफी मेकर टेबल के पास ही है, बना लेना और कुछ ठण्डा पीना हो तो फ्रिज में है।’
    हाय! कुरबान! कितना ख्याल है मेरा। यह मेरे अब तक के जीवन का सबसे प्यारा मैसेज था। मैंने ‘ओके थैंक्स’ लिखकर भेज दिया।
     मेरे मन का एक हिस्सा चीख-चीखकर कह रहा था कि अनिरुद्ध डेढ़ बजे तक नहीं आयेगा और एक हिस्सा बहुत धीरे से कह रहा था कि वह आयेगा। अगर वह डेढ़ बजे तक आ भी गया तो क्या फिर भी मैं रुक पाऊँगी? जो भी मैं सोचकर आई हूँ वो पूरा हो पायेगा? मेरे ही प्रश्नों का मेरे पास कोई उत्तर नहीं है। वैसे भी चीखने वाले हिस्से की ही जीत होनी है।
     फ्रिज में कोक, पैप्सी और शायद बीयर के केन रखे थे। मैंने कोक का एक कैन उठा लिया और टीवी चलाकर पलंग पर अधलेटी अवस्था में उसे पीने लगी। अब मेरे पास सोचने को कुछ नहीं था। मेरे सामने सिर्फ भागता हुआ समय था और हाथ में कोक और...और? कुछ भी नहीं था।
    पौने एक बजे उसका मैसेज आया, ‘मैं दो बजे तक फ्री हो जाऊँगा और तीन बजे से पहले-पहले पहुँच जाऊँगा। क्या तब तक रुक पाओगी?’
     क्या उत्तर दूँ? मुझे बच्चों का ख्याल आया। हालाँकि मैंने अपनी बेटी को बोल दिया था, खाना भी बना दिया था और चाबी भी पड़ोस में दे आई थी। मेरी बेटी बारह साल की है। वह खुद खा सकती है और अपने भाई को भी खिला सकती है। फिर भी...?
    मैंने ‘पता नहीं’ लिखकर भेज दिया।
    ‘कोई बात नहीं। अगर जाओ तो ‘की’ रिसेप्शन पर दे जाना।’
    उसका मैसेज रूखा तो नहीं था पर सच्चाई और मेरी मजबूरी से भरा था।
    खाली कैन पलंग की साइड टेबल पर पड़ा था। टीवी पर कोई म्यूजिक चैनल लगा हुआ था और ‘बेबी डॉल मैं सोने दी’ गाना चल रहा था। पलंग पर लेटी मैं छत को ताकती हुई सोच रही थी...
    ...यहाँ से जाने के बाद क्या याद रहेगा? मन का वो दौड़ता हुआ हिरण जो मुझे यहाँ ले आया और आकर तड़प-तड़प कर मर गया? या आज उससे न मिल पाने की टीस? या मेरी अनेक कुण्ठाओं से अचानक पनपा मेरे समर्पण का निर्णय? या वे चौदह साल जिनमें वो नहीं था-आज की ही तरह?
    कितने प्रश्न पर उत्तर किसी का भी नहीं।
    क्या बाद में कभी उससे मुलाकात होगी? कायदे से तो फिर कभी मुलाकात नहीं होनी चाहिए। उसका तो मालूम नहीं पर मेरे लिए यही ठीक रहेगा, नहीं तो मेरी रही-सही शादीशुदा जिन्दगी भी खत्म हो जायेगी जिसकी जिम्मेदार सिर्फ मैं ही होऊँगी।
    आखिरकार, मेरी समय सीमा समाप्त हुई। डेढ़ बज ही गया। मैं उठी, शीशे के सामने जाकर बाल सँवारे, कपड़े व्यवस्थित किये और खुद पर एक फीकी मुस्कराहट फैंककर कहा- ‘चल नैना, अपनी दुनिया में जहाँ ये नैना बहते रहेंगे...’
 
    मैंने पर्स उठाया और कमरे पर आखिरी नजर डालते हुए दरवाजे तक पहुँची। दरवाजा खोला। खाँचे में लगा कार्ड निकालने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि मुझे कुछ याद आया। अनिरुद्ध ने कभी मुझे कहा था कि वह मुझ पर एक कहानी लिखेगा जिसका शीर्षक ‘और नैना बहते रहे...’ होगा। मैं नहीं जानती उसने कहानी लिखी या नहीं पर विधाता की लिखी कहानी में ये शीर्षक ऐन फिट बैठता है। उसने जो बात शायद कभी मजाक में कही थी वो शुरू से ही सच थी। क्या आज उसको झूठ साबित कर सकती हूँ? कम से कम आज के लिए? आज के लिए बहते हुए नैनों को रोक सकती हूँ?
     मन का चीखने वाला हिस्सा बोला-‘हाँ।’ मेरे भीतर झंकार सी हो गई। खाँचे की ओर बढ़ा हाथ मैंने वापस खींच लिया, धीरे से दरवाजा बन्द किया और वापस मुड़ गई।

Thursday, November 13, 2014

                      खूबसूरत व्यवधान


     ‘क्या हमारी फिर मुलाकात होगी?’
     ‘देखते हैं, मेरे जाने के बाद अगर आप जिन्दा रहे तो?', उसने मुस्कराते हुए कहा।
     यही वो क्षण था जिसे वो रोकना चाहता था, ठहरा देना चाहता था, इस मुस्कराहट को और मुस्कराने वाली को। उसने कामना तो की लेकिन जल्द ही सिर झटक दिया।

     लैपटॉप पर आशिक़ी-२ का गाना बज रहा था और मोबाइल फोन पर बातचीत हो रहा थी।
     सुन रहा है न तू...रो रहा हूँ मैं...
     ‘तो ठीक है, तू खुश रह अपनी दुनिया में। मैं जा रहा हूँ हमेशा के लिए।', लड़के के चेहरे पर करुणा, क्रोध और असहायता के मिले जुले भाव थे।
     ‘तुम जहाँ मर्जी हो जाओ, पर मेरा पीछा छोड़ो। मैं दुखी होने की सीमा भी क्रास कर चुकी हूँ।', दूसरी ओर से कहा गया।
     ‘मैं मरने की बात कर रहा हूँ, मरने की, समझी? अगर तुझे लगता है तू उस हरामजादे चौहान के साथ खुश रहेगी तो ठीक है मैं तेरे रास्ते से हट जाता हूँ।’, लड़के ने तैश में आते हुए कहा।
     ‘अरे यार मत मरो, मैं जिन्दा आनन्द से तो निपट सकती हूँ लेकिन अगर तुम भूत बन गये तो कैसे निपटूँगी।’,
लड़की का स्वर हल्का सा शरारती हो आया, ‘और खबरदार जो सचिन को गाली दी।’
     ‘हाँ, तू तो उसकी मूरत बनाकर पूजा कर रही है न।’
     ‘शटअप।’
     ‘ठीक है। लेकिन मैं मजाक नहीं कर रहा हूँ। मैं सचमुच मरने जा रहा हूँ।’
     ‘अच्छा! गुड न्यूज है ये तो। पर सूसाइड नोट में मेरा नाम मत लिखकर जाना। नहीं तो बाद में तुम्हारे घरवाले और पुलिस मुझे तंग करेगी। तब तो...एक मिनट रुको, कोई दरवाजे पर है।’
     लड़का प्रतीक्षा करने लगा। वह तो कब से प्रतीक्षा ही कर रहा है। कुछ देर बाद लड़की का स्वर सुनाई दिया। उसे लगा बहुत देर बाद लड़की बोली।
     ‘नहीं लिखा न सूसाइड नोट में मेरा नाम?’
     ‘तुझे अभी भी मजाक लग रहा है न। अभी तुझे वॉटसएप पर फन्दे की और सूसाइड नोट की फोटो भेजता हूँ, तब पता चलेगा कि मैं बिल्कुल मजाक नहीं कर रहा हूँ।’
     ‘ठीक है, भेजो फोटो, तब तक तो पीछा छोड़ो। पर एक बात याद रखना, पहले तुम अपना प्यार मुझ पर थोप रहे थे और अब अपना मरना। मैं किसी के लिए भी जिम्मेदार नहीं हूँ, समझे? और मरने की बात मुझसे बार-बार बोलने की जरूरत नहीं है। प्लीज स्पेयर मी।’
     ‘मेरी तो हर चीज के लिए तू जिम्मेदार है विशाखा। ये तू भी जानती है और मैं भी। एनीवे, अब हमेशा के लिए आनन्द से पीछा छूट जायेगा। अच्छा! एक बार मेरे लिए वायलिन बजा दे। मेरी रिक्वैस्ट है।’
     ‘तुम पागल हो गये हो क्या?’
     ‘प्लीज।’
     ‘नहीं।’
     ‘तुझे मेरी कसम है। तुझे याद है अमित सर की फेयरवैल में तूने पहली बार जब वायलिन बजाया था। तेरी वो बन्द आँखें, हल्की सी टेढ़ी गरदन और वायलिन पर चलता हुआ हाथ। आज भी वो छवि मेरे भीतर अंकित है। उसी दिन से मैं तेरा दीवाना हो गया था। प्लीज आखरी बार बजा दे।’, लड़के का स्वर रुआँसा हो गया।
     ‘शटअप आनन्द। तुम्हें एक बार में बात समझ नहीं आती क्या?’, दूसरी ओर लड़की का गुस्से भरा स्वर, ‘मेरा पीछा छोड़ो यार।’
     ‘मेरी रिस्वैस्ट और कसम की तुझे परवाह नहीं तो जा छोड़ दिया पीछा तेरा। आनन्द के बिना आनन्द से रहना।’, लड़के ने कहा और फोन काट दिया।
     आशिकी-२ का आशिक अभी भी रो रहा था और उसे सुनने वाला कोई नहीं था। आनन्द नाम का लड़का फाँसी के लिए रस्सी खोज रहा था और उसे मरने से बचाने वाला कोई नहीं था। उसके माँ बाप और छोटा भाई किसी रिश्तेदार के यहाँ शादी में गये थे और कल सुबह से पहले नहीं आने वाले थे। कल सुबह तो उनका उसकी लाश से आमना सामना होगा।
     आनन्द पर मरने की धुन सवार हो चुकी थी। जीवन बस यहीं तक है, और यहाँ तक आकर भी वह फेलियर ही साबित हुआ। क्या कहा था विशाखा ने? यू आर फेलियर मिस्टर आनन्द। साली ने मिस्टर आनन्द तो ऐसे बोला था जैसे कितनी बड़ी इज्जत दे रही हो मुझे।
     हाँ, मैं फेलियर हूँ लाइफ में, प्यार में, नौकरी में...।’, आनन्द जोर से बोला। लेकिन उसे भी सुनने
वाला कोई नहीं था।
     आशिकी-२ का गाना बदल गया था - हम तेरे बिन अब रह नहीं सकते...
     उसे हैरानी हुई कि वह इस घर में रहता है और उसे यही नहीं मालूम कि रस्सी कहाँ रखी होती है? या इस घर में रस्सी है भी या नहीं? आखिरकार, बहुत खोजने के बाद उसे रस्सी मिल गयी। रस्सी देखते ही उसकी आँखे चमक उठीं। मन में ठानी हुई बात को पूरा करने वाली चमक। जीवन का आखिरी कदम उठाने वाली चमक, रस्सी! मिलने के बाद भी उसे बहुत काम करने थे। रस्सी का फन्दा तैयार करना है, उसे पंखे से बाँधना है, सूसाइड नोट लिखना है, उनके फोटो खींचकर विशाखा को भेजना है। उसने सोचा तो नहीं था, फिर भी वो आ गया जो अक्सर उसके हर काम में सबसे पहले आ जाता था बल्कि उसे लगता था कि वह पहले से ही पंजे गाड़े उसके आगे बैठा हुआ होता है। व्यवधान।
     डोरबेल बड़ी अधीरता से तीन बार बजी। ऐसा लगा जैसे बजाने वाले के पीछे फौज पड़ी हो। उसने एक गहरी नजर रस्सी पर डाली और मुख्य द्वार की ओर बढ़ गया। दरवाजे में लगी मैजिक ऑई से उसने बाहर देखा। एक अनजान परी चेहरा बेचैनी और घबराहट भरे भाव के साथ खड़ा था। प्रश्न चिन्ह लिए लड़का ठिठका सा खड़ा रहा। ये कौन आ गयी? उसकी नजर दीवार घड़ी पर पड़ी। रात के पौने ग्यारह बज रहे थे। तभी घण्टी फिर बजी और फिर बजी। उसने चिटकनी खोलने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि दरवाजा भी पीटा जाने लगा।
     जैसे ही उसने दरवाजा खोला, बाहर खड़ी लड़की बदहवासी से भीतर दाखिल हो गयी। अभी वह कुछ समझ भी नहीं पाया था कि लड़की ने जल्दी से दरवाजा बन्द कर दिया और दरवाजे से पीठ लगाकर लम्बी-लम्बी साँसे लेने लगी।
     ‘आ...प? कौन हैं आप?’, लड़के ने अटकते स्वर में पूछा।
     लड़की ने हाथ से उसे रुकने का इशारा किया। वह उसी प्रकार गहरी साँसे ले रही थी।
     लड़की की उम्र पच्चीस के आसपास होगी और वह बहुत खूबसूरत थी। उसने क्रीम रंग का अनारकली सूट पहना हुआ था जिससे वह बहुत मासूम, बहुत कमसिन लग रही थी। बेचैनी और घबराहट ने उसकी खूबसूरती में कोई कमी नहीं आने दी थी। लड़का मोहित सा उसे देख रहा था। वह भूल गया कि आत्महत्या करने के लिए उसने रस्सी तलाश की थी।
     ‘पा...नी...पानी मिलेगा?’, कोई परिचय देने की बजाय लड़की ने पानी की माँग की। आनन्द ने सिर हिलाया और पानी लेने चला गया। लगभग फौरन ही वह पानी लेकर आ गया। लड़की ने पानी का गिलास थामा और एक ही साँस में सारा पानी पी गई।
     ‘और?’, आनन्द ने पूछा।
     लड़की ने इन्कार में सिर हिलाया और खाली गिलास आनन्द की ओर बढ़ा दिया।
     ‘थैक्यू।’, लड़की ने धीरे से कहा।
     आनन्द गिलास पकड़े चुपचाप लड़की को देख रहा था। लड़की के चेहरे से बदहवासी कम हो गयी थी लेकिन वह अभी भी असहज थी।
     ‘क्या मैं कुछ देर यहाँ रुक सकती हूँ?’, लड़की ने पूछा।
     ‘आप हैं कौन? और कोई समस्या है क्या?’
     ‘क्या आपके यहाँ किसी को बैठने के लिए नहीं कहते?’, लड़की ने भोलेपन से पूछा।
     ‘ओ.. सॉरी।, प्लीज बैठिए।’, उसने सोफे की और इशारा करते हुए कहा।
     लड़की धीरे-धीरे चलती हुई सोफे पर बैठ गयी। आनन्द भी उसके सामने बैठ गया। गिलास उसने बीच में रखी मेज पर रख दिया। लैपटॉप पर गाना बदला। आशिकी-२ का ही एक और गाना - तू ही ये मुझको बता दे चाहूँ मैं या ना...। उसके कमरे से बहती हुई गाने की आवाज वहाँ तक आ रही थी। लड़की ने उसके कमरे की दिशा में देखा मानो उस कमरे में गाना लाइव चल रहा हो, फिर उसने कहा,
     ‘एक्चुली, मैं यहाँ से गुजर रही थी तो दो तीन आदमी रास्ते में मुझे छेड़ने लगे। मैं उनसे बचने के लिए भागी और जो पहला घर मुझे दिखाई दिया वो आपका मिला और मैंने आपके घर की घण्टी बजा दी।’
     ‘और वे आदमी?’, आनन्द ने शंकित स्वर में पूछा।
     ‘वे मेरे पीछे ही थे। क्या वे यहाँ आ जायेंगे? वैसे उन्होंने मुझे देखा तो है यहाँ आते हुए।’, वह भी आशंकापूर्ण स्वर में बोली।
     ‘ऐसे कैसे आ जायेंगे। फिर भी मैं पुलिस को फोन कर देता हूँ।’, आनन्द ने कहा।
     ‘नहीं, पुलिस को फोन रहने दीजिए। अगर वे लोग बाहर नहीं हुए तो खामखाह पुलिस नाराज होगी और हम दोनों से उल्टे सीधे सवाल करेगी।’, लड़की ने तुरन्त कहा।
     ‘आपके पास कुछ सामान भी नहीं है। आपका बैग वगैरहा। उन लोगों ने लूट तो नहीं लिया?’, वह खाली हाथ थी जबकि लड़कियाँ बड़ा सा बैग अपने साथ जरूर रखती हैं जिसमें दुनिया जहान का सामान होता है।
     'नहीं, मेरे पास कुछ नहीं था, मेरा मतलब है, है। आई मीन, मैं खाली हाथ ही थी।’
     ‘आपका घर...?’
     ‘घर?’, लड़की कहीं खो सी गई, ‘मैं...मैं थोड़ी देर बाद चली जाऊँगी।’, वह व्याकुल हो उठी।
     आनन्द ने कुछ नहीं कहा, बस परेशान, व्याकुल, असहज खूबसूरती को देखता रहा। परेशान वह भी था बल्कि वह तो जिन्दगी से ही परेशान हो गया था। और अब वह इस खूबसूरत व्यवधान से परेशान हो रहा था। अजीब स्थिति थी, न वह उसे जाने को कह सकता था और न ही उसके सामने मर सकता था। उसे विशाखा पर भी बहुत गुस्सा था। दोपहर तक तो वह विशाखा की भी जान लेने की सोच चुका था। वह शायद ऐसा कर भी देता अगर किसी फिल्मी तरीके से उसके पास पिस्टल आ जाती तो। क्या कह रही थी, आनन्द के भूत से कैसे निपटूँगी? चिन्ता मत कर, अब तुझे भूत बनकर ही...
     लड़की कुछ पूछ रही थी।
     ‘आप यहाँ अकेले रहते हैं?’
     ‘क्यों?’, वह रूखे स्वर में बोला।
     ‘क्यों मतलब?’, वह हड़बड़ा गई। उसे ऐसे उत्तर की उम्मीद जो नहीं थी। फिर सँभलते हुए बोली, ‘मैंने सोचा, चुपचाप बैठने से तो कुछ बात करना अच्छा है। अगर आप नहीं बताना चाहते तो...।’
     ‘ऐसी बात नहीं है’, वह धीरे से बोला, ‘दरअसल आप अचानक से मेरे घर में आ गयीं। आप इतनी रात में क्यों घूम रही हैं? न आपके पास सामान है, मोबाइल है, शायद पैसे भी नहीं होंगे? इसलिए मुझे थोड़ा अजीब सा लगा। जरूर बहुत बड़ी मजबूरी होगी आपकी?’
     लड़की उसका चेहरा ताक रही थी। आनन्द के चुप रहने के बाद भी वह उसे ताकती रही। इस तरह ताकने से वह हल्का सा विचलित हुआ। उसकी आँखें भी बेहद खूबसूरत थीं। क्या उपमा देते हैं? हाँ, हिरणी सी आँखें।
     ‘क्या हुआ? कुछ गलत कहा मैंने?’, आनन्द ने पूछा।
     उसने इन्कार में गर्दन हिलाई।
     ‘आपको कहीं फोन करना है तो कर सकती हैं।’
     ‘हाँ, फोन तो करना है पर अभी नहीं, पहले अपनी मजबूरी तो बता दूँ आपको।’, उसके चेहरे पर पीड़ा की छाया डोल गई।
     यही...बिल्कुल यही वो क्षण था जैसे कैमरे का बटन क्लिक हुआ और वो चेहरा फोटो के रूप में उसके भीतर कैद हो गया। वह पीड़ा से भरे बहुत खूबसूरत चेहरे पर मोहित हो गया, उसका दीवाना हो गया बिना यह सोचे कि एक दीवानगी के कारण वह आत्महत्या करने जा रहा था। उसको ऐसे देखते हुए वह थोड़ी असहज सी हो गई। उसने अपने अब तक के जीवन में बहुत नजरों का सामना किया है-घूरती हुई, खा जाने वाली, भेदती हुई, वासनामयी। मगर ये नजरें वह दूसरी बार देख रही थी। कोरे प्यार से भरी नजरें थी वे।
     ‘आप ऐसे क्या देख रहे हैं?’
     ‘सॉरी।’, आनन्द ने सिर झटका, ‘आप न बताना चाहे तो चलेगा या टेक यूअर ओन टाइम।’, उसने जल्दी से कहा। इस बार उसका स्वर नर्म था।
     ‘गुस्सा...ये गुस्सा बहुत खतरनाक चीज होती है। गुस्से के दौरान जो हो जाये वही कम होता है मगर उतरने के बाद जो हो चुका होता है वह बहुत अधिक हो चुकता है, आपको पछताने का भी मौका नहीं मिलता। आज फिर मेरे हसबैण्ड ने मुझसे झगड़ा किया, जैसा अक्सर वह करता रहता है तो...’
     ‘यू आर मैरिड?’, वह थोड़ा तेज स्वर में बोला।
     ‘हाँ, चार साल हो गये।
     ‘अच्छा! बट... रियली, आप लगती नहीं हैं।’
     ‘तो क्या लगती हूँ मैं?’, लड़की ने चेहरे पर तनिक उत्सुकता लाते हुए पूछा।
     ‘आप तो कॉलेज गोइंग लगती हैं।’, आनन्द ने तुरन्त कहा।
     लड़की जोर से हँसी। अपनी परेशानियों और दुखों को दबाते हुए जोर से हँसी।
     कुरबान! आनन्द का दिल उतनी जोर से धड़का जितना जोर से वो हँसी।
     ‘गुड जोक, गुड जोक।’, उसने कहा। आनन्द शरमा सा गया।
     ‘आप कुछ झगड़े के बारे में बता रहीं थी।’
     ‘हाँ,’, उसका मुस्कराता हुआ चेहरा एकदम गम्भीर हो गया, ‘हम कहीं जाने के लिए तैयार हो रहे थे कि एक फिजूल की बात पर उसने झगड़ा शुरू किया। वह हमेशा ऐसा ही करता है। बात बात पर झगड़ा, बिना बात पर झगड़ा, कुछ हुआ तो झगड़ा, कुछ न हुआ तो झगड़ा। कहते हैं कि औरत ज्यादा झगड़ा करती है मगर वो तो लड़ाई-झगड़े में औरतों को भी मात करता है। मैं इन रोज-रोज के झगड़ों से भर चुकी थी। कभी तो लिमिट होती है। आज ये इतना बढ़ गया कि गुस्से में मैं घर से निकल पड़ी, बिना कोई सामान उठाये। पैसे, मोबाइल, पर्स सब छोड़कर मैं निकल गयी।’, वह साँस लेने के लिए रुकी।
     आनन्द स्तब्ध भाव से उसे देख रहा था। उसके सामने सिर्फ एक दुखी चेहरा था और पीड़ामयी आवाज। वह सब कुछ भूल गया था- आशिकी के गाने, रस्सी, सूसाइड नोट, विशाखा की उपहासपूर्ण बातें, और भी बहुत कुछ और विशाखा भी। जो कुछ है तो सामने बैठी दुखी लड़की। क्या कोई इतनी सुन्दर लड़की को भी दुख दे सकता है? कितना कठोर होगा वो? उसने ध्यान दिया था कि जब वह बोलती है तो उसके निचले होंठ में एक लय, एक थिरकन होती है। बस, समय ठहर जाये और वह इस थिरकन को महसूस करता रहे। पार्श्व में चलता हुआ गाना ऐन फिट बैठ रहा था- तू ही ये मुझको बता दे, चाहूँ मैं या ना...
     ‘गुस्से के कारण मेरे दिमाग ने काम करना बन्द कर दिया।’, वह बता रही थी, ‘बाहर आकर मैं यूँ ही एक ओर चलने लगी, फिर मैंने पता नहीं कहाँ जाने के लिए ऑटो लिया, शायद वहीं जहाँ हमें जाना था। मुझे याद आया कि मेरे पास तो पैसे ही नहीं थे। मैंने ऑटो वाले को बताया तो उसने कहा कि जहाँ जा रहे हैं वहाँ से लेकर दे देना। मैंने कहा, ऐसा नहीं हो सकता तो उसने मुझे बुरा भला कहते हुए यहाँ उतार दिया। अभी मेरा दिमाग कुछ ठिकाने लगा ही था कि वो तीन आदमी मेरे पीछे पड़ गये। पर थैंक गॉड’, उसके चेहरे पर महीन सी मुस्कान आई, ‘आपने दरवाजा खोल दिया और मेरी जान बच गयी नहीं तो आज तो मेरा...। आप तो जानते ही होंगे कि दिल्ली कितनी अनसेफ है औरतों के लिए।’
     ‘वो तो है। अच्छा किया आप यहाँ आ गयीं। यहाँ आपको कोई खतरा नहीं है।’, आनन्द ने मुस्कराते हुए कहा।
     ‘आप अकेले रहते हैं यहाँ?’, लड़की ने तनिक आशंकित स्वर में पूछा। पहले पूछने पर उसे अजीब उत्तर जो मिला था।
     ‘मैं अभी आया।’, आनन्द वही मुस्कान लिये सोफे से उठा और अपने कमरे में चला गया।
     हालाँकि लड़की को उसकी मुस्कान से कोई खतरा महसूस नहीं हो रहा था, न कोई खौफ, न कुटिलता लग रही थी लेकिन किसी का दिमाग पलटते क्या देर लगती है। फिर भी वह आश्वस्त थी। उसकी नजरों ने कमरे का जायजा लिया। सामने की दीवार पर एक बड़ी सी मॉडर्न आर्ट पेंटिन्ग टंगी थी। एक ओर टीवी कैबिनेट थी जिस पर एक एलसीडी टीवी रखा था। ड्राइंग रूम सामान्य था, जिसमें दिखावटी और महँगी चीजें कम थी मगर साफ और सुरुचिपूर्ण था। अभी वह छत पर लगी लाइटों को देख ही रही थी कि भीतर से आते हुए गाने की आवाज बन्द हो गयी और कुछ ही क्षणों बाद आनन्द वापस आ गया।
     ‘गाना क्यों बन्द कर दिया?’, पूछना तो नहीं बनता था फिर भी उसने पूछा।
     ‘शायद अब उसकी जरूरत नहीं है।’, आनन्द ने बहुत हल्की मुस्कान के साथ कहा।
     लड़की कुछ नहीं बोली लेकिन उसके चेहरे पर बड़ा-बड़ा ‘क्यों’ लिखा हुआ था।
     ‘जब आपने घण्टी बजाई थी उस समय मैं अपने भीतर कुछ निश्चित कर रहा था। ऐसा मेरे साथ अक्सर होता है कि मैं कुछ करना चाहता हूँ उससे पहले ही कोई रुकावट, कोई व्यवधान आ जाता है मगर आज ऐसा खूबसूरत व्यवधान पहली बार आया है।’, उसने अर्थपूर्ण ढंग से लड़की को देखते हुए कहा और एक क्षण रुका।
     लड़की असमंजस से उसे देख रही थी।
     ‘कई बार लाइफ में ऐसी स्टेज आती है, ऐसा लगता है मानो सब कुछ खत्म हो गया है और कई चीजें जैसे, निराशा, दुख, गुस्सा, हताशा, असफलता मिलकर उसे ऐसी जगह धकेलकर ले आती हैं जहाँ एक ही रास्ता होता है-मौत का रास्ता। आपके आने से पहले मैं आत्महत्या करने जा रहा था। अगर आप पाँच मिनट नहीं आती तो मैं मर चुका होता।’
     ‘आप... आत्महत्या? ...क्यों?’, लड़की ने हैरानी से पूछा।
     ‘बस दिमाग खराब हो गया था। और ये जो दिमाग है न वो दिल की वजह से खराब होता है क्योंकि हम दिल को बहुत बड़ा मानते हैं। सच कहूँ तो बहुत कमीना होता है ये दिल..’
     ‘आपने ठीक कहा’, लड़की ने जोर जोर से गर्दन हिलाते हुए कहा, ‘सचमुच आपका दिमाग...क्योंकि मुझे कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा आप क्या कहना चाह रहे हैं।’
     ‘सॉरी, मैं बहकने लग गया था लेकिन सच्चाई यही है कि मैं आत्महत्या करने वाला था मगर आपके आने से मेरा इरादा बदल गया। मेरे लिए आप जिन्दगी बनकर आयी हैं।’, आनन्द भावुक होने लगा। उसे लग रहा था आने वाले कुछ ही क्षणों में वह ये भी बोल देगा कि वह उसे प्यार करने लगा है।
     ‘कैसे?’, लड़की उसके भीतर चल रही कशमकश से अनजान, पूछ रही थी।
     ‘कैसे, कैसे, कैसे। कैसे बताऊँ? एक्चुली, आप बहुत सुन्दर हैं और इतनी सुन्दर लड़की भी परेशान और दुखी है तो मेरी परेशानी और दुख तो कुछ भी नहीं है। मैं तो उस लड़की के पीछे दीवाना हूँ जो मुझे कतई नहीं चाहती। जो मुझे पागल कहती है, फेलियर कहती है और भी जमाने भर की बातें। उसने तो मेरी आखरी इच्छा भी पूरी नहीं की। और मैं उसके लिए जान देने जा रहा था। मैंने रस्सी भी तलाश कर ली थी। मैं आपको बताता हूँ, अभी, बिल्कुल अभी कुछ देर पहले एक पल ऐसा आया था जब मैं सब कुछ भूल गया था, सब कुछ। आपके दर्द भरे चेहरे ने सब कुछ भुला दिया था, मेरे अपने सारे दर्द, मेरे अपने सारे दुख, उस लड़की को भी...’,
     वह भावुकता की सीमा पार करने लगा था, ‘मुझे, एक्चुली मुझे आपसे...’
     ‘तो मेरा आना तो आपके लिए शुभ हो गया।’, लड़की ने जल्दी से उसकी बात काटते हुए कहा, ‘पहले आप बैठ जाएँ।’, वह अभी तक खड़ा था और लड़की को डर लग रहा था कि वो किसी भी समय उसे पकड़ न ले। शायद तब खुद उसे ध्यान आया कि वह खड़ा है। उसने सोफे को खाली नजरों से देखा और उस पर बैठ गया।
     ‘आपने मेरे जीवन की रक्षा की है और मैं मुझे बचाने वाले का नाम भी नहीं जानता।’, फिर वही मुस्कराहट उसके चेहरे पर चिपक गई।
     लड़की ने चैन की साँस ली। ‘मुस्कान से डर नहीं लगता साहब, भावुकता से लगता है।’ उसने मन ही मन ‘दबंग’ के संवाद को परिवर्तित किया।
     ‘अच्छा! तो क्या नाम होना चाहिए मेरा?’, लड़की ने मुस्कान दबाते हुए पूछा।
     अब जो उसके चेहरे पर भाव था, वो भी जानलेवा था। हे भगवान! मुझे क्या हो रहा है? इतनी सुन्दर मूरत क्यों मुझे अपनी ओर खींच रही है। वह लगातार उसके बारे में सोच रहा था। वह लगातार उसे देख रहा था। लड़की का पीड़ा वाला भाव शरारती भाव में बदल गया था। लड़की भी उसके भावों को देख रही थी और समझ रही थी। हे भगवान! एक और रोमियो।
     ‘आपने सुना, मैंने क्या पूछा था आपसे?’
     ‘क्या पूछा था? मुझे ध्यान नहीं।’, उसका ध्यान टूटा।
     ‘मैं पूछ रही थी घर में कुछ खाने को है क्या? मुझे भूख लग रही है और मुझे लगता है आपने भी नहीं खाया होगा। आदमी खाना खाकर मरने की थोड़ी ना सोचता है।’, लड़की ने मासूमियत से कहा।
     ‘खाना?’, वह धीरे से बोला, ‘खाने के बारे में तो मैंने सोचा ही नहीं था क्योंकि मुझे तो भूख ही नहीं लगी। आपने ठीक कहा, मरने वाला खाने के बारे में कहाँ सोचता है। मगर अब आपने खाने की बात की तो मुझे भी भूख का अहसास होने लगा है।’
     ‘वैरी गुड। तो कुछ है खाने को या बाहर...’, उसकी नजर घड़ी पर गई, ‘सवा ग्यारह होने वाले हैं। बाहर से भी क्या मिलेगा?’
     ‘कुछ न कुछ तो मिल ही जायेगा।’, वह उठता हुआ बोला, ‘मैं देखता हूँ।’
     जब वह लौटा तो कुछ सन्तरें, केले, बिस्किट और नमकीन लेकर आया। सामान उसने मेज पर रखा और खेदपूर्ण स्वर में बोला, ‘अभी तो फिलहाल यही है घर में।’
     ‘चलेगा चलेगा। अभी तो यही चलेगा। छप्पन भोग फिर कभी।’, वह मुस्कराते हुए बोली।
     क्या लड़की है, हर ऐंगल से अच्छी लगती है। उसने मन ही मन सोचा।
     ‘मैं सचमुच आपका आभारी हूँ। आपके आने की वजह से मेरी जान बच गई।’
     ‘लगता है आपने वो कहावत नहीं सुनी जो अक्सर लड़के ही बोलते हैं कि ट्रेन, बस और लड़की के पीछे कभी नहीं भागना चाहिए, दूसरी मिल जाती है।’
     ‘हाँ, सुना तो है।’
     ‘तो फिर?’
     ‘आज से गाँठ बाँध लेता हूँ।’
     ‘ओके। मुझे अपने घर फोन करना था, क्या मुझे फोन मिलेगा?’
     उसने सहमति में सिर हिलाया और मोबाइल फोन लेने अपने कमरे में चला गया।
     और कुछ देर बाद दो भूखे जीव मेज पर रखा सारा सामान खा गये। उसके बाद गर्मागर्म चाय पी, जो लड़की ने रसोई में उसके साथ खड़े होकर बनाई। वह अपने घर फोन कर चुकी थी और जल्द ही उसे कोई लेने आने वाला था। आनन्द सोच रहा था कि ये लड़की खुद तो चली जायेगी मगर उसकी नींद उड़ा जायेगी।
     ‘आपने अभी तक अपना नाम नहीं बताया?’
     ‘अरे, आपने ही तो मेरा नामकरण किया था। भूल गये? मेरा नाम ‘खूबसूरत व्यवधान’ है।’
     आनन्द झेंप गया। ‘सॉरी।’
     तभी उसके मोबाइल की घंटी बजी। अजनबी नम्बर था।
     ‘मेरा होगा, क्या नम्बर है?’, लड़की बोली।
     उसने नम्बर बताया। लड़की के सहमति में सिर हिलाते ही उसने फोन उसकी ओर बढ़ा दिया।
     ‘हैलो?.. हाँ, आ गये तुम?...बाहर खड़े हो?...ठीक है, मैं आ रही हूँ।’
     ‘मैं चलती हूँ। थैंक्यू सो मच। आपने मेरी मदद की और मुझे अपने घर रुकने दिया।’, लड़की आभार प्रकट करती हुई बोली।
     ‘थैंक्यू तो मुझे बोलना चाहिए। आपने मेरी जान बचाई है। एक बात पूछूँ? आप फेसबुक पर है? लेकिन...मैं सर्च कैसे करूँगा, आपने तो नाम भी नहीं बताया।’, वह मायूस स्वर में बोला।
     ‘मैं सर्च कर लूँगी आपको।’
     ‘हाँ प्लीज। आनन्द सागर के नाम से मेरी प्रोफाइल है।’
     ‘और वैसे क्या नाम है आपका?’, उसके निचले होंठ में फिर थिरकन हुई।
     ‘आनन्द सागर ही है।’, उसने गहरी साँस लेते हुए कहा।
     लड़की दरवाजे की ओर बढ़ी।
     ‘क्या हमारी फिर मुलाकात होगी?’
     ‘देखते हैं...मेरे जाने के बाद अगर आप जिन्दा रहे तो?’, उसने मुस्कराते हुए कहा।
     यही वो क्षण था जिसे वो रोकना चाहता था, ठहरा देना चाहता था, इस मुस्कराहट को और मुस्कराने वाली को। उसने कामना तो की लेकिन जल्द ही सिर झटक दिया।
     ‘अरे नहीं। अब मैं ऐसा नहीं करूँगा। मुझे ट्रेन, बस, लड़की वाली बात याद रहेगी।’
     ‘ओके दैन।’, लड़की ने अपना हाथ आगे बढ़ाया। आनन्द ने तुरन्त उसका हाथ थाम लिया और गर्मजोशी से मिलाते हुए हल्का सा दबाव दिया। ये दिखावा था जबकि उसे ऐसा लग रहा था कि उसकी जान जा रही है।
     ‘बाय।’, उसने धीरे से कहा।
     लड़की बाहर निकल गयी। बाहर सड़क के किनारे एक कार खड़ी थी। वह उसमें जाकर बैठ गयी। उसे नहीं पता उसका कौन उसे लेने आया था। वह गई तो उसका दिल भी ले गई।

     लड़की कार में बैठी। ड्राइविंग सीट पर उसका पति बैठा था और पीछे विशाखा।
     ‘क्या हुआ दीदी?’, विशाखा ने व्यग्र स्वर में पूछा।
     ‘गुड न्यूज है। अब आत्महत्या नहीं करेगा वो और तुम्हारी वजह से तो बिल्कुल भी नहीं क्योंकि...।’
     विशाखा ने छुटकारे की साँस ली, ‘मुझे आप पर विश्वास था दीदी। एक्टर लोग कुछ भी कर सकते हैं।’
     ‘.....क्योंकि अब वो मेरा रोमियो है।’, खूबसूरत व्यवधान खिलखिलाते हुए बोली।
     उसके पति ने मुस्कराते हुए उसे देखा और कार आगे बढ़ा दी।

Tuesday, October 14, 2014

पुरानी एल्बम

जेठानी की कहानी 

     ‘इस लड़के से मेरे रिश्ते की बात चली थी।’, 
     ये वाक्य हम दोनों ने ही आगे पीछे कहा था। पुरानी एल्बम बड़ी खतरनाक होती है। वह उन रगों पर हाथ रख देती है जो कभी दुख रही होती थीं। हालाँकि बाद में वे उस दुख को जीवित तो नहीं करतीं पर एक टीस जरूर दे जाती हैं और अतीत की घटना को वर्तमान में ले आती हैं।
     एल्बम के इस फोटो से ही बात शुरू करती हूँ। भाई का रिसेप्शन था जिसमें प्रतीक अपनी बहन के साथ आया था। उसकी बहन सौम्या मेरी प्यारी सहेली। फोटो में मेरी बड़ी बहन कल्पना और प्रतीक साथ खड़े हैं। उसके चेहरे पर एक सकुचाई हुई मुस्कराहट है और कल्पना के चेहरे पर छेड़ने का भाव। तब सौम्या के अलावा सिर्फ वही जानती थी कि मेरे और उसके बीच कोई ताना बाना बुना जा रहा है। 
     ये अठ्ठारह साल पहले की बात है। आज भाई की शादी की एल्बम देखते समय उसका फोटो सामने आ गया तो मीरा ने चौंकते हुए पूछा था, ‘ये कौन है?’ 
     अनायास ही मेरे मुँह से निकल गया, ‘ये प्रतीक है, इस लड़के से मेरे रिश्ते की बात चली थी।’ 
     ‘कमाल है, इस लड़के से मेरे रिश्ते की भी बात चली थी।’ 
     बड़ा अजीब संयोग था। मैं और मीरा जेठानी देवरानी हैं। दोनों के जीवन का एक हिस्सा प्रतीक से जुड़ा था जो शायद ..........कभी मेरा प्यार था।
     जैसे हम किसी फिल्म को दोबारा देखते हैं या किसी कहानी या उपन्यास को दोबारा पढ़ते हैं तो हमें सीन दर सीन और पेज दर पेज फिल्म या कहानी याद आती चली जाती है। यही वो फोटो देखकर हुआ। 
     प्रतीक से पहली मुलाकात उसके घर पर ही हुई थी। सौम्या से मेरी नई नई दोस्ती हुई थी। मैं पहली बार उसके घर गई थी पर उस दिन वो घर पर नहीं थी। घर पर उसकी माँ और प्रतीक मौजूद थे। उस दिन मुझे मालूम हुआ कि सौम्या के दो भाई हैं जिसमें एक प्रतीक है। सामान्यतः होता ये है कि हम अपनी सहेली या दोस्त के भाई को भइया ही बोलते हैं लेकिन यहाँ मुझमें हिचक थी या उसमें एक अजीब आकर्षण कि मैं उसे कुछ भी सम्बोधित नहीं कर पाई। और उसी दिन मैंने पहली और आखिरी बार उसके हाथ की बनी चाय पी थी। चाय उसने बहुत अच्छी बनाई थी और मेरे टेस्ट की बनाई थी लेकिन सकुचाहट और आण्टी की मौजूदगी में उसकी तारीफ नहीं कर पाई। ये चाय थी या उसका आत्मीय और घरेलू व्यवहार, एक फूटते हुए प्रेम बीज के साथ मैं घर लौटी थी।
     फिर टेलिफोन पर बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया। फोन मैं करती प्रतीक को ही थी पर बहाना सौम्या का बनाया जाता था और हमेशा मैं ही फोन करती थी, अपनी सुविधानुसार। वह मेरी सुविधा का ध्यान रखते हुए कभी फोन नहीं करता था, सिर्फ इन्तजार करता था। उसकी यही बात मुझे पसन्द थी। वह कभी अधीर नहीं होता था जबकि मुझमें बिल्कुल सब्र नहीं था।
     हमारी दूसरी मुलाकात तकरीबन चार महीने बाद हुई थी। मेरे इन्स्टीट्युट की दिसम्बर की छुट्टियाँ पड़ने वाली थीं। आखिरी दिन वह मेरे इन्स्टीट्युट आया था। एक दिन पहले जब फोन पर उसने अपने आने के बारे में बताया तो मैंने साफ मना कर दिया मगर वह मेरे मना करने के बावजूद आया था। उस दिन मुझे बड़ा डर लगा था, ऐसा लगा था जैसे सारी दुनिया मुझे उससे मिलते देख रही है। उस दिन उसने मुझे ढेर सारे ग्रीटिंग कार्ड्स दिये थे। मिस यू, दीवाली, क्रिसमस, न्यू ईयर, दोस्ती आदि इत्यादि। हर कार्ड पर उसने अपने मन के भावों को व्यक्त करती अभिव्यक्ति लिखी थी। अब तो मुझे याद नहीं है लेकिन वे अभिव्यक्तियाँ बहुत सुन्दर थीं। उसने मुझे अपने साथ चलने का आग्रह किया था मगर मैंने डर के कारण मना कर दिया था। उसने दोबारा आग्रह नहीं किया और चला गया। 
     उस रात को मैंने सारे कार्ड देखे और पढ़े, फिर पढ़े और फिर पढ़े। उसने सीधे-सीधे तो नहीं घुमावदार शब्दों में अपने प्यार का इजहार कर दिया था।
     अगले दिन हमारी फोन पर बात हुई तो उसने कहा था-मैं आपको साथ इसलिए ले जाना चाहता था कि मैं आपको अपने सामने ये सारे कार्ड्स देखते हुए और पढ़ते हुए देखना चाहता था जो मैंने पिछले चार महीनों में आपके लिए खरीदे थे। और प्रतिक्रियास्वरूप, आपके मुँह से ‘आई लव यू’ सुनना पता नहीं कैसा लगता? 
     मैं सुनकर रोमांचित तो हुई मगर मैंने उसे वे तीन शब्द कभी नहीं कहे। 
     हमारी इस अजीब सी प्रेम कहानी के बारे में सौम्या और मेरी बहन को मालूम हुआ फिर वो फोटो भी खिंचा जो स्मृति को कुरेदने का कारण बन रहा है। 
     इसी बीच सौम्या की शादी हो गई और हमारे इस सिलसिले को डेढ़ साल हो गया और डेढ़ साल में चार मुलाकातें। कितनी बकवास प्रेम कहानी है न!
     अपनी एक कमीनियत की बात बताती हूँ। हमारी बातों के दौरान एक बार प्रतीक ने मुझे कहा था कि सौम्या की शादी में वह मेरे अधरों पर अपना प्रेम प्रतीक अंकित करेगा। उसने मुझसे इसका वादा भी लिया था। पता नहीं उस समय क्या था? डर था? या झिझक? या किसी के देख लिए जाने की आशंका? पर बाद में जब कभी मैं उसके बारे में सोचती थी तो मुझे अपना कमीनापन ही महसूस होता था। शादी वाले दिन सौम्या और प्रतीक के कहने के बावजूद मैं दिन की बजाय रात को उसके घर पहुँची थी और वो भी अपने पिता और भाई के साथ। और तो और मैंने प्रतीक को प्रेम प्रतीक अंकित करने का कोई मौका भी नहीं दिया। ऊपर से मेरे महान पिता और भाई मेरे पहरेदार बने हुए थे। मेरी हर मूवमेन्ट पर उन दोनों की नजरें थी और वे लोग मुझे जयमाला के तुरन्त बाद लेकर चले गये। मैंने ढंग से खाना भी नहीं खाया था। लौटते हुए मैंने प्रतीक का चेहरा देखा था। शादी के माहौल से बिल्कुल विपरीत था उसका चेहरा, उतरा हुआ, उदासी से भरा। पूरी रात उसका चेहरा मेरी आँखों में घूमता रहा। उसने मुझे सोने नहीं दिया। मैंने सचमुच उसके साथ गलत किया। मैं एक छोटी सी खुशी उसे नहीं दे पाई। पता नहीं वह किस मिट्टी का बना था कि उसने उस बात की कभी शिकायत नहीं की। बाद में, मैंने उसे इस सम्बन्ध में काल्पनिक आशंकाएँ गिनाईं पर उसने कभी कुछ नहीं कहा।
     एक दिन सौम्या और उसके पति ने अचानक मेरे घर में हंगामा कर दिया। उन दोनों ने मेरे माँ बाप से प्रतीक के लिए मेरा रिश्ता माँगा। शुक्र ये था कि उन्होंने हमारे ताने-बाने के बारे में नहीं बताया। प्रतीक उन दिनों एक प्राइवेट कम्पनी में नौकरी करता था और बहुत मामूली तनख्वाह पाता था। मेरी माँ ने तर्क दिया, सहेली का भाई तो भाई ही होता है, उससे कैसे शादी कर सकते हैं और मेरे पिता ने प्रतीक का तो इन्टरव्यू नहीं लिया, उसके जीजा का ही इन्टरव्यू लेने लगे। जब ये बातचीत चल रही थी तो मैं उस कमरे में नहीं थी। मैं तो काँपते शरीर और जोर से धड़कते दिल को लिये किसी कोने में बैठी थी। मुझे डर था कि मुझसे कोई सवाल न हो जाये। कोई मुझपर न उँगली उठाये कि तेरा उसके साथ कोई चक्कर चल रहा है हालाँकि चाहती मैं भी थी कि ये रिश्ता हो जाये पर मैं अपने को सेफ रखना चाहती थी।
     बहरहाल, हमारी प्रेम कहानी का आधा अन्त तो उसी दिन हो गया जब मेरे महान पिता ने यह कहकर ये रिश्ता ठुकरा दिया कि हमें सरकारी नौकरी वाला लड़का चाहिए। 
     इस घटना के बाद से हमारी बातचीत कम हो गयी। मैं अपना हाल तो नहीं जानती पर प्रतीक को सदमा लगा था। हालाँकि वह मेरे साथ हमेशा नार्मल ही रहा। वह उसी तरह हँसता-खिलखिलाता मुझसे बात करता था पर उसकी असली मनोदशा सौम्या से मालूम होती थी। 
     और बाकी की आधी प्रेम कहानी मेरे मजाक ने खत्म कर दी। आज जब उस बारे में सोचती हूँ तो लगता है शायद मैं खुद ही चाहती थी ये सब खत्म हो जाये। गुमराह फिल्म के उस गाने की तरह - ‘वो अफसाना जिसे अन्जाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा...’ लेकिन वो खूबसूरत मोड़ ‘डैड एण्ड’ हो गया।
     मजाक की शुरूआत ऐसे हुई कि एक दिन प्रतीक के पास किसी लड़के का फोन आता है और वह कहता है कि वह संयोगिता का ब्वायफ्रैन्ड है और प्रतीक आइन्दा संयोगिता से बात न करे। मैं जानती थी कि वह इस बात से भड़केगा नहीं क्योंकि वह बहुत कूल स्वभाव का है। उसने सिर्फ इतना कहा अगर ये बात खुद संयोगिता कह देगी तो वह मान लेगा। मेरे कथित ब्वायफ्रैन्ड ने उसके सामने एक शर्त रखी कि संयोगिता फलाँ तारीख फलाँ समय फलाँ जगह पर आयेगी और उससे यही बात कह देगी। अगर उसमे हिम्मत हो तो वह संयोगिता को पहले बुलाकर दिखाये। मेरे कथित ब्वायफ्रैन्ड ने दावा किया कि मैं प्रतीक के बुलाने पर कभी नहीं आऊँगी। ये तो मजाक की बात थी कि मैं उसके बुलावे पर नहीं आऊँगी लेकिन प्रतीक मेरी आदत जानता ही था कि मैंने कभी उसकी बात नहीं मानी। कभी-कभी सोचती हूँ कि उसने मुझे इतना सहन कैसे किया?
     आखिरकार, वो दिन आया। सुबह साढ़े नौ बजे मैं अशोक विहार बस स्टैण्ड पर थी। प्रतीक भी आया। वह अजनबी की तरह मेरे बगल में बैठा और सिर्फ इतना कहकर चला गया कि ‘हम किसी की नजरों में हैं।’ जबकि मैं सोच रही थी कि बस स्टैण्ड पर कोई हंगामा होगा। वह अपने प्यार की दुहाई देगा और मैं उसे साफ मना कर दूँगी। 
     लेकिन हंगामा शाम को हुआ। शाम को प्रतीक ने फोन किया। मैं तो दोपहर से ही फोन के बगल में बैठी थी। उसने कहा कि उसे ये उम्मीद नहीं थी, अगर मैं किसी और को चाहती हूँ तो उससे क्यों खेलती रही। उसने ये भी बताया कि वह सुबह सात बजे से मेरी सोसाइटी के गेट के सामने मेरे इन्तजार में खड़ा था कि वह ये देख सके कि मैं बाहर आकर किसके साथ जाती हूँ लेकिन उसे हैरानी हुई थी कि सवा नौ बजे तक भी मैं उसे गेट से निकलती नहीं दिखाई दी। उसने मुझे बहुत बुरा भला कहा और अन्त में ‘साली कमीनी हर्राफा’ कहकर फोन काट दिया। प्रतीक का वह आखिरी फोन था और हमारी आखिरी बातचीत। बस स्टैण्ड की मुलाकात भी आखिरी ही थी। दिल्ली में मेरा मायका और उसका घर होने के बावजूद हम फिर कभी नहीं मिले।
     गलत होने के बावजूद मैंने भी उसे फोन नहीं किया क्योंकि मेरा कथित ब्वायफ्रैन्ड वास्तव में मेरी सहेली का ब्वायफ्रैन्ड था। उसे मालूम हुआ कि प्रतीक ने मुझे गाली दी थी तो उसने फोन कर प्रतीक को धमकी दी थी कि वो उसे जान से मार देगा। पता नहीं, प्रतीक ने उसे क्या जवाब दिया लेकिन ये जरूर पता चला कि मेरी सहेली का ब्वायफ्रैन्ड मेरा भी ब्वायफ्रैन्ड बनना चाहता था, मुझ पर भी वैसा ही हक चाहता था। खैर, उससे तो मैंने पीछा छुड़ा लिया था लेकिन मेरे इस मजाक ने एक बहुत अच्छे लड़के से मुझे वंचित कर दिया। 
     फिर दो तीन महीने के भीतर ही मेरी शादी पंचकुला, हरियाणा में रहने वाले एक सरकारी नौकर से हो गयी। दिल्ली छूटा तो सभी कुछ छूट गया। बाद में सौम्या से मालूम हुआ कि प्रतीक की भी शादी हो गई। 
     आज अनायास ही अपनी देवरानी मीरा के साथ मेरे मायके में भाई की पुरानी एल्बम देखते हुए प्रतीक याद आ गया। उससे जुड़ा ये किस्सा भी जो मैंने मीरा को बताया और मीरा ने मुझे। क्या कभी मैंने और मीरा ने सोचा होगा कि हम दोनों के तार एक आदमी से जुड़े होंगे। मुझे इस बात की हल्की सी खुशी थी कि इसे हम दोनों के अलावा कोई नहीं जान पायेगा, प्रतीक तो बिल्कुल भी नहीं। 
     मुझे उसकी याद तो नहीं आती बस कभी-कभी उसके कहे शब्द याद आते हैं- ‘प्रतिक्रियास्वरूप, आपके मुँह से आई लव यू सुनना पता नहीं कैसा लगता...।’

देवरानी की कहानी

     प्रतीक! 
     कुछ दिनों तक इस नाम ने मेरे भीतर घण्टियाँ बजाई थीं। मेरा भाई उस रविवार तक मुझे ‘मीरा का प्रतीक’ कहकर चिढ़ाता था। मेरी और प्रतीक की मुलाकात - पहली भी और आखिरी भी - सिर्फ पन्द्रह-बीस मिनट की थी। लगभग तय हो चुके रिश्ते की छोटी सी मुलाकात।
     अठ्ठारह साल बहुत बड़ी अवधि होती है, फिर भी कुछ बातें या कुछ लोग ऐसे होते हैं जो हमारे भीतर जगह घेरकर बैठ जाते हैं, हमेशा के लिए। प्रतीक मेरे भीतर कहीं जगह बनाकर बैठा हुआ है। 
     संयोगिता की कहानी के अनुसार अगर समय की गणना की जाये जिस समय प्रतीक मुझे देखने आया था उस समय ताजा-ताजा संयोगिता से उसका नाता टूटा था। उस समय वह एक हारा हुआ, टूटा हुआ इन्सान था मगर मुझे वह कहीं से भी ऐसा नहीं लगा था।
     चलो, शुरू से ही शुरू करती हूँ। घर में मेरे रिश्ते की बातें शुरू हो चुकी थीं। मैं टिपीकल घरेलू लड़की थी, अब टिपीकल घरेलू बीवी हूँ। जब भी ऐसी कोई चर्चा होती थी तो मन में मीठी सी हिलौर उठती थी। एक दिन मेरा बड़ा भाई शाम को कहीं से लौटा तो उसकी आँखें चमक रही थीं और उसी शाम उसने मम्मी पापा के साथ सिर से सिर जोड़कर बातें भी कीं। तीन दिन बाद मेरी बड़ी बहन जीजा जी और भाई के साथ कहीं गई और जब वे घर आये तो उनकी आँखें भी चमक रही थीं।
     आखिरकार, उसी रात को उनकी आँखों की चमक का राज खुला। बहन ने बताया कि उन्होंने मेरे लिए एक लड़का देखा है। वह क्नॉट प्लेस में एक ट्रेवेल एजेन्सी में काम करता है और लगभग छह फुट लम्बा और अच्छे नैन नक्ष वाला भोला सा लड़का है। कमी सिर्फ यही थी कि वह अभी सिर्फ दो हजार रुपया कमाता है। मगर इस कमी को फिलहाल मेरे घरवालों ने इग्नोर कर दिया था। पता नहीं, उस दिन मुझे क्या हुआ था कि मैंने ये सारी बातें ऐसे सुनी जैसे किसी और के लिए की जा रही हों।
     सबसे पहले मेरे भाई ने उस लड़के ‘प्रतीक’ को उसके ऑफिस के बाहर बिचौलिए के साथ देखा था। देखते ही भाई ने उसे पसन्द कर लिया था। फिर भाई बड़ी बहन और जीजा को ले गया। उन दोनों को भी प्रतीक देखते ही पसन्द आ गया। और तीसरी बार भाई हमारी माँ को भी कनाट प्लेस ले गया। इस बार तो सचमुच ही मुझे उस पर तरस आया कि बेचारे की तीन बार दिखाई हो गई। भाई उसके लिए बहुत उत्साहित था। उसका बस चलता तो रोज अपने रिश्तेदारों को लेकर उसे देखने जाता। उस समय मोबाइल फोन नहीं होते थे वर्ना भाई उसका फोटो खींचकर ले आता। मुझे हैरानी हो रही थी कि उस बेचारे की तीन बार रस्म दिखाई हो गयी है जबकि मुझे देखने अभी तक कोई नहीं आया।
     बकरे की माँ कब तक खैर मनाती। वह एक शानदार रविवार का दिन था। इस रविवार के बाद आने वाले रविवारों में ही मेरी जिन्दगी का फैसला होने वाला था। उस दिन प्रतीक के माँ बाप मुझे देखने आये। मुझे उन्होंने पसन्द कर लिया और इतना पसन्द किया कि उसकी माँ ने मेरे हाथ में पाँच सौ एक रुपये रखे और कहा लड़की हमारी हुई। मेरे माँ बाप भाई बहन तो खुशी से फूले नहीं समाये क्योंकि उन्हें तो लड़का पहले से ही पसन्द था और उनके अनुसार तो घरबार भी बहुत अच्छा था। कितनी अजीब बात थी कि जिनकी शादी होने वाली थी उन्होंने एक दूसरे को अभी तक नहीं देखा था। मैं कम से कम रोके के पैसे नहीं लेना चाहती थी मगर भाई और माँ के आँखें दिखाते चेहरों ने रोक दिया। तो इस पहले रविवार को मैं उनकी हो गई। उनके जाने के बाद एक घरेलू लड़की का विरोध मेरे घरवालों को पसन्द नहीं आया।
     अगला रविवार तय हुआ कि लड़का लड़की को देखने आयेगा। मैं भी इस दिन का बेसब्री से इन्तजार कर रही थी। मैं भी तो उस लड़के को देखना चाहती थी कि आखिर उसमें ऐसा क्या है जिसे तीन चार बार देखा गया है और पसन्द किया गया है। 
     उस दिन सुबह से ही तैयारियाँ शुरू हो गईं। घर की सफाई, बिस्तरों पर नई चादरें, सोफों के नये कवर, खाने का कई तरह का सामान वगैरह वगैरह। मुझे मेरा सबसे अच्छा सूट पहनने को कहा गया। मैंने पहना भी। 
     बढ़ती धुकधुकी के साथ मैंने उसे देखा। वह अपने माँ बाप, छोटे भाई बहन और अपने पिता के दोस्त के साथ आया था। जैसा बताया गया था वह वैसा ही था, बस मुझे हल्का सा खटका हुआ। उसके बाल आगे से हल्के उड़ने लगे थे यानि भविष्य में मैं गंजे की बीवी कहलाऊँगी। फिर भी मैं राजी थी, मुझे वह पसन्द आ गया था। भविष्य के बारे में भविष्य ही जाने।
     लगभग एक घण्टे बाद हमारी अकेले में मुलाकात सम्पन्न हुई, पहली और आखिरी। सौजन्य कुसुम, मेरी बड़ी बहन।      हम आमने सामने बैठे थे। खामोशी की अवधि बढ़ती जा रही थी और धड़कनें भी। मेरे हिसाब से उसे पहल करनी चाहिए मगर वह विचलित सा मेरे सामने बैठा था। 
     अन्ततः वो ही बोला, ‘मीरा जी, आप कुछ पूछना चाहती हैं मुझसे?’ 
     मीरा जी तो बहुत कछ पूछना चाहती थीं मगर इस समय उन्हें कुछ याद नहीं हैं। उसका ‘मीरा जी’ कहना अच्छा लगा। क्या वह शादी के बाद भी मुझे मीरा जी कहेगा? यही पूछ लूँ? पर मैंने कुछ नहीं कहा। 
     ‘मैंने सुना नहीं आपने क्या उत्तर दिया?’, वह कुछ देर बाद फिर बोला। 
     ‘मैंने तो उत्तर दिया ही नहीं।’, अनायास ही मेरे मुँह से निकला। 
     ‘तो कब तक इन्तजार करना है, वैसे तो मैं कर रहा हूँ।’ 
     मुझे बड़ा अजीब लगा, खुद तो कुछ पूछ नहीं रहा और मुझे जोर दे रहा है। आखिरकार, मुझे ही कहना पड़ा, ‘आपकी मदर बता रही थीं आप लेखक हैं, कहानियाँ लिखते हैं। कैसी कहानियाँ लिखते हैं आप?’ 
     ‘कुछ भी ऐसा जो समाज के लिए महत्वपूर्ण नहीं है। कोरी व्यक्तिगत समस्याओं वाली कहानियाँ जो आपकी भी हो सकती हैं, मेरी भी या किसी की भी हो सकती हैं। जिनमें सामाजिक सरोकार नहीं है, कोई आदर्शवाद नहीं है।’
     मुझे कतई पल्ले नहीं पड़ा, वह क्या बताना चाह रहा था। कुछ और बातें भी हुईं जो उससे सम्बन्धित थीं मुझसे नहीं, उसने मुझसे कुछ नहीं पूछा था। कमरे से बाहर निकलते हुए उसने कहा था, ‘आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा ले...’ बाकी के शब्द उसने रोक लिये। मुझे उलझन में छोड़ वह बाहर निकल गया। मुझे मालूम ही नहीं हुआ कि उसने मुझे पसन्द किया या नहीं।
     ड्राइंग रूम में आगे की रूपरेखा तैयार की जा रही थीं। पापा और भाई लड़के को रोकना चाहते थे। भाई ने प्रतीक को ग्यारह सौ रुपये देने चाहे मगर प्रतीक ने बहुत ही शालीनता से मना कर दिया। रूपरेखा के अनुसार अगले रविवार प्रतीक के घर जाना तय हुआ था इसलिए प्रतीक ने मना करते हुए कहा कि वह ये शगुन अगले रविवार लेगा, अभी नहीं। प्रतीक का मना करना मुझे खटका, फिर लगा, लड़का समझदार है, दो बार पैसा नहीं लेना चाहता। कमरे का वातावरण कह रहा था कि रिश्ता पक्का हो गया है लेकिन मेरे मन का निगेटिव हिस्सा कह रहा था कि कहीं गड़बड़ है।
     अगला रविवार आया तो लेकिन उससे पहले कुछ और आ गया। दो दिन पहले बिचौलिया हमारे घर आया और उसने बताया कि उसे मालूम हुआ है कि लड़के को लड़की पसन्द नहीं आई। चूँकि उसकी माँ ने लड़की रोक दी है इसलिए वह अपने माँ बाप की बात रखने के लिए मुझसे शादी करने के लिए तैयार है और ये बात उसे प्रतीक के पिता के दोस्त ने बताई थी जो उस दिन उन लोगों के साथ आया था। प्रतिक्रियास्वरूप, मेरे माँ बाप ने प्रतीक को जी भरकर कोसा और उसके माँ बाप के बारे में खूब बुरा भला कहा। मुझे कुछ नहीं हुआ और भाई शांत था। 
     वे लोग शादी के लिए तैयार थे मगर हमारे यहाँ से दिल खट्टा हो चुका था और समस्या ये थी कि मना कैसे किया जाये और मना भी हमारी तरफ से होना है। बिचौलिये ने राय दी कि शादी कर देते हैं, शादी के बाद अपने आप लड़का लड़की को पसन्द करने लग जायेगा लेकिन कोई तैयार नहीं हुआ और खुद मैं भी नहीं। हालाँकि, मैं अकेली विरोध कर रही होती तो मेरी कोई भी नहीं सुनता।
     आखिरकार, बिचौलिये को समझा दिया गया और उसने रविवार को फोन पर प्रतीक के घरवालों को सूचित किया कि लड़की के ताऊ ने रिश्ते से इन्कार कर दिया है क्योंकि लड़का सरकारी नौकरी वाला नहीं है। 
     बाद में मालूम हुआ कि प्रतीक के माँ बाप ने बिचौलिये और मेरे माँ बाप को जी भर कर बुरा भला कहा था। दस-दस बार लड़के को उसके ऑफिस में देखा था तब पता नहीं था कि वह सरकारी नौकरी नहीं करता और आज उन्हें रातों-रात सरकारी नौकरी वाला लड़का चाहिए।
     कैसी विडम्बना थी, प्रतीक के दोनों रिश्ते सरकारी नौकरी न होने के कारण टूट गये। और रिश्ता भी कैसा? एक, जो वह खुशी से बनाना चाहता था और दूसरा, मजबूरी से। खैर! जो होता है अच्छे के लिए ही होता है। संयोगिता के साथ उसकी शादी न होना अच्छा ही रहा क्योंकि वो तो उसे चाहती ही नहीं थी। प्यार का दम भरने के बावजूद भी नहीं। अगर वह सचमुच उससे प्यार करती तो ऐसा नहीं करती। उसे हासिल करने के लिए कहीं तो लड़ती, कहीं तो खड़ी होती। और मेरे साथ.........मैं तो उसे पसन्द ही नहीं थी..........एक क्षणिक भर की मुलाकात इतिहास नहीं बनाती।
     मैं सोच भी नहीं सकती थी कि संयोगिता के घर एक पुरानी फोटो एल्बम होगी जिसमें प्रतीक का फोटो होगा जो हम दोनों के भीतर हलचल मचा देगा और जो कुछ दिनों तक हमें कचोटता रहेगा। क्या कहा था उसने?... ‘आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा ले...’
     उसका छूटा हुआ ‘ले’ लेकिन ही था क्योंकि मैं उसे पसन्द नहीं आई थी। इस बात का मुझे कभी बुरा भी नहीं लगा था क्योंकि हमारा बस सिर्फ अपने पर ही होता है किसी दूसरे पर नहीं। पर मैंने तो उसे पसन्द किया था। सच कहूँ, जिससे मेरी शादी हुई है, मैं उसमें प्रतीक ढूँढती थी, वो प्रतीक जो कभी था ही नहीं। 
     जैसा संयोगिता ने कहा था, ‘दिल्ली में मेरा मायका और उसका घर होने के बावजूद हम फिर कभी नहीं मिले।’, हमारी भी कभी मुलाकात नहीं हुई। अगर ये फिल्म या कोई कहानी होती तो जरूर हमारी मुलाकात हो चुकी होती मगर असल जिन्दगी में कुछ नहीं होता, चाहने के बावजूद भी कुछ नहीं होता। 
     आखिर में, संयोगिता से एक बात और पता चली। आज प्रतीक पुलिस विभाग में है, सरकारी नौकरी है उसके पास...।

Thursday, September 11, 2014

फेसबुक मित्र

   
 दिल्ली एयरपोर्ट। सुबह आठ बजकर पचास मिनट।
     मैं ठीक समय पर पहुँच गया था। एयरपोर्ट के डिपार्चर लाउन्ज में खड़ा उसे आसपास तलाश कर रहा था। मुझे विश्वास था कि मैं उसे पहचान जाऊंगा। मैंने उसे कभी नहीं देखा था सिर्फ फेसबुक में लगी तस्वीर देखी थी। जब वह कहीं नहीं दिखाई दी तो मैंने मोबाइल फोन पर उसका नम्बर मिलाया। दूसरी तरफ तुरन्त घण्टी बजी मानों उसका मोबाइल मेरे ही नम्बर की प्रतीक्षा कर रहा हो।
     ‘हैलो?’, उसका परेशान और व्याकुल स्वर मेरे कानों में पड़ा।
     ‘
क्या आप अभी पहुँची नहीं? मैं आ चुका हूँ।’, मैंने हिचकते हुए धीमे स्वर में कहा।
     ‘मैं रास्ते में हूँ। ड्राइवर बता रहा था कि बस पहुँचने ही वाले हैं।’
     ‘ठीक है।’, मैंने कहा और फोन काट दिया।
     एकाएक मुझे कुछ याद आया। मैं लिफ्ट से नीचे एराइवल लाउन्ज में आया जहाँ एक गिफ्ट शॉप से मैंने उसके लिए एक ‘लॉफिंग बुद्धा’ खरीदा। पहली बार मिलने जा रहा हूँ उससे, कुछ तो देना ही पड़ेगा। गिफ्ट शॉप भी शायद अभी खुली थी क्योंकि सेल्समैन की आँखों का उनींदापन मेरी आँखों में उतरने लगा था।
     आज तेरह अप्रैल दो हजार ग्यारह है। मैं फेसबुक नियमित प्रयोग नहीं करता हूँ। 
कभी-कभी ही खोलता हूँ। उस दिन जब खोला तो मेरे पेज पर उसका मैसेज मेरी ओर रहस्यमय ढँग से देख रहा था। आठ मई को भेजे गए उस मैसेज में उसने अँग्रेजी में लिखा था - मैं दस मई को दिल्ली आ रही हूँ। अपना मोबाइल नम्बर दो, पहुँचने के बाद सम्पर्क करूँगी।
     तकरीबन छह महीने पहले फेसबुक पर वह मेरी दोस्त बनी थी। उसके साथ अधिक तो कुछ शेयर नहीं हुआ था, बस चैट पर कुछ हाल-चाल, दो चार कमेन्ट्स और परिवार में बारे में मामूली जानकारी। बातचीत कभी नहीं हुई जो न मैंने महसूस की और न उसने। वह कैलिम्पोंग, पश्चिम बंगाल में रहती है, वहाँ के किसी अस्पताल में काम करती है, शादीशुदा है, दो बच्चे हैं।
     क्या संयोग था कि उस दिन दस तारीख थी। उसने तारीख तो बता दी, समय नहीं बताया, सुबह, दोपहर, शाम, रात। वह आज इस शहर में है क्योंकि अब रात हो चुकी है और शायद वह अपने मैसेज का वो जवाब देख चुकी होगी जो उसे भेजा ही नहीं गया। और वह मेरे बारे में कोई भी बुरा अनुमान लगा चुकी होगी? मुझे बड़ा अजीब सा लगा, वह दिल्ली में है मेरे अपने शहर में और मैं उसका पता नहीं जानता। वह मेरे शहर में साँस ले रही है और मैं उसका पता नहीं जानता। उसे भी वो हवा छू रही होगी जो मुझे छू रही है और मैं उसका पता नहीं जानता। मैंने तुरन्त मैसेज का उत्तर दिया था यानि अपना मोबाइल नम्बर लिख भेजा। पर मुझे लग रहा था कि मेरा यह उत्तर अपना अर्थ खो चुका है।
     उस रात मैं बिल्कुल नहीं सो पाया। मोबाइल सिरहाने खामोश पड़ा रहा जैसे उसका मुझसे, उससे और कैलिम्पोंग से कोई सम्बन्ध न हो। कितनी अजीब बात है कि जब वह मेरी मित्र बनी थी तब मैंने उसके बारे में कभी नहीं सोचा था क्योंकि फेसबुक पर बहुत से अनजान लोग मित्र बन जाते हैं जो हमारी मित्र सूची की संख्या तो बढ़ाते हैं लेकिन हम उनसे कभी बात नहीं करते और न ऐसी कोई जरूरत ही समझते हैं और आज जब वह मेरे शहर में है तो सारी रात उसी के बारे में सोचता रहा, बेचैन रहा। एक बेहूदा-सा ख्याल भी आया, क्या वह भी मुझे याद कर रही होगी? इतनी ही बेचैनी से?
     मैं फिर डिपार्चर लाउन्ज में था। सुबह सात बजे उसका फोन आया था, पहली बार। सुबह के मेरे अलसाएपन को उसकी आवाज ने झिंझोड़ कर भगा दिया था। मेरे भीतर एक अजीब सी हलचल मचा दी थी।
     ‘मैं अभी दिल्ली एयरपोर्ट के लिए निकल रही हूँ। मेरी बागडोगरा की फ्लाइट सवा ग्यारह बजे की है। मेरे पास एक डेढ़ घण्टे का समय है क्या मेरा फेसबुक फ्रैण्ड मुझसे मिलने एयरपोर्ट आ सकता है?’
     क्या कुछ कहा जा सकता था सिवाय हामी के?
     आखिरकार, वह मुझे दिखाई दी। सबसे पहले टैक्सी के खुले दरवाजे से जींस में मौजूद उसका पैर बाहर आया। पाँवों में प्यूमा की सैन्डिल। फिर वो चेहरा, जिसे देखने के लिए मैं दस तारीख की सारी रात जागता रहा था। उत्तर पूर्वी लड़कियों से कुछ अलग पर वैसी ही मासूमियत और आँखों में वैसी ही निर्विकारता। वह खूबसूरत तो नहीं थी पर साधारण भी नहीं थी, वह सिर्फ विशेड्ढ थी, आज, मेरे लिए।
     मैंने एक सुकून भरी साँस ली। लेकिन वह अकेली नहीं थी। उसके साथ दो बच्चे थे। एक लड़का और लड़की। लड़की बड़ी थी शायद दस या ग्यारह साल की और लड़का छह या सात का। अभी उसने मेरे लिए आस पास देखना शुरू नहीं किया था। वह सामान उतारने में व्यस्त थी।
     बिल्कुल यही क्षण था जिसमें मुझे आगे बढ़ना था, न कि वहीं बुत बना खड़े रहना था।
    ‘हैलो?’, मैंने उसके पास जाकर धीमे से कहा। अपना बैग जमीन पर रखते हुए वह चौंक गयी और उसने मुझे कोरे अजनबीपन से देखा। मुझे ठीक से देखकर भी पहचान के चिन्ह उसकी आँखों में नहीं आए थे। मैं यही अनुमान लगा पाया कि वो यहाँ थी ही नहीं।
     बड़ी दुविधा भरी स्थिति थी। लैपटॉप का बैग थामें, जिसमें लॉफिंग बुद्धा का पैकेट था जो मैंने उसके लिए खरीदा था, एयरपोर्ट की जमीन पर मैं विचित्र बेचैनी से उसे देख रहा था।
     ‘मैं आपका फेसबुक फ्रैण्ड। आपने मुझे फोन किया था।’
     ‘ओह, आइम रियली सॉरी। मेरे दिमाग से बिल्कुल ही उतर गया था।’, एक छोटी सी मुस्कान उसके चेहरे पर आई। तभी मुझे वो दिख गया, उसकी गर्दन के सिरे पर जहाँ कॉलर बोन के मिलने से जो गड्ढा बनता है, उस गड्ढे के बीचो बीच में उभरा हुआ छोटा सा काला तिल। जो उसे औरों से अलग बनाता था।
     ‘लाइये मैं मदद करता हूँ।’, मैंने कहा और कार की डिक्की से सामान उतारने लगा।
     उसने न विरोध किया न ही समहति दी बस असमंजस में खड़ी मुझे देखने लगी। दोनों बच्चे सामने लगी सामान के लिए ट्रॉली ले आए थे। मैं उनकी ओर देखकर मुस्कराया परन्तु वे परिचय के दायरे में दाखिल नहीं हुए।
     ‘बच्चों, ये मेरे फेसबुक फ्रैण्ड हैं, यहीं रहते हैं, मुझसे मिलने आये हैं।’, उसने सन्तुलित शब्दों में बच्चों से मेरा परिचय कराया। बच्चों ने लक्ष्मण रेखा बनाए रखी।
     टैक्सी वाले को किराया देने के बाद अपने सामान और बच्चों के साथ खड़ी उसने पहली बार मेरी आँखों में झाँकते हुए मुस्कराकर पूछा, ‘सो, माई फ्रैण्ड, हाउ आर यू?’
     ‘मैं ठीक हूँ पर क्या आप ठीक हैं?’, मैंने पूछा।
     ‘अगर सच कहा जाए तो नहीं। मैं बिल्कुल ठीक नहीं हूँ।’, उसकी आवाज डूबी हुई थी।
     ‘अभी चैक इन करने में टाइम है। क्यों न हम कहीं बैठ जाएँ?’, मैंने हिचकते हुए कहा।
     उसने आसपास देखा। मैं उसका मंतव्य समझ गया।
     ‘एराइवल लाउन्ज में बैठने की जगह है। वह नीचे है, वो सामने।’, मैंने उसे इशारे से दिखाया।
     उसने सहमति में सिर हिलाया। सामान उठाए हम चारों नीचे एराइवल लाउन्ज में आ गए।
    हम दोनों एक दूसरे के नजदीक बैठ गए। दोनों बच्चे उसी गिफ्ट शॉप के पास चले गए जहाँ से मैंने उसके लिए लॉफिंग बुद्धा खरीदा था जो अभी भी मेरे लैपटॉप बैग में रखा था। उसे देने का अभी उचित समय नहीं आया था। उसके गोरे चेहरे पर तनाव की रेखाएँ थीं और उसकी धँसी हुई आँखों में पीड़ा। क्या हुआ है उसके साथ? मुझे बात करने का सिरा नहीं मिल रहा था। तभी वह बोली, जैसे मुझसे नहीं खुद से कह रही हो।
     ‘मैंने कहीं सुना था जो मुझे याद रह गया कि हमारा कोई भविष्य नहीं होता। हमारा वर्तमान ही हमारे भविष्य को निर्धारित करता है। वर्तमान में किये जा रहे कामों के परिणामों और दुष्परिणामों का जो रूप है वही भविष्य है। लेकिन फिर भी हम जिस छलावे के पीछे भागते हैं उसी में अपना भविष्य खोजते हैं पर हाथ कुछ नहीं आता।’
     मैं समझ नहीं पाया वो क्या कहना चाह रही है। वह हिन्दी अच्छी बोल लेती है। मैंने उसकी प्रोफाइल में देखा था कि वह हिन्दी, अंग्रेजी, नेपाली और बांग्ला भाषाओँ की जानकार है।
     ‘मैं बच्चों के लिए कुछ लेकर आता हूँ।’, मैंने कहा और उठ खड़ा हुआ।
     ‘रुको। कल रात तक मैं निश्चिन्त नहीं थी आपसे मिलने के लिए। मुझे जरूरत नहीं लग रही थी मगर रात में ऐसा कुछ हुआ कि उन लोगों ने मुझे रात में ही जाने के लिए कह दिया, तब मुझे आपका ध्यान आया कि दिल्ली की आखिरी रात अपने दो बच्चों के साथ मैं सिर्फ आपके पास ही जा सकती हूँ क्योंकि और कोई नहीं था मेरा यहाँ। फिर उनसे रिक्वैस्ट कर मैंने फेसबुक एकाउन्ट खोलकर आपका मोबाइल नम्बर नोट किया। बट फाइनली, रात बीत ही गयी। लेकिन आपसे मिलना लिखा था और मैंने सुबह होते ही आपको फोन कर दिया।’, तनाव का कुछ हिस्सा उसके चेहरे से उड़कर हवा में घुल गया और वो हवा मेरी साँसों के साथ मेरे भीतर चली गयी।
     ‘कौन थे वे लोग, जो आपको रात में ही चले जाने के लिए कह रहे थे?’, मुझे लगा मेरी आवाज रुँआसी हो गयी है।
     ‘कौन थे वे लोग...?’, उसने धीरे से दोहराया, ‘...वे लोग...उनके परिवार वाले थे।’
     ‘किनके?’, मैं पूछना चाह रहा था मगर प्रश्न मेरे भीतर से नहीं निकला क्योंकि वह यहाँ नहीं थी। वह शायद वहीं लौट गयी थी जहाँ से अभी आ रही है। मैंने सोचा था कि उससे पहली मुलाकात बहुत अच्छी होगी। मेरे लिए शायद हमेशा के लिए यादगार मगर जैसा हम सोचते हैं वैसा कहाँ होता है?
     ‘आपने कुछ कहा?’, कुछ क्षण पश्चात उसने चौंककर मेरी ओर देखा।
     ‘मैं कह रहा था कि आप और बच्चे कुछ लेंगे, चाय, कॉफी वगैरहा। शायद आपने सुबह से कुछ नहीं खाया।’
वह कुछ देर चुप रही, फिर बोली, ‘मैं बच्चों से पूछकर आती हूँ। आपके सामने पूछूँगी तो वे शायद बता न पाएँ।’, वह उठी और बच्चों के पास चली गयी।
     मैं अकेला उसके सामान के पास बैठा रहा। सोचने के लिए मेरे पास कुछ नहीं था क्योंकि सोचने के रास्ते में वो खड़ी थी। तभी मेरा मोबाइल बजा, पत्नी का फोन था।
     ‘हैलो।’
     ‘एयरपोर्ट पर ही हो?’, उसने पूछा।
     ‘हाँ।’
     ‘आ गयी आपकी पहाड़न?’, वह मेरी इस दोस्त को मजाक में पहाड़न कहती है। दस तारीख की बेचैनी वाली रात को ही उसने उसका नामकरण कर दिया था।
     ‘हाँ। आ गई।’
     ‘हाय राम! क्या मैंने आप दोनों को डिस्टर्ब कर दिया?’, उसने खिलखिलाते स्वर में कहा।
     ‘वो पहले से ही डिस्टर्ब है। मैं बाद में बात कँरू?’, मैंने पटाक्षेप करते हुए कहा।
     ‘कोई सीरियस बात है क्या?’
     ‘हाँ। बाद में बताता हूँ।’
     ‘ठीक है।’, उसने कहा और फोन काट दिया।
     वह लौट आई। बच्चे भी उसके साथ थे।
    ‘बच्चे आपके साथ जाने के लिए तैयार हैं। ये अपनी पसन्द की चीज लाएँगे।’, अब उसका चेहरा धुल सा गया था। तनाव की काली छायाएँ कहीं छिपकर बैठ गयीं थी।
     दोनों बच्चे मेरे साथ चल दिये। दोनों अपनी माँ पर गए थे, वैसा ही गोरापन, वैसी ही मासूमियत। बच्चे अपना सामान लेकर तुरन्त अपनी माँ के पास चल दिये। मैंने उसके लिए कॉफी और सैंडविच लिया। मैं वापस आता हुआ उसे देख रहा था। बच्चों की खुशी से वह भी खुश दिख रही थी। जब मैंने उसे कॉफी और सैंडविच दिया तो मैंने उसके चेहरे को नहीं देखा। मैंने उसके कॉलरबोन के गड्ढे के तिल को देखा। मेरी तीव्र इच्छा हुई कि मैं उस तिल को अपनी जीभ से स्पर्ष करूं मगर जितनी तेजी से ये विचार मेरे मन में आया था उतनी तेजी से ही मैंने उसे झटक दिया। मिथ्या इच्छाओं से कुछ हासिल नहीं।
     ‘आप...?’, उसने हिचकते हुए दोनों चीजें पकड़ी।
     ‘मैं ब्रेकफास्ट करके आया हूँ।’, मैंने कहा, ‘आप खाइये, मैं अभी आया।’
     मैं फिर उसी काउन्टर पर आया और दोनों बच्चों के लिए चॉकलेट खरीदी। मैं दूर से उन्हें देख रहा था। बच्चे शरारत करते हुए खा रहे थे और वो वात्सल्य भाव ने दोनों को देख रही थी। उसने ब्राउन टीशर्ट पहनी थी, उससे उसके चेहरे का गोरापन और बढ़ गया था और चमक भी।
     चॉकलेट मिलने से बच्चे और खुश हो गए। दोनों लाउन्ज में खेलने चले गए।
     ‘आपके पति साथ नहीं आए?’, मैं बातचीत का सिरा टटोलता हुआ आगे बढ़ा।
     उसने गर्दन मोड़कर मेरी ओर तनिक आश्चर्य से देखा जैसे बहुत गैरजरूरी सवाल पूछ लिया हो। गर्दन मुड़ने से उसके गड्ढे की हड्डी उभर आई थी और उसका तिल तिरछा होकर मुझे दिखाई दे रहा था।
     ‘मैं यहाँ अपने पति से ही मिलने आई थी।’, उसने धीमे स्वर में कहा, ‘ही इज़ गोइंग टू डाई।’
     उसके आखिरी पाँच शब्दों ने मेरे भीतर विस्फोट कर दिया और सब चिथड़ा-चिथड़ा हो गया। मुझसे कुछ नहीं कहा गया। क्या? कैसे? क्यों? कुछ भी नहीं। कुछ बातें हैं जो हम सिर्फ बीच से सुनते हैं, न हमें उसके आरम्भ का पता होता है और न अन्त का।
     ‘कैंसर हो गया उसे, गले का कैंसर। अब तो बोल भी नहीं पाता। किसी भी टाइम वो मर सकता है।’, वह भावशून्य स्वर में कह रही थी, ‘उसी ने मुझे यहाँ बुलाया था कि मैं आखिरी बार उसे देख लूँ। मैं भी उसे आखिरी बार देखना चाहती थी। उसे तड़पते हुए मरता देखना चाहती थी।’
     ‘क्या हुआ ऐसा? मेरा मतलब है, वो आपके साथ क्यों नहीं रहते?’
     ‘कैसे रह सकता है वो मेरे साथ? उसका यहाँ परिवार है, मुझसे शादी करने से भी पहले का परिवार। मुझसे तो बारह साल पहले शादी की थी लेकिन वो तो बीस साल पहले से शादीशुदा था। मैं तो प्यार में मर गयी थी मगर वो अपने झूठ और फरेब में जिन्दा रहा, हमेशा। और आज वो सचमुच मर रहा है। अच्छा है, मैं पूरी तरह मुक्त हो जाऊँगी।’
     ‘मौत के इतने करीब व्यक्ति के लिए आपको ऐसा नहीं कहना चाहिए।’, कुछ बातें हैं जो मैं नहीं कहना चाहता हूँ मगर न चाहते हुए भी वे बातें मुँह से निकल पड़ती हैं जिसके लिए मुझे बाद में पछताना पड़ता है।
     तभी उसके मोबाइल फोन में मैसेज टोन बजी। अपने हाथ में पकड़े फोन को आँखों के दायरे में लाकर वह मैसेज पढ़ने लगी। वह
होंठ हिलाकर पढ़ रही थी। मैं उसकी बगल में बैठा उसके हिलते होंठो को देख रहा था। एक मैजिक बन रहा था और एक और इच्छा का जन्म हो रहा था। मैं चाह रहा था कि उसके हिलते होठों की थिरकन मेरे होठों पर आ जाये, पर ये जादू का पल बहुत अल्प समय का था, टूट गया और मेरी इच्छा वहीँ मर गई।
     ‘आप जानते नहीं उसके बारे में, इसलिए ऐसा कह रहे हैं।’, एक फीकी मुस्कराहट से उसके होंठ रंग गए जो अभी पिछले क्षण हिल रहे थे, ‘इनका कलकत्ता में हॉस्पिटल इक्विपमेंट का बिजनेस है। मेरे हॉस्पिटल में भी ये आया करता था, वहीं मेरी इससे पहचान हुई और बाद में शादी। जब मेरी बेटी पैदा हुई तब मुझे मालूम हुआ कि ये तो बहुत पहले से शादीशुदा है लेकिन अपनी फरेबी कहानियों से वह मुझे बहलाता रहा। मुझे नौकरी नहीं छोड़ने दी और मुझे वहीं रहने के लिए मजबूर किया जबकि मैं उसके साथ उसके घर में दिल्ली में रहना चाहती थी मगर मैं बेवकूफ बनती रही, बनती रही।’, उसने एक गहरी साँस छोड़ी जो वह पता नहीं कितनी देर से अपने भीतर जमाकर बैठी थी।
     मैं कुछ नहीं बोला, बस उसके चेहरे पर आती जाती रेखाओं को देख रहा था।
    ‘कहते है कि औरत को समझना बहुत मुश्किल होता है लेकिन मैं कहती हूँ कि आदमी को समझना तो उससे भी अधिक मुश्किल होता है। मैं तो किसी भी आदमी को नहीं समझ पाई। अपने पिता तक को नहीं। 
पता है, जब मैं बहुत छोटी थी और हम लोग गंगटोक में रहते थे, वहाँ मेरे पास ढेर सारी गुड़ियाँ थीं...।’, मुझे लगा, वह अतीत के जंगल में घुस गई है क्योंकि उसकी आँखें ठहर गयीं थी और चेहरा स्थिर हो गया था, सिर्फ उसके होंठ हिल रहे थे, ‘...मेरे पिता और चाचा नेपाल, तिब्बत, भूटान जाते थे तो वहाँ से मेरे लिए गुड़िया लेकर आते थे। फिर हम लोग कैलिम्पोंग चले गए। उस दौरान मेरे पिता ने मुझसे कहा था कि उन्होंने मेरी सारी गुड़ियाँ रख ली हैं मगर उन्होंने मुझसे झूठ कहा था। उन्होंने सब की सब वहीं गंगटोक में छोड़ दी थीं कबाड़ समझ कर। मैं कई दिनों तक रोती रही थी और सामान में अपनी गुड़ियाँ खोजती रही थी। इतने प्यार करने वाले मेरे पिता ने मेरा दिल दुखाया था और क्यों दुखाया था ये मैं आज तक नहीं जान पाई। और आज जो अपने कर्मों को फेस कर रहा है, वह समझता है कि मुझे यहाँ उसका प्यार खींच लाया है। प्यार...ये प्यार भी बड़ी कमीनी चीज होती है। क्यों?’
     ‘पता नहीं।’, मैंने अनिश्चय स्वर में कहा। पता नहीं, प्यार कमीनी चीज है या नहीं लेकिन ये मैं अभी भी नहीं समझ पाया था कि मुझे यहाँ क्या खींच लाया था? दोस्ती, एक अजनबी सी फेसबुक की दोस्ती या एक औरत से मिलने का लालच या किसी औरत से नजदीकियाँ बढ़ाने का अवसर या...?
     जब हम दूर बैठे किसी के बारे में सोचते हैं तो ऐसा लगता है दूर बैठा व्यक्ति सचमुच सुखी होगा, खुश होगा, हमसे बेहतर जिन्दगी जी रहा होगा, उसे दुख छू भी नहीं गया होगा मगर आज जो मेरे सामने बैठी है वह दुख की सबसे बड़ी मूर्ति लग रही है। दुख सभी को होता है, पर कहीं साफ और चमकदार होता है तो कहीं धुँधला, मुरझाया हुआ। क्या मैंने कभी उसके बारे में ऐसा सोचा था?
     ‘एक बात और। आप दिल्ली वाले हमारे बारे में क्या सोचते हो? हम कैरेक्टरलेस होती हैं क्या? वो बिच, मेरे बारे में कह रही थी ये चिंकी लड़कियाँ बहुत ओपन होती है, इनका कोई कैरेक्टर नहीं होता, किसी के साथ भी...।’, पहली बार मैंने उसके चेहरे पर गुस्सा देखा।
     दुखी होने से गुस्सा होना ज्यादा अच्छा है, उससे चेहरे की चमक और स्मार्टनेस बढ़ जाती है। दुख खुद को और सामने वाले दोनों को ही बेचैन कर देता है।
     ‘...हम नार्थ ईस्ट की लड़कियाँ को कोई इण्डियन ही नहीं समझता।’, वह अभी भी रोष में बोल रही थी।
     ‘गलत समझते हैं लोग।’, कुछ कहने की वजह से मैंने कहा।
     ‘और आप क्या समझते हो मेरे दोस्त?’, उसने फिर गर्दन मोड़कर मेरी ओर देखा।
     मैं अचकचा सा गया। मैंने एक क्षण उसकी आँखों में देखा, अगले क्षण उस तिल को और उससे अगले क्षण कहीं नहीं देखा।
     ‘मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा।’, मैंने जल्दी से कहा, ‘और आज आपसे मिलने के बाद तो मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता। कोरा अनुमान लगाना और सच्चाई के साथ अनुमान लगाना दोनों अलग बातें हैं। मैं समझता हूँ आप बिल्कुल अलग है। जब सुबह आपका फोन आया था और आपने बड़े ही अधिकारपूर्ण ढँग से मुझे मिलने आने के लिए कहा तो मुझे अच्छा लगा था। ऐसा महसूस हुआ कि आपकी मुझसे बरसों पुरानी पहचान है और मेरे लिए आप नितान्त अजनबी। आपके कहते ही मैं तुरन्त चला आया लेकिन शुरू से ही मेरे मन में नार्थ ईस्ट लड़कियों वाली दुर्भावना नहीं थी।’
     ‘तो मैं ये समझूँ कि आप मेरे सच्चे दोस्त है, एक सच्चे दोस्त?’, उसने कहा।
     ‘मैं खुद क्या कह सकता हूँ। ये आपकी भावनाओं पर निर्भर है। आप ही मेरे बारे में बेहतर अनुमान लगा सकती हैं।’, मैंने ईमानदारी से कहा।
     उसने अपनी कलाई घड़ी में समय देखा।
     ‘अच्छा दोस्त, समय हो रहा है, दस बजने वाले है। मुझे चलना चाहिये।’, वह उठ खड़ी हुई।
     यही उचित समय था और आखिरी भी। मैंने अपने लैपटॉप बैग की चेन खोलने के लिए उस पर हाथ रखा ही था कि उसके मोबाइल की मैसेज टोन फिर बजी। मैं रुक गया। मैजिक मोमेन्ट फिर बनने वाला था और बना भी। वह फिर होंठ हिलाकर पढ़ रही थी। ये शायद उसकी आदत थी। मगर कुछ गड़बड़ थी, उसके हिलते होंठ एकाएक रुक गए, चेहरे के भाव बदल गए और... और आँखों से आँसू बहने लगे।
     ‘कोई बुरा समाचार है?’, मैंने धीरे से पूछा।
     ‘अब मैं बिलकुल मुक्त हूँ। मर गया वो।’, उसने रुआँसे स्वर में बताया।
     वह सिसक रही थी और मैं बुत बन गया था। अब क्या कहा जा सकता था? क्या कहूँ उसे? मेरे पास कोई शब्द नहीं थे जिससे उसे सान्तवना दी जा सके। कुछ तो कहना ही था। मैंने उसके काँपते हुए कन्धे पर हाथ रखा और कहा, ‘आपको उनके पास जाना चाहिए, उनके आखिरी दर्शन के लिए।’
     उसने गीले नेत्रों से मेरी ओर देखा।
     ‘नहीं।’, वह धीमे पर दृढ़ स्वर में बोली, ‘अब नहीं जा सकती। वैसे भी वो लोग मुझे घर में घुसने नहीं देंगे। मुझमें लड़ने की हिम्मत नहीं है।’
     उसने अपने पर्स से रुमाल निकाला और आँसू पौंछने लगी। पोंछने के बावजूद आँखों का गीलापन नहीं गया।
     ‘आइम गोइंग। चलो बच्चों।’
बच्चे असमंसज की स्थिति में उसे देख रहे थे लेकिन गम्भीरता ने उनके चेहरों को भी जकड़ लिया था। अपनी माँ को रोते देख वे फौरन उसके पास आ गए थे। हम फिर डिपार्चर गेट की ओर चल दिये।
     चलते हुए मैं फेंगशूई में सौभाग्य का प्रतीक लॉफिंग बुद्धा के बारे में सोच रहा था। उचित और आखिरी समय निकल चुका था। अब उसे पैकेट देने का कोई अर्थ नहीं रह गया था। क्या लॉफिंग बुद्धा की ये बेजान मूर्ति किसी को वास्तव में वह खुशी दे सकती है जिसका वह हकदार हो? क्या यह सचमुच किसी को सौभाग्य दे सकती है? आज उसे मुक्ति मिल गयी, क्या यही उसका सबसे बड़ा सौभाग्य है? मेरे पास कोई उत्तर नहीं था। मैं उसके सौभाग्य के बारे में सोच रहा था मगर खुद मैंने कभी अपने सौभाग्य के बारे में नहीं सोचा था।
     ‘एक बात कहती हूँ जिसे मैं बिल्कुल अभी सोच रही हूँ कि एक्चुली मैं यहाँ सैकड़ों किलोमीटर दूर आपसे अपना दुख शेयर करने आई थी न कि उससे आखिरी बार मिलने।’
     मैंने धीरे से अपना सिर हिलाया जो न हाँ था और न ना। पता नहीं उसने क्या समझा? लेकिन उसने जो कहा वह सच था। वह सचमुच अपना दुख शेयर करने आई थी। उस दुख से मुझे सराबोर करने आई थी। मैं जो कहना चाहता था वो तो मैं कह ही नहीं पाया।
     ‘अच्छा, नमस्ते मेरे दोस्त। आपसे मिलकर अच्छा लगा। अब फेसबुक पर मिलेंगे।’, आँसुओं से धुले चेहरे पर हल्की सी चमक आ गई थी और होंठो पर बहुत हल्की मुस्कान। उसने मिलाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया जो मैंने थामा और हल्का सा दबाव देकर छोड़ दिया।
     ‘जरूर। मुझे भी आपसे मिलकर अच्छा लगा, गुडबाय और गुडबाय बच्चों।’
     बच्चों ने मेरी ओर हाथ हिलाए। वह बच्चों और सामान के साथ प्रवेश द्वार की ओर मुड़ गयी।
     ये आखिरी बार था जब मैंने उस तिल देखा। मैं तिल के बारे में उससे कुछ कहना चाहता था पर अच्छा हुआ जो नहीं कहा। न कही जाने वाली कुछ बातें बाद में हमें सचमुच बहुत सुख देती हैं।
    तभी अचानक एक विचार मेरे भीतर उठा। मुझे ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’ फिल्म का वो सीन याद आ गया जब काजोल प्लेटफार्म पर चल रही होती है और पीछे शाहरूख खान उसके एक बार पलटकर देखने की कामना कर रहा होता है। उसकी कामना सच हो जाती है। काजोल ट्रेन पर चढ़ने से पहले उसे पलट कर देख लेती है।
     क्या वह आखिरी बार मुझे पलट कर देखेगी? वह प्रवेश द्वार पार कर गई। शीशे की दीवार के पार वह मुझे दिखाई दे रही थी। इतनी दूर से वह मुझे बिल्कुल अजनबी लगी। उसकी टीशर्ट का ब्राउन रंग मेरी आँखों से दूर होता जा रहा था। मेरी जान अटकी हुई थी। आखिरकार, वह ओझल हो गई और उसने पलटकर भी नहीं देखा। रील और रियल में शायद यही फर्क है।
     न होने वाली कुछ घटनाऐं हमें हमेशा याद रह जाती हैं। सोचने के साथ एक गहरी साँस छोड़ी और मुड़ गया। लॉफिंग बुद्धा का पैकेट मेरे बैग में ही पड़ा रह गया। मुझे हल्की सी खुशी हुई कि उसे कभी पता नहीं चलेगा कि मैंने उसके लिए सौभाग्य खरीदा था।