Monday, July 6, 2009

वह एक शाम

प्रिय धीरज,
कैसे हो मेरे बच्चे?
उस शाम मुझे सचमुच बहुत अच्छा लगा। बहुत, बहुत, बहुत अच्छा। मेरे जीवन का अनमोल व स्मरणीय समय। मैं सोच भी नहीं सकती थी कि ऐसा क्षण भी मेरे जीवन में आ सकता है। तूने मुझे वो समय दिया, वो क्षण दिया-आई लव यू मेरे बच्चे।
बारह मार्च दो हज़ार सात! यही दिन था न वो, तेरे चकित कर देने वाले निमंत्रण का। मेरी याददाश्त चाहे कितनी भी कमज़ोर हो जाए मगर मैं वह दिन नहीं भूलूँगी, कभी नहीं। उससे पहली वाली रात को, देर रात को जब तेरा फ़ोन आया तो मैं चौंक गई थी, किसी अनिष्ट की आशंका से आशंकित। और जब तूने कहा, 'क्या कल मेरे साथ डिनर पर चल सकती हो?' तो मैं सोच में पड़ गई थी। फिर साथ में तुमने ये भी जोड़ा था, 'सिर्फ़ हम दोनों।'
मुझे 'हाँ' तो कहना ही था पर मैंने सोचने के लिए काफ़ी समय ले लिया।

और अगले दिन, यानि बारह मार्च दो हज़ार सात।
मैं सुबह से ही रोमांचित थी, इसी कारण से रात को ठीक से सो भी नहीं पाई थी। मुझमें बदलाव देखकर नौकरानी भी अचंभे में थी। शायद वो भी सोच रही थी कि ये बुढ़िया पागल हो गई है? मैं आज की शाम के बारे में किसी को तो बताना चाहती ही थी, मैंने उसे बताया। मुझे नहीं मालूम उस पर क्या असर पड़ा क्योंकि मैं अपने में ही मगन थी। सचमुच अजीब-सा पागलपन छा गया था।

मैं समझ नहीं पा रही थी कि शाम के लिए क्या पहनूँ। अंतत: मैंने अपनी वो साड़ी निकाली जिसे मैं आखिरी बार तेरे पिता के साथ पहन कर गई थी, लगभग दस साल पहले। उनकी याद आते ही मैं रो भी पड़ी थी। फिर मुझे ऐसा लगा जैसे शाम को मैं उन्हीं के साथ जाऊँगी। सच मेरे बच्चे, तूने मुझे उनका 'साथ' दे दिया। वैसे भी तू उनका ही तो प्रतिरूप है।
मैं जानती हूँ, हम बहुत कम मिल पाते हैं। तू काम में बहुत व्यस्त रहता है, परिवार की ज़िम्मेदारी और सौ बातें। फिर मैं भी तो अपने अकेलेपन से बाहर नहीं निकल रही हूँ। तेरा यह प्रस्ताव मेरे जीवन में हलचल मचाने वाला था। अगर उस शाम तू अपने परिवार के साथ मुझे ले जाता तो वह एक साधारण शाम ही बनकर रह जाती।
तुझे यह पत्र लिखते हुए भी मैं उस दिन को जी रही थी। वह समय काटे नहीं कट रहा था, शाम के इंतज़ार में दिन गुज़रकर ही नहीं दे रहा था। मुझे ऐसा लग रहा था मैं कम से कम तीस साल छोटी हो गई हूँ। चुलबुलापन, बेचैनी, घबराहट, रोमांच सब आ जा रहे थे। मैंने शाम होने से पहले ही तैयार होना शुरू कर दिया था। दिन में तेरा कोई फ़ोन नहीं आया था और शाम को भी नहीं। मैं जानती हूँ तू फ़ोन बहुत कम करता है। तू सीधा मुझे लेने आ जाएगा।

और... और जब तू आया। तुझे देखकर मैं थोड़ा घबरा-सी गई थी। मेरे साठ साल पुराने चेहरे पर शरमाई हुई चमक थी। शायद तू भी थोड़ा घबराया हुआ था इसलिए तूने मेरे 'लुक' की तारीफ़ नहीं की थी। या शायद ये भी कारण रहा हो कि बेटा माँ की सुंदरता की कैसे तारीफ़ कर सकता है? फिर भी, हम दोनों की हालत एक जैसी थी। एक बार तो मैं भी शंकित हो गई थी कि इस घबराहट में पता नहीं हमारी शाम का क्या अंजाम होगा?
मुझे उस समय लगा था कि हमारी इस घबराहट का संबंध तेरे उस निमंत्रण से जुड़ा था और यह बात उस समय साफ़ भी हो गई थी जब तूने मुझसे मेरा हाल चाल पूछा, ख़ासतौर पर आज दिन भर की दिनचर्या का। मैंने बताया कि आज दिन भर मैं बस शाम होने का ही बेचैनी भरा इंतज़ार करती रही तो तूने भी यही कहा कि आज दिन भर में तुझसे भी ऑफ़िस में कोई काम नहीं हुआ, बस शाम के बारे में ही सोचता रहा।
तेरे आने से पहले मिसेज वर्मा से बात हुई थी। मैंने उसे भी हमारे डिनर के बारे में बताया था तो वह बहुत हैरान हुई थी फिर उसने हँसते हुए कहा था, 'तो बुढ़िया बेटे के साथ डेट पर जा रही है।'
'हाँ, मैं डेट पर जा रही हूँ।' ये बात मैं सारी दुनिया से कहना चाहती थी। यह मेरी ज़िंदगी का सबसे हसीन पल था। मेरे जीवन का यह हिस्सा कभी लौट कर नहीं आने वाला था, साठ की दहलीज पर बैठी औरत के लिए तो बिल्कुल भी नहीं, इसलिए मैं उसे भरपूर जी लेना चाहती थी। ख़त्म होती ज़िंदगी में फिर से प्राण भरना चाहती थी।
घर से बाहर निकलते हुए ऐसा लगा मैं तेरे पिता के साथ जा रही हूँ। तूने मेरे लिए कार का दरवाज़ा खोला और मैं शान से साड़ी का पल्लू सँभालती हुई बैठी। ढेर सारे पुराने दिन न जाने कहाँ-कहाँ से आकर मेरे भीतर गिरते-पड़ते रहे और मैं उन्हें सँभालने की कोशिश किए बिना ही इकट्ठा करती रही।
तूने रेस्तराँ की पसंद पूछी थी, मैंने ये तुझ पर छोड़ा क्योंकि निमंत्रण तेरा था। मैंने सोचा था कि तू पहले से ही जगह निश्चित कर चुका होगा।
लोदी, द गार्डन रेस्टोरेंट।
तेरा चुनाव सचमुच बहुत अच्छा था। हम प्रकृति के बीच थे। हम भीतर न बैठकर बाहर बगीचे में बैठे जहाँ ठंडक तो थी पर सिहरन वाली नहीं। मुझे बैठाने के लिए तूने मेरे लिए कुर्सी सरकाई। मेरे बैठने के बाद तूने हौले से मेरे कंधों को छुआ और मेरे सामने बैठ गया। उस एक क्षण में मेरी आँखें भरी और खाली हुईं। मैन्यू बुक हम दोनों पढ़ रहे थे। लेकिन जल्द ही तूने पटक दी और कहा था, 'मम्मी आप ही आर्डर करो।`
मुझे याद आया जब तू छोटा था और जब कभी हम रेस्तराँ में आते थे तो मैं ही आर्डर करती थी, तेरे पिता भी मेन्यू फेंक दिया करते थे। बड़ी अजीब स्थिति हुआ करती थी, मैं घर में भी तुम लोगों की पसंद का खाना बनाऊँ और यहाँ भी तुम लोगों के लिए खाना पसंद करूँ। याद का एक और काँटा हौले से चुभकर अपना एहसास करा गया।

एक अच्छे बच्चे की तरह तूने मुझसे बीयर पीने की आज्ञा माँगी। डिनर के दौरान हमारे बीच जो बातें या जितनी बातें हुई थीं वो शायद हमारी ज़िंदगी में कभी नहीं हुई होंगी। तूने शायद ही कभी मुझसे इतनी बातें की जितनी उस दिन की। तेरे काम और उसमें तेरी व्यस्तता के बारे में काफ़ी विस्तार से बातें हुईं कि तू फाइनेन्स के काम में अपना टारगेट पूरा करने के चक्कर में दिन रात व्यस्त रहता है। फिर पत्नी, परिवार और तेरे भाई और बहन के बारे में काफ़ी बातें हुईं। तूने कहा था कि तू समय निकालकर अपने बहन भाई और उनके परिवारों के साथ भी वक्त बिताना चाहेगा। जीवन की व्यस्तता में जो संबंधों में रूखापन आ गया है, उसे फिर से हरा भरा करना चाहता है। भगवान तेरी यह इच्छा ज़रूर पूरी करे। मुझे तुझ पर बहुत प्यार आया मेरे बच्चे। आखिर को, तुझे रिश्तों की पहचान होने लगी। अपनों का साथ सचमुच बहुत सुखद होता है क्योंकि अपने परिवार से बढ़कर कोई चीज़ नहीं है। ईश्वर भी उसके बाद आता है।
तूने एक बात और भी कही थी कि आज के इस इन्टरनेट के दौर में हम चैटिंग और अन्य माध्यमों से दुनिया में दोस्त बना रहे हैं, संबंधों को बढ़ा रहे हैं मगर अपने पारिवारिक संबंधों को अनदेखा कर देते हैं, उनके प्रति उदासीन रहते हैं।

हमारे बीच सबसे बढ़िया बात ये रही कि न मैंने तुझसे कोई शिकायत की और न तूने और न कोई तीसरा हमारी शिकायत का केन्द्र बना। अगर ऐसा होता तो उस शाम में टीस भर जाती और जिसका परिणाम ये पत्र न होता।
उस गार्डन रेस्टोरेंट के हल्के आलोक, बरतनों की खड़खड़ाहट, आसपास बैठे लोगों के तैरते स्वरों और इतनी ढेर बातों के बीच वो रहस्य अभी भी छिपा था। मुझे पूछने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी क्योंकि तू खुद बताने को उत्सुक था।
फिर तूने मुझे बताया, बारह फरवरी की यादगार शाम के प्रायोजक का नाम-अंचित, तेरी पत्नी।
मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि तेरी पत्नी का भी इस शाम में कोई रोल होगा। तूने बताया कि कैसे दो दिन पहले अंचित ने तुझे कहा कि कोई दूसरी औरत भी तुझे बहुत प्यार करती है और वह चाहती थी कि तू उस दूसरी औरत के साथ कुछ समय बिताये ताकि तुम्हारे प्यार में और बढ़ोत्तरी हो सके। तू सोच रहा था कि अंचित पागल हो गई थी, जो ऐसा कह रही थी। लेकिन जब दूसरी औरत का नाम सामने आया तो तुझे आश्चर्य के साथ खुशी भी हुई थी कि उसने तेरी माँ के बारे में सोचा। फिर तूने मुझे यह भी बताया कि अंचित खुद अपने माँ-बाप के अकेलेपन और टूटते रिश्तों से दुखी है, इसी कारण उसने तुझे प्रेरित किया कि तू मेरे साथ वक्त बिताये।
चलो, वजह कोई भी हो, कैसी भी हो परंतु उसका परिणाम बहुत सुखद था।

वापस घर लौटने पर तुझे विदा करते समय मैं मुँह से कुछ न कह पाई मगर आँखों ने आँसू गिराकर बहुत कुछ कह दिया। तेरा माथा चूमकर मैंने तुझे विदाई दी और तूने मेरे पैर छुए। तूने भरी आँखों से मेरे हाथों को अपने हाथों से दबाते हुए कहा था, 'मम्मी, आज आपका साथ मुझे बहुत-बहुत अच्छा लगा, जितना मैंने सोचा था, उससे कहीं अधिक।' मैं भी ऐन यही बात कहना चाहती थी।
उस रात तो मैं बिल्कुल भी न सो सकी। रात भर खुशी से रोती रही।
सुबह सबसे पहला फ़ोन मिसेज़ वर्मा का आया था। हालाँकि मैं सोच रही थी अंचित मुझे फ़ोन करेगी लेकिन बाद में तो उसका फ़ोन आ ही गया था। मिसेज़ वर्मा काफ़ी उत्सुक थी, हमारी 'डेट' के बारे में जानने के लिए। मैंने उसे विस्तार से बताया था। सुनकर वो भी भावुक हो गई थी। उसने कहा था, 'काश! मेरी औलाद भी मेरे लिए कुछ ऐसा ही करे।'
'काश' शब्द कितना उम्मीदों से भरा होता है, नहीं? इसी के सहारे हम ज़िंदगी को अंतिम सिरे तक ले जाते हैं। लेकिन उस दिन वो 'काश' मेरे लिए नहीं था, वह सिर्फ़ और सिर्फ़ मिसेज वर्मा के लिए था।
जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है, मैं इस बात को फिर दोहरा रही हूँ कि उस एक दिन को मैंने कितने ही दिन जिया है और आज भी जी रही हूँ। यहाँ मैं उन बातों को नहीं लिखना चाहती या बताना चाहती कि हम कैसे और किन हालातों में रह रहे हैं। मैं नहीं जानती कि तुम लोग मुझे अपने साथ रखना चाहते हो या नहीं लेकिन मैं तुम लोगों के साथ नहीं रहना चाहती क्योंकि मैं अपने घर में रहना चाहती हूँ, अपनी तरह, अपने नियमों से जीना चाहती हूँ और सबसे बड़ी बात, मेरे पति ने इस घर में दम तोड़ा था इसलिए मैं भी यहीं मरना चाहती हूँ।

तुम सभी मेरा परिवार हो और मेरा परिवार मुझे प्रिय है। तू, योगेंद्र और सुमित्रा, तुम तीनों के परिवार के लिए मैं भगवान से सदा सुखी रहने की प्रार्थना करती हूँ।
मैं एक बात और कहना चाहूँगी। वो शाम हमारे जीवन में चाहे किसी वजह से आई हो और जिसकी वजह से आई थी उसे धन्यवाद देना चाहूँगी, मैं उसे फिर से दोहराना चाहूँगी, कई-कई बार दोहराना चाहूँगी। कोई क्षण किसी को कैसे खुशी दे सकता है यह मुझे उस दिन महसूस हुआ। जब तू यह पत्र पढ़ेगा तो तुझे भी वह शाम ऐसी ही याद आ जाएगी जैसे मुझे लिखते हुए याद आ रही है। मैं चाहती हूँ मैं योगेंद्र के साथ भी ऐसी ही शाम गुज़ारूँ। क्या तू अपने भाई से मेरे लिए ऐसा कह सकता है? अपने छोटे बेटे के साथ भी मुझे ऐसी ही शाम चाहिए, मरने से पहले।
क्या ऐसा हो सकता है?
काश! ऐसा हो।
सचमुच 'काश' शब्द कितना उम्मीदों से भरा होता है। मैं अपनी उम्मीद को पूरा होते देखना चाहती हूँ।
पता नहीं मैं तुझे यह पत्र क्यों लिख रही हूँ, पर मुझे अच्छा लग रहा है, मज़ा आ रहा है।
सस्नेह!
तुम्हारी माँ

उसकी छोटी बहन सुमित्रा का फ़ोन आया था। वह मम्मी से मिलने आई थी। सुबह अखबार पढ़ते हुए जो फ़ोन सुना था, उससे अखबार हाथों से फिसलकर फ़र्श पर बिखर गया था। साथ ही बहुत सारी यादें भी बिखर गईं थीं।
सुमित्रा ने बताया था कि मम्मी रात को जो सोई तो सोती ही रह गई। मम्मी के सिरहाने यह पत्र रखा था। क्रियाकर्म के बाद उसने यह पत्र पढ़ा था। उसे भी वो शाम याद है, जैसी माँ को याद थी। दो महीने से अधिक हो गए थे, वह ऐसा समय फिर नहीं निकाल पाया था। पत्र पढ़ने के बाद उसे बहुत अफ़सोस हुआ। उसे वक्त निकालना चाहिए था। इतने बरसों में वह अपनी माँ के लिए सिर्फ़ एक शाम ही निकाल पाया था। उसी शाम को अपनी स्मृति में संजोये वह चली गई। उसे सचमुच वक्त निकालना चाहिए था मगर अब क्या हो सकता था, अब तो वक्त ही निकल चुका था।
उसने पत्र एक बार और पढ़ा फिर उसे मोड़कर कुर्ते की जेब में सहेज कर रख लिया। अपनी माँ की सबसे अनमोल चीज़ उसे विरासत में मिल चुकी थी और वो उसी के पास रहेगी। चाहे कितने ही बँटवारे क्यों न हो जाए, इसे कभी कोई क्लेम नहीं करेगा।

इंटरनेट के एक लेख से प्रेरित


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