Wednesday, August 4, 2010

तेईस साल बाद

मिस अनुरीति
द्वारा श्री राधा रमण वर्मा
सी-१५, पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट क्वाटर्स,
मौरिस नगर, दिल्ली-११०००७

पता हमारा था पर यहाँ अनुरीति कोई नहीं थी। राधा रमण वर्मा कोई नहीं था। डाकिया मुझसे दस रुपये ले गया था, कहा था, गोवा से आया है, और इस पर पूरी कीमत का टिकट नहीं लगा है। उसे दस रुपये देने से पहले मैंने एक बार उसे कहा भी था कि यहाँ कोई अनुरीति नहीं रहती, पर फिर एक लड़की का नाम देखकर और लिफाफे का पीलापन और धुँधला चुका पता लिखा देख भीतर अजीब सी उत्सुकता हुई थी और मैंने पत्र ले लिया था।

लिफाफा मैं खोल चुका था। पत्र का कागज चार तहों में था, जो इतना जीर्ण हो चुका था कि तहों वाले मोड़ों से फट चुका था और वो चार टुकड़ों में मेरे सामने था। उसका लिफाफा मेज पर रखा था, जो शायद कभी झक सफेद रहा होगा आज पीला, भूरा, जर्द था। उस पर पचास पैसे कीमत का लगा टिकट भी धुँधला पड़ चुका था। अलग-अलग टुकड़ों को एक करके मैं पत्र पढ़ने लगा-

४३, वाड्डी कैंडोलिम
बारडेज, गोवा।
सोमवार, २१ अक्तूबर, १९८५

अनुरीति,

प्रिय नहीं लिख रहा हूँ, अभी संशय में हूँ।
जिस दिन आप दिल्ली पहुँचेंगी, उसी दिन या शायद अगले दिन ये पत्र आपके हाथों में होगा। आप घर पहुँचेगी, सामान रखकर दरवाजा बन्द करेंगी और अभी पलट भी न पायीं होंगी कि दरवाजे पर दस्तक होगी। आप चौंककर दरवाजा खोलेंगी और मेरा प्रतिरुप आपके सामने होगा, मेरा ये पत्र। मेरी अधीरता का अनुमान आपको इसी से ही लग जायेगा कि आपको बम्बई की बस में बिठाने के बाद जो पहला काम मैं कर रहा हूँ वह यह पत्र लिखना है। मुझसे कहीं अधिक सौभाग्यशाली होगा यह पत्र जो हमेशा के लिए आपके पास आने वाला है। आपको बम्बई के लिए विदा करने के बाद मैं यों ही खाली-खाली सा भटकता रहा। बस टर्मिनस के पीछे मंडोवी नदी का पानी भी मुझे कोई सुकून नहीं दे रहा था।

पता है, पूरे रास्ते मैं अजीब सी बैचेनी से घिरा रहा। कुछ भी याद नहीं, सिर्फ एक सफेद कबूतरी याद है, जो मेरी कल्पनाओं में निरन्तर मेरे साथ है, जिसके फैले हुए पंख मेरी छत हैं, जिसका नर्म स्पर्श मेरा बिस्तर है, जिसकी प्यारी गुटरगूँ मेरी प्रार्थना है, जिसका फड़फड़ाना मेरे जज्बात हैं, जिसका उड़ना मेरा विस्तार है। पर घर आया तो खाली हाथ था, सफेद कबूतरी उड़ चुकी थी, कल्पनाऐं बिखर चुकी थीं, आप जा चुकी थीं। कितनी अजीब बात है कि पन्द्रह दिन हम एक साथ रहे, घूमे-फिरे, खाया-पिया, हँसी-मजाक किया, कहा-सुना पर वह न कह सका जो मुझे अवश्य कह देना चाहिए था और अब, आपके जाते ही वह बात कहने के लिए बेचैन हो रहा हूँ।

मैं जानता हूँ गोवा बहुत हसीन है लेकिन पिछले पन्द्रह दिनों में वह बहुत ही हसीन लगा क्योंकि आप मेरे साथ थीं। फोर्ट अग्वादा, अन्जुना बीच, चापोरा फोर्ट, डोना पॉला, आवर लेडी चर्च, ओल्ड गोवा चर्च, शांता दुर्गा मन्दिर हमेशा साधारण से लगते रहे पर दो सप्ताह के लिए सभी कुछ असाधारण हो गया........सभी कुछ, मैं भी। क्योंकि इस बार आप साथ थीं, क्या ये साथ हमेशा के लिए हो सकता है? आपके आँखों से ओझल होते ही मुझे सिर्फ आप ही दिखाई दे रही हैं। नटखट, शोख, चंचल। फटी हुई किताब में, किसी के 'ओहो यूपी के गौड़ ब्राह्मण` कहने में, किसी के लम्बे बालों में, किसी की चमकती हुई पीठ में। मैं नहीं जानता कि मैं क्या कर रहा हूँ, क्या कह रहा हूँ। मैं ये भी नहीं जानता कि आपके दिल में मेरे लिए कैसी भावना है, शायद जानने की आवश्यकता भी नहीं क्योंकि मैं अपने दिल की बात तो जानता ही हूँ, जो शब्दों के रूप में इस कागज पर बिखर कर आप तक पहुँचने वाली है, पता नहीं आप इसे समेटेंगी या छितरा देंगी। अगर मेरी भावनाओं का आदर न कर सको तो विनती है कि निरादर भी न करना, उत्तर अवश्य देना। स्वीकृति
या अस्वीकृति।
इस दुस्साहस की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में।

- आभास

पत्र पढ़ने के बाद दिल अजीब से रोमांच से धड़कने लगा। किसी का इतना निजी और प्रेम से भरा पत्र मैंने आज तक नहीं पढ़ा था, पत्र क्या, वैसा कुछ भी लिखा मैंने नहीं पढ़ा था। आज पच्चीस सितम्बर दो हजार आठ है। तेईस बरस........। मैं भी तो तेईस बरस का हूँ। मेरे जन्म के बाद लिखा गया था ये पत्र। तेईस बरस में किसी का प्रेम पत्र पहुँचा है। एक जीवन बीत जाता है इतने बरसों में। क्या ये सम्भव है? सम्भव तो है तभी तो ये पहुँचा है।

यह प्रेम पत्र पढ़कर मैं आभास की कल्पना करने लगा। आकृति तो बन गयी पर चेहरा नहीं बन पाया...। चेहरा बनने लगा...बन गया...। पर...वह मेरा चेहरा था। मैं? मैं 'आभास` हो गया। मेरा पत्र मुझे वापस मिल गया। मुझे लगा मैंने ही ये पत्र लिखा था। इतने वर्षों बाद जो मुझे मिला है वह मैं सही पते पर पहुँचाऊँगा। शायद इस पत्र को प्राप्त करने वाली अभी भी इसकी प्रतीक्षा कर रही हो?

अनुरीति इस फ्लैट में रहती थी। वह कैसी होगी? कौन से कमरे में रहती होगी? क्या करती होगी? क्या पढ़ती होगी? मैं अपनी कल्पना में अनुरीति को देखने लगा। मुझे अपने फ्लैट के प्रत्येक स्थान पर अनुरीति दिखाई देने लगी। एक प्यारी सी सफेद कबूतरी जैसी लड़की। लेकिन अब तो वह अनुरीति अम्मा होगी। फिर भी, मैंने उसी समय निश्चय कर लिया कि मैं उसकी अमानत उस तक पहुँचा कर रहूँगा, कैसे भी।

'कैसे भी` की शुरुआत मैंने अपने पिता से की। पिताजी से उनके आफिस में राधा रमण वर्मा के बारे में मालूम करवाया। पता चला कि राधा रमण वर्मा सीनियर एकाउन्टेट थे जो सन १९८९ में रिटायर हो गये थे। रिटायर होने के बाद सरकारी आवास छोड़ गये, जो कि छोड़ना था। कहाँ गये? सिविल लाइन्स में। वहाँ का पता एक कागज के टुकड़े पर लिखा हुआ मुझे मिला। पिताजी ने पूछा था कि वर्मा से क्या काम होगा जो शायद अब तक मर खप भी गया होगा। मेरा जवाब था कि काम हो जाने के बाद बताऊँगा।

यहाँ से मेरी यात्रा आरम्भ हुई जो तेईस बरस लम्बी थी, जहाँ किसी की अभिलाषा थी जो मन के किसी कोने में मोटी पर्तों के नीचे कहीं दबी होगी, जहाँ किसी की प्रतीक्षा थी जो इतनी लम्बी हो गयी थी कि प्रतीक्षा करने वाले को ही मालूम नहीं हुआ होगा।

७ फ्लैग स्टाफ रोड, सिविल लाइंस, दिल्ली।
यही पता था और मैं इस पते की इमारत के सामने खड़ा था। इमारत के गेट के बायीं ओर जो पत्थर जड़ा था उस पर तीन नाम लिखे थे मगर उनमें वर्मा कोई नहीं था। मैं हिचक रहा था कि भीतर जाऊँ या नहीं। पत्र मेरी कमीज की जेब में सुरक्षित रखा था फिर भी मैंने उसे टटोला। पत्र का स्पर्श होते ही हिचकिचाहट ने दम तोड़ दिया। मैं आगे बढ़ा और गेट के किनारे लगी कॉलबेल बजा दी।

कुछ ही क्षण बाद एक लड़का बाहर आया जो शायद नौकर था। उससे राधा रमण वर्मा के बारे में पूछा। उसने साफ मना कर दिया कि यहाँ कोई राधा रमण वर्मा नहीं रहता। मैंने घर के मालिक से बात करने की इच्छा जताई। पहले वह हिचकिचाया, फिर मुझे वहीं रुकने को कहा और भीतर चला गया। थोड़ी देर बाद एक बुजुर्ग बाहर आये। मैंने उनसे भी वही प्रश्न किया।

बुजुर्ग कुछ देर के लिए विचारमग्न हो गये। फिर वे बोले, 'एक श्रीचरण वर्मा को तो मैं जानता हूँ। यह मकान हमने उसी से खरीदा था। हो सकता है राधा रमण वर्मा उसका भाई हो। क्या बात हो गई?`
'बात कुछ नहीं। उनका कुछ सामान था मेरे पास।`, मैंने हिचकिचाते हुए कहा।
'अच्छा।`, उन्होंने कहा, 'नवासी नब्बे में हमने यह मकान खरीदा था। अब तो मुझे भी नहीं पता वो कहाँ होंगे। हाँ, हो सकता है कि वे कानपुर में हों। मुझे याद है उन्होंने बताया था कि वे कानपुर के रहने वाले थे। हो सकता है, वे वहाँ चले गये हों। हो सकता है........। हो सकता है.........।`
'कानपुर का पता तो आपके पास नहीं होगा?`, मेरे प्रश्न में पहले से ही नाकारात्मकता झलक रही थी।
बूढ़े ने इन्कार में गर्दन हिलाई।
'कोई उनका जानकार होगा जो मुझे उनका पता बता दे।`, मेरे शब्दों में निराशा अधिक थी।
बुजुर्गवार फिर सोच में गुम हो गये।
'एक शशिलाल कौशिश है जिनका अशोक निकेतन में आफिस है, उनके पास हो सकता है उनका पता हो।`,
आशा की एक किरण उन्होंने मुझपर छोड़ी।
'उनका पता दे दीजिए।`
'क्या ज्यादा जरूरी सामान है?`, उन्होंने संशय भरे स्वर में पूछा।
जी। बहुत जरूरी।`, मैंने कहा और अपनी कल्पना में उस पत्र को छुआ।
'ठीक है बेटा, तू ठहर यहीं। मैं ढूँढ के लाता हूँ।`, उन्होंने कहा और भीतर चले गये।
मैं बाहर ही प्रतीक्षा करता रहा। शायद पता ढूँढना, पुराना पता ढूँढना मुश्किल काम था इसलिए उन्हें बहुत देर लग गयी।
'बहुत पुराने कागज खंगालने पड़े मुझे`, उन्होंने मुझे एक कागज का पुर्जा देते हुए कहा।
'सर, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद और मेरी वजह से आपको जो परेशानी उठानी पड़ी उसके लिए माफी चाहता हूँ।`, मैंने खेदपूर्ण स्वर में कहा।
उन्होंने भावहीन नेत्रों से मेरी ओर देखा और बिना कुछ कहे भीतर चले गये।

पता अशोक निकेतन, नारायणा विहार का था और एक टेलिफोन नम्बर भी था। मैंने अपनी मोटरसाइकिल स्टार्ट की और रिंग रोड की ओर मुड़ लिया। वह 'कौशिक प्रापर्टीज` के नाम से आफिस था। वहाँ पूछताछ पर पता चला कि शशिलाल कौशिश का देहान्त हुए कई साल हो चुके हैं और उनका बेटा संजय कौशिश किसी श्रीचरण वर्मा या राधा रमण वर्मा को नहीं जानता। इसके अलावा उसने और कोई भी बात करने से मना कर दिया। मैं घर लौट आया।

मैं निराश तो नहीं हुआ था लेकिन आगे के लिए मेरा रास्ता बन्द हो गया था। मेरे पास सिर्फ एक शहर का नाम था और शहर के नाम से किसी नाम का पता लगाना असम्भव ही था। लगता था, अनुरीति का पत्र मेरे ही पास रह जाने वाला था। शायद इस पत्र की यही नियति है कि यह अनुरीति को कभी नहीं मिलेगा। रात भर मैं सोचता रहा और रात में ही मैं एक नतीजे पर पहुँच गया।

मैंने गोवा जाने का निश्चय किया। मिलने वाले को यह पत्र नहीं मिला तो क्या हुआ? भेजने वाले को तो वापस मिल ही सकता है। इतना कीमती और इतनी लम्बी समयावधि की यात्रा करके आया पत्र मैं डाक से तो वापस भेज नहीं सकता था इसलिए मैंने स्वयं ये पत्र भेजने वाले को देकर आने का निश्चय किया। मन का पंछी उड़ने के लिए पंख फड़फड़ाने लगा।

मैंने अपने माता-पिता को अपने निश्चय के बारे में बताया। दोनों ने एक साथ मना कर दिया।
'फाड़ के फैंक उसे।`, यह मेरी माता जी उद्गार थे।
मैं उन्हें कैसे समझाऊँ कि मैं इस पत्र के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ चुका हूँ और दिल से सोचने वाला व्यक्ति दिमाग की बात नहीं मानता। मैं उन्हें कैसे समझाऊँ कि एक सफेद कबूतरी मेरे भीतर उड़ रही है और किसी की खामोश प्रतीक्षा मुझे कचोट रही है। मैंने अपने पिता को समझाने का प्रयास किया। उन्होंने कुछ भी सुनने से इन्कार कर दिया लेकिन जाने के लिए सहमति दे दी। उन्होंने पत्र भी पढ़ा, वे भी पत्र पढ़कर कहीं खो से गये। मेरी माँ नाराज हुई मगर अन्तत: वे भी मान गईं।

तो अगले आठ दिन बाद यूनिवर्सिटी की दशहरे की छुटि्टयों में वापसी की टिकट लिये मैं गोवा की जमीन पर था। गोवा एक्सप्रेस ने मुझे सुबह साढ़े छह बजे मडगांव स्टेशन पर उतारा। पहले मैंने सोचा था किसी दोस्त को साथ लेकर आऊँ लेकिन इस तेईस साल पुराने पत्र से सम्बन्धित सारे रोमांच, सारे एडवेन्चर मैं किसी के साथ शेयर नहीं करना चाहता था। उसके सारे सुख-दुख अकेले ही झेलना चाहता था।

स्टेशन से बाहर निकलते ही पीले रंग के किंगफिशर बीयर केन के बहुत बड़े होर्डिंग ने मेरा स्वागत किया। बीयर केन की फोटो इतनी सजीव थी कि मन कर रहा था कि इस चिल्ड केन को अभी उठाकर पी लूँ। मडगांव स्टेशन से बाहर निकलकर मैंने कैंडोलिम जाने के लिए पूछताछ की। पूछताछ के आधार पर मैं मडगांव बस अड्डे से बस पकड़कर पहले पणजी पहुँचा और वहाँ से कैंडोलिम। कैंडोलिम इलाका गोवा के सबसे प्रसिद्ध बीच कैलंगूट बीच के पास स्थित है। कैंडोलिम खुद भी बीच के किनारे है और इसी नाम से बीच जाना जाता है। मैंने वाड्डी भी पूछा और मुझे यही समझ आया कि गोवा वासी वाड्डी या वाड्डो गांव या इलाके को कहते है। तिरतालिस नम्बर कई स्थानों पर पूछने पर भी पता नहीं लग पाया। और आभास! कौन आभास? क्या आभास? आभास क्या होता है?

जो काम मैं बहुत आसान समझ रहा था, वही सबसे मुश्किल हो गया था। अनुरीति को दिल्ली में तलाश करने से भी अधिक मुश्किल। अब सबसे पहले मैंने अपने रहने का सस्ता ठिकाना खोजा ताकि मैं ताज़ा होकर नई उम्मीद और नई उमंग से अपनी खोज कर सकूँ।

होटल के कमरे में बैठा मैं नये सिरे से सोच रहा था कि अब कैसे शुरूआत करूँ? अपने घर पर सकुशल गोवा पहुँचने की सूचना मैं दे चुका था लेकिन उन्हें प्रारम्भिक खोजबीन की निराशा के बारे में नहीं बताया था।

अचानक मेरे दिमाग में घंटी बजी।
और आधे घण्टे बाद मैं कैंडोलिम डाकघर में था। डाकघर से ही मुझे सही पता मिल सकता था। मैंने धड़कते दिल से वहाँ मौजूद एक व्यक्ति से पता पूछा।

'कासाब्लांका बीच रिसोर्ट। उसने लगभग तुरन्त जवाब दिया।
'ये होटल है? मैंने पूछा।
'बरोबर।`
'इस पता पर घर नहीं है?`
'वहाँ तो यही रिसोर्ट है। तुम्हें किधर जाने का? उसने पूछा।
'मुझे तो इसी पते पर जाना है। मैंने धीरे से कहा।
'तो बताया न बरोबर। कासाब्लांका बीच रिसोर्ट।`
'वहाँ कोई आभास रहते हैं, आभास गौड़। मुझे अनायास ही पत्र में लिखा 'ओहो यूपी के गौड़ ब्राह्मण` याद आ गया और इसलिए मैंने आभास के साथ गौड़ जोड़ दिया। उसने इन्कार में गर्दन हिलाई। उसकी गर्दन हिलने के साथ ही मेरी नसों में निराशा प्रवेश करने लगी। 'वे इस पते पर बीस-पच्चीस साल पहले रहते थे। मैंने निराशापूर्ण स्वर में ही कहा। उसने मुझे नये सिरे से देखा। उसके गहरे साँवले चेहरे पर अजीब से भाव थे।
'तुम्हारा ऐज कितना? उसने पूछा।
'सर, मेरी ऐज तो तेईस साल है लेकिन इस पते पर एक हिन्दू फैमिली रहती थी। उनके यहाँ जाना था मुझे।`

वह सोचने लगा।
'इधर तो सब फाइव टू सैवन ईयर्स वाला स्टाफ है। कुछ देर बाद वह बोला, 'तुम एक काम करो। मेन रोड पर डोना एल्सिना रिसार्ट है, उसके सामने एक चाइनीज रेस्टोरेन्ट है और उसके बराबर वाले हाउस में विल्सन को पूछना। विल्सन को बरोबर मालूम होयेंगा उस पता का हिन्दू फैमिली के बारे में।`
'कासाब्लांका बीच रिसोर्ट वाले नहीं बता देंगे उनके बारे में? मैंने पूछा।
'मेबी। पण विल्सन को हन्डरेड पर्सेन्ट पता होयेंगा।`
'वे कौन हैं?`
'विल्सन इधरइच काम करता था, इधर से ही रिटायर हुआ है। उसे बरोबर मालूम होयेंगा।`
उम्मीद मेरी आँखों में फिर से चमक गई। मैंने उसे धन्यवाद कहा और डाकघर से बाहर आ गया।

डोना एल्सिना वहाँ से कुछ ही दूर था। उसके सामने सड़क पार मुझे चाइनीज रेस्टोरेन्ट 'जस्ट चाइनीज` दिखाई दे गया। उसके बाहर और सड़क पर मुझे भीड़ दिखाई दी। शायद कोई समारोह हो रहा था। सभी लोगों ने, जिसमें महिलाएँ और बच्चे भी थे, नये कपड़े पहने हुए थे। रेस्टोरेन्ट मेन रोड पर था और वहीं से अन्दर जाती एक गली के मुहाने पर था। लोग उस गली में जा रहे थे। मैं रेस्टोरेन्ट के पास पहुँचा। उस गली में ही आगे कहीं जाकर चर्च था। वहाँ से पटाखों के चलने की आवाजें भी आ रहीं थी। किसी की शादी हो रही थी। उसी भीड़ में मुझे एक सजी हुई कार दिखाई दी और उसमें काले सूट में बैठा दुल्हा। कार चर्च की ओर जा रही थी। मेरी तीव्र इच्छा हुई कि मैं चर्च में जाकर दुल्हन को देखूँ लेकिन अपनी इच्छा को मारते हुए मैं रेस्टोरेन्ट के बराबर वाले मकान की ओर बढ़ गया।

मकान गोवानी शैली में ही बना हुआ था और काफी पुराना दिखाई दे रहा था। लोहे का गेट, छोटा लॉन, खम्भों वाला बरामदा और फिर मेन दरवाजा। दरवाजा खुला था और एक औरत देहरी पर खड़ी बारात को देख रही थी और अब..... मुझे। प्रश्न उसके चेहरे पर चमक आया।
'मुझे मिस्टर विल्सन से मिलना है? मैंने हल्का सा हिचकते हुए कहा।
'आप...? स्त्री ने प्रश्न हवा में ही छोड़ दिया।
'मेरा नाम नील है और मैं दिल्ली से आया हूँ। एक्चुली, मुझे एक पता के बारे में मिस्टर विल्सन से पूछना था। उनके बारे में मुझे पोस्ट आफिस वालों ने बताया था। मैंने एक साथ ही सब कुछ कह दिया।
'पता? कौन सा पता? स्त्री ने उलझे स्वर में पूछा।
'मिस्टर विल्सन हैं क्या?`
'वो यहाँ नहीं है। फोन्डा गया है। कल मॉर्निंग में आयेगा। स्त्री ने कहा, 'तुम्हेरे को किसी पता के बारे में पूछना है तो मॉर्निंग में आना। और कुछ माँगता है?`
'हाँ। मैंने कहा।
'क्या?`
'उनका कोई मोबाइल नम्बर? एक्चुली मुझे एमरजेन्सी है।`
'उनके पास मोबाइल तो है पण मैं तुम्हेरे को कैसे दे सकती। एक टोटली स्ट्रेंजर को।`
'ओके मैडम, कोई बात नहीं। मैं कल आ जाता हूँ। मैंने कहा और वापस मुड़ गया।

बाहर निकलकर सबसे पहले जो मेरे भीतर प्रश्न उठा वह था 'अब`। पत्र मेरी जेब में मौजूद था। पता नहीं उसका मालिक कहाँ मिलेगा? मिलेगा भी या नहीं? गोवा में है भी या नहीं? तेईस साल बाद पता नहीं वह यहाँ मिलेगा या नहीं।

मेरी वापसी की टिकट परसों की थी और तब तक तो कोशिश करनी ही थी। कुछ तो मिलेगा ही, कुछ तो अगर.......। अगर के आगे कुछ नहीं था, कुछ भी नहीं। मेन रोड पर आकर मैंने कासाब्लांका रिसोर्ट का रास्ता पूछा। रिसोर्ट के कई कर्मचारियों से पूछने के बाद भी आभास गौड़ के बारे में कुछ भी मालूम नहीं हुआ। अब मेरे पास विल्सन नाम का आदमी ही उम्मीद की किरण थी जो मुझे कल मिलने वाला था।

समय व्यतीत करने के लिए मैंने कैंडोलिम और कैलंगूट बीच की सैर की। मैंने समुद्र पहली बार देखा था। इतना विशाल और इतना पानी देखकर मैं रोमान्चित हो गया। बेहद भीड़ भरे कैलंगूट बीच पर ही मैंने किंगफिशर के पीले केन वाली बीयर पी जिसने स्टेशन से बाहर निकलते ही मेरा स्वागत किया था। इतनी भीड़ होने पर भी मैं नितान्त अकेला था मगर बीयर पीने से मेरे भीतर के सारे अवसाद धुल गये और आत्मविश्वास में वृद्धि हुई। अगर मुझे आभास नहीं मिलता है तो वह उसकी बदकिस्मती है और अगर मुझे अनुरीति नहीं मिलती है तो यह मेरी बदकिस्मती है। लेकिन मैं तो आभास को ही ढूँढ रहा हूँ। अनुरीति की तलाश तो दिल्ली में ही खत्म हो गयी थी। खैर! यह दिन मेरा घूमने-फिरने में निकला।

अगले दिन दोपहर को मैं फिर विल्सन के घर के सामने था।
इस बार मेरा सामना एक आदमी से हुआ। उससे विल्सन के बारे में पूछा। उसने बताया वह चर्च गया है अभी आने वाला है। मैंने चैन की गहरी साँस ली। शुक्र था, मेरी आखिरी उम्मीद फोन्डा से वापस आ गयी थी। उसने मेरा परिचय पूछा। मैंने बताया और यहाँ आने का मकसद भी। और अपनी कल की विजिट के बारे में भी बताया।
'तुम यहाँ प्रतीक्षा कर सकते हो। वे अभी आ जाएँगे। उसने अँग्रेजी में कहा, 'मेरा नाम आर्थर विल्सन है। मैं उनका बेटा हूँ।`
वह भीतर जाकर मेरे लिए एक कुर्सी ले आया। मैं बरामदे में बैठ गया और प्रतीक्षा करने लगा। शायद विल्सन उसी पास वाले चर्च में गया होगा जहाँ कल बारात जा रही थी। मेरी प्रतीक्षा चालीस मिनट चली। एक वृद्ध लोहे का गेट खोलकर लॉन से होते हुए बरामदे में आये जिन्हें देखकर मैं खड़ा हो गया। उन्होंने मुझे प्रश्नसूचक नेत्रों से देखा।
मैंने उन्हें नमस्ते किया और पूछा, 'आप मिस्टर विल्सन?`
'हाँ। तुम कौन?`
'मेरा नाम नील है और मैं दिल्ली से आया हूँ। एक्चुली, मुझे एक पते के बारे में आपसे पूछना था।
आपके बारे में मुझे पोस्ट आफिस वालों ने बताया था कि आप ही वह पता बता सकते हैं। मैंने जल्दी-जल्दी कहा।

'ये पोस्ट आफिस वाले भी....। रिटायरमेन्ट के बाद भी चैन नहीं। उन्होंने तिक्त भाव से कहा। उनकी बातों से निराशा मेरे भीतर फिर से जन्म लेने लगी।
'क्या पता है? उन्होंने पूछा, 'नाम क्या है?`
'हिन्दू फैमिली है सर। आभास गौड़। फोर्टी थ्री कैंडोलिम। मैंने इतनी जल्दी से कहा कि कहीं वे बताने का इरादा न बदल लें। जो मैंने कहा वही उन्होंने धीरे-धीरे बुदबुदाया।
'पता तो कासाब्लांका का है। वे अभी भी बुदाबुदाकर बोल रहे थे, 'तुम बैठो, मैं भीतर होकर आता हूँ।
फिर उन्होंने थोड़ा तेज स्वर में कहा और मुझे अधीर छोड़कर भीतर चले गये। थोड़ी देर बाद वे लौटे, अपने लिए भी एक कुर्सी लेकर। वह थोड़ी देर मेरे लिए बहुत लम्बी प्रतीक्षा थी। अब हम आमने-सामने बैठे थे। मैं चेहरे पर उत्सुक भाव लिए उन्हें देखता रहा।

'तुम जानता है वो हिन्दू फैमिली को? उन्होंने सवाल किया।
'नहीं।`
'फिर किसलिए माँगता है उनका पता?`
'एक्चुली, मेरे पास मिस्टर आभास गौड़ का कुछ सामान है जो मैंने उनको वापस करना है।` मैंने कहा।
'क्या? क्या सामान?`
मैं चुप रहा। वह मेरी ओर देखते रहे।
'और वापस बोले तो? उनका सवाल जारी रहा।
'कुछ बहुत प्राइवेट सामान है। मैंने धीरे से कहा।
'उस फैमिली ने तुमको दिया था वो सामान?`
बूढ़ा पता नहीं मुझसे क्या पहेलियाँ बुझा रहा था। मुझे गुस्सा आने लगा। इस चूहे बिल्ली के खेल से मुझे इतना तो एहसास हो गया था कि उसे आभास के बारे में मालूम है। जैसा कि पोस्टआफिस वाले ने कहा था कि विल्सन को हन्डरेड पर्सेन्ट पता होयेंगा।
'जी नहीं। प्रत्यक्षत: मैंने कहा, 'गलती से उनका सामान मेरे पास आ गया था। मैं सिर्फ उनको देने आया हूँ। मेरे लिए वो फैमिली हन्डरेड पर्सेन्ट अजनबी है।`
बूढ़ा कहीं खो सा गया। उनकी आँखे ठहर गयीं थी। साँवले चेहरे और कई दिनों की बढ़ी दाढ़ी से उनके चेहरे से कुछ भी अनुमान लगाया जा सकता था। वे बीते दिनों के जाल में घिर गये थे।

'अपुन सोचता था......., फिर वह बोला, जैसे खुद से ही बात कर रहा हो, '.......हम अपने लोगों को ही तलाश करता है, जिन्हें हम जानता है, जो हमारा अपना है........पण टोटली स्ट्रेन्जर्स को तलाश करना, जिनसे हमारा कोई रिलेशन नहीं, कोई लालच नहीं। पण......अपना लोग भी कहाँ मिल पाता है.......।`
मुझे बिल्कुल समझ नहीं आया कि वे क्या कहना चाह रहे हैं।
'गौड़ फैमिली को पूछता है न तुम माई सन? अन्तत: उन्होंने शुरूआत तो की।
मैंने सहमति में सिर हिलाया।
'अच्छा फैमिली था पण वे तो यहाँ नहीं रहता.......।`
'कहाँ मिलेंगे वे?`
उन्होंने मेरे प्रश्न को अनसुना कर दिया।
'.....ही वाज वैरी गुड ब्वॉय। आभास.....नाइस गॉइ। वैरी लांग टाइम एगो, फर्स्ट टाइम वो मुझे पोस्टऑफिस में मिला था। अपने किसी लैटर के बारे में पूछता था। फिर डेली आने लगा पण उसका लैटर नहीं आया।` वे अतीत के कुएँ में कूद चुके थे और सालों से भरे पानी को बाहर फैंक रहे थे। मेरी धड़कनें तेज होने लगी। मुझे लगा, अभी आभास का पता चल जायेगा और कुछ देर बाद मैं उसके सामने होऊँगा।
'उन्हीं दिनों उसके फादर का डेथ हो गया था और वे कैंडोलिम से चले गये थे अपना सारा प्रापर्टी सोल्ड करके। बहुत बरस गुजर गया उस छोकरे को देखे हुए।`

'अब? अब कहाँ है वे? मेरे मुँह से निकला।
वे वर्तमान में लौट आये। उन्होंने मेरी ओर देखा और मुस्कराये।
'अल्टिनहो में।`
'अल्टिनो! ये कहाँ है? अधीरता मेरे स्वर से भी अधिक थी।
'पणजी में।
'वहाँ मिल जायेंगे न वे मुझे? मैं अभी भी अधीरता पर सवार था।
उनकी मुस्कराहट और बढ़ गयी।
'रिलैक्स माइ सन, रिलैक्स। उनके घर का पता तो मुझे भी नहीं मालूम पण इतना मालूम है कि वे अल्टिनहो में जॉगर्स पार्क के पास कहीं रहते हैं।`
'क्या ऐसे में मैं उन्हें खोज पाऊँगा? मेरे उत्साह पर बर्फ जमने लगी।
उनकी मुस्कान बढ़ती जा रही थी और रहस्यमय होती जा रही थी।
'लगता है तुमको रिलैक्स का मीनिंग नहीं मालूम? या मालूम?`
मैं उलझनपूर्ण चेहरे से उन्हें ताकता रहा।

'पणजी मार्केट में उनकी गौड़ बद्रर्स के नाम से कैश्यूनट का बहुत बड़ा शॉप है। मार्केट में किसी भी कैश्यू शॉप से पूछना वो बता देगा। वे पूर्ववत उसी मुस्कान सहित बोले, 'वहीं तुम्हें आभास मिल जायेगा। उसे मेरे बारे में बताना कि विल्सन उसे बहुत मिस करता है।`
मेरी मन्जिल सिर्फ एक पड़ाव दूर थी। पत्र का मालिक बस मिलने ही वाला है। उनका बहुत-बहुत धन्यवाद करता हुआ मैं वहाँ से निकल पड़ा।

कैंडोलिम से बस से मैं पणजी पहुँचा और वहाँ से मार्किट। कुछ देर के प्रयास से ही मुझे एटीन्थ जून रोड स्थित 'गौड़ बद्रर्स` नाम की काजू की दुकान मिल गयी। दुकान देखते ही मेरा दिल जोर से धड़कने लगा था। पत्र मेरी जेब में था और उसका मालिक दुकान के भीतर होगा। हो सकता है उसे याद ही न हो इस पत्र की। जिस तरह मैं बेकरार हो रहा हूँ ये पत्र उसके मालिक को पहुँचाने को, हो सकता है वह इस बात को उदासीनता से ले। हो सकता है वह पत्र ले ले और धन्यवाद कहे बिना ही नमस्ते कर दे। हो सकता है कि....। लक्ष्य पर आकर मैं ये सारी बातें सोच रहा था जिन्हें मैंने सबसे पहले सोचना था। अब जो होना है वो होना ही है। यहाँ तक आना ही मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी। मैंने दुकान में प्रवेश किया। काउन्टर पर तीन लोग थे जिनमें से दो लोग अन्य ग्राहकों के साथ बिजी थे।
तीसरा मेरी ओर आकर्षित हुआ।

'मुझे मिस्टर आभास से मिलना है। मैंने धैर्यपूर्ण स्वर में कहा।
'वे तो नहीं हैं। मुझे बताइये, क्या काम है? उसने व्यवसाय सुलभ स्वर में कहा।
मैं एक क्षण हिचकिचाया और कहा, 'मुझे उनसे ही काम है।`
उसने मुझे गौर से देखा और फिर काउन्टर के दूसरी तरफ देखता हुआ बोला, 'संचित सर, ये बड़े साहब के बारे में पूछ रहे हैं।`
संचित सर ने मेरी ओर देखा और मैंने उसे।
'भाई साहब तो नहीं है, मैं उनका छोटा भाई हूँ, आप मुझे बता सकते है क्या काम है? संचित ने कहा।
'मुझे उन्हीं से ही मिलना है। मैंने फिर वही बात कही।
'आप कहाँ से है? उसने पूछा।
'मैं दिल्ली से आया हूँ।`
'दिल्ली!!, वह उलझनपूर्ण स्वर में बोला, 'दिल्ली से आये हैं आप?`
'जी हाँ। मैंने संक्षिप्तता से कहा।
'क्या काम है आपको? उसने फिर वही सवाल किया।
मैं चुप रहा। बार-बार एक ही बात का एक ही जवाब देना व्यर्थ था।
'क्या नाम आपका? उसी ने पूछा।
'नील।`

उसने काउन्टर के भीतर से अपना मोबाइल उठाया। इसी दौरान वह जिससे मैंने सबसे पहले बात की थी, उन ग्राहकों को अटैंड करने लगा था जिन्हें संचित ने छोड़ा था। अब मोबाइल उसके कान में लगा था और वह मेरा जायजा लेता हुआ मुझे देख रहा था।
'भइया प्रणाम...कोई नील नाम का लड़का दिल्ली से आया है आपसे मिलने... क्या?... आपसे ही काम है...अब ये तो मालूम नहीं...कराता हूँ। उसने मोबाइल मेरी ओर बढ़ाया और कहा, 'लो भइया से बात कर लो।`
मैंने मोबाइल अपने कान पर लगाया। मेरा दिल जोर से धड़का और साँस भारी हो गयी।
'नमस्ते सर। भारी साँसों के बीच से बड़ी मुश्किल से निकला। संचित एकटक मुझे देख रहा था और बाकी दोनों लोग भी रह-रहकर।
'नमस्ते। क्या आप मुझे जानते हैं? दूसरी ओर से कहा गया।
'नहीं सर। हम अजनबी हैं। लेकिन मैं दिल्ली के पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट क्वाटर्स से आया हूँ।`
'कहाँ से? वहाँ से पूछा गया।
'पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट क्वाटर्स से। आपने वहाँ कुछ भेजा था, सर। मैंने रहस्यमय स्वर में कहा।
'मैंने भेजा था वहाँ? क्या? क्या भेजा था? उधर उलझनें बढ़ती जा रही थी।
'जो चीज किसी और को मिलनी थी वो मुझे मिली है, सर। और आपकी वह अमानत मेरे पास है। मैंने रहस्यमयता बरकरार रखी।

'मेरी अमानत! आपके पास? एक मिनट, एक मिनट, एक मिनट...हे भगवान! वो लैटर आपके पास है? है न, वही है न? दूसरी ओर से जो स्वर मुझे सुनाई आ रहा था, उसकी अधीरता मुझसे भी अधिक थी।
'जी सर। वही है मेरे पास। मेरे चेहरे पर मुस्कराहट आ गयी।
'आप संचित को फोन दो।`
मैंने फोन वापस संचित को दे दिया।
'जी भइया। उसने कहा। '...जी...जी....जी..'....ठीक है भइया।`

इतने भावपूर्ण पत्र को लिखने वाला कठोर हो ही नहीं सकता। वह भूल ही नहीं सकता। वैसे भी वह पत्र भूलने वाला नहीं है। मैं सोचता हुआ चैन की लम्बी साँस ले रहा था। संचित ने मुझे नये सिरे से देखा। 'जयेश, उसने उसी व्यक्ति को कहा जिससे मेरी पहले बात हुई थी, 'इनको तुरन्त घर ले जाओ, भइया ने बुलवाया है।`

जयेश ने सहमति में सिर हिलाया और काउन्टर से बाहर आने लगा। कुछ देर बाद मैं जयेश के साथ उसके होण्डा स्कूटर पर उसके पीछे बैठा हुआ एटीन्थ जून रोड पर दौड़ रहा था। अब मैं सचमुच चैन में था। एक बहुत बड़े सफेद रंग के चर्च के पास से हम लोग गुजरे। तभी उस चर्च का घण्टा बजा। मैंने आँखे बन्द कर ईश्वर का ध्यान किया। वहाँ से जिस सड़क पर हम मुड़े, साइनबोर्ड पर मैं उसका सिर्फ एग्नेलो रोड पढ़ पाया। वह चढ़ाई वाला रास्ता था। शायद हम अल्टिनो जा रहे थे। पत्र अपने मालिक से मिलन को कुछ ही क्षण दूर था। तेईस साल बाद पत्र जिसको मिलना चाहिए था उसे न मिलकर उसके मालिक को वापस मिलने वाला था।

और कुछ देर बाद हम जॉगर्स पार्क के सामने बनी बहुत सी कोठियों में से एक के सामने थे। वह हल्के बादामी रंग की भव्य इमारत थी। गोवानी स्थापत्य का बेहतरीन नमूना। जयेश मुझे भीतर ले गया। हम बेहद सुरूचिपूर्ण ढंग से सजे ड्राइंगरूम में थे। मेरी धड़कनें फिर बढ़ गयीं थी। जयेश ने मुझे बैठने का इशारा किया और भीतर कहीं चला गया। कुछ क्षणों बाद वह एक सुन्दर और गरिमामयी महिला के साथ लौटा।
'यही दिल्ली से आये हैं साहब से मिलने। उसने मेरी ओर इशारा करके उन्हें बताया।
महिला ने मुझे नजर भरकर देखा। मैंने उन्हें 'नमस्ते` कहा।
'ठीक है, मैं जाता हूँ। जयेश ने कहा और बाहर निकल गया।
वे अभी भी मेरी ओर ही देख रहीं थी। उन्होंने हाथ आगे बढ़ाया।
'लाओ। उन्होंने कहा।
'क्या? मैं हड़बड़ाया।

तभी एक पुरूष ने कमरे में प्रवेश किया। मैंने हड़बड़ाते हुए ही उन्हें देखा। वे मुस्कराये तो मैंने उन्हें भी नमस्ते कहा। वे पैंतालिस-पचास वर्षीय पुरूष थे। 'आभास` मेरे मन ने फौरन कहा।
'मैं आभास हूँ। उन्होंने अधीर स्वर में कहा, 'आप नील हैं न? आप ही मेरा पत्र लाये हैं न?`
मुझसे कुछ कहा नहीं गया। मुझे लगा मेरा गला अवरूद्ध हो गया है। मैंने सिर्फ हौले से सिर हिलाया।
महिला का हाथ अभी भी मेरी ओर बढ़ा हुआ था लेकिन अब उनकी आँखों में आँसू थे।
'पत्र दे दो नील, प्राप्त करने वाले का हाथ बढ़ा हुआ है। आभास ने धीरे से कहा।
मैं चकरा गया।

'अनुरीति......जी!!, मेरे मुँह से निकला।
महिला के आँसू बह निकले। मैं सोते से जागा और जल्दी से पत्र निकालकर उनके हाथ पर रख दिया। उन्होंने पत्र को अपने माथे से लगाया और भीतर चली गयीं।
'बैठो, बेटा। आभास के स्वर ने मेरी तन्द्रा भंग की। एक सम्मोहन या तिलिस्म सा जो बना था, वह टूट गया।
मैं बैठ गया और वे मेरे सामने। बैठते ही नौकर पानी दे गया। पानी पीने तक वहाँ खामोशी रही।
'बेटा, तुम्हें कब मिला ये पत्र? मैंने तो उन्नीस सौ पिच्चासी में भेजा था। उन्होंने कहा।
'यही कुछ बीस-बाईस दिन पहले। मैंने संक्षिप्त स्वर में कहा। और फिर मैंने बिना उनके पूछे ही अब तक का किस्सा बता दिया। इस दौरान उनके मुख पर वेदना, उत्साह, हर्ष की छायाएँ आती जाती रहीं।
'बेटा, तुमने मुझे बचा लिया। मुझे सच्चा साबित कर दिया। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा।
मैं 'कैसे` तो कह नहीं पाया लेकिन मेरे चेहरे पर बहुत बड़ा-बड़ा कैसे उन्होंने पढ़ लिया।

'तुम मेरा पत्र लेकर आये हो बल्कि संजीवनी लेकर आये हो तो तुम्हें तो सब कुछ बताना ही पड़ेगा.....।` वे ठहर गये। उनका चेहरा, उनकी आँखें, कमरे में मौजूद हर वस्तु, मैं खुद और शायद समय भी। सब कुछ ठहर गया। वे ठहर गये और पीछे लौट गये, सन उन्नीस सौ पिच्चासी में, मैंने सोचा।
'पत्र तो मैंने लिख दिया था और उसे पोस्ट भी कर दिया था और ये सोचा था कि दस-बीस दिनों में ही 'हाँ या ना` का मालूम हो जायेगा और मैं स्वतंत्र हो जाऊँगा। उन्होंने कहना आरम्भ किया, 'लेकिन जो हम सोचते है वही नहीं होता, बाकी सब कुछ होता चला जाता है। दो महीने बीत गये थे, दिल्ली से कोई जवाब नहीं आया। मैंने सोचा लड़की नाराज हो गयी होगी या वह किसी और को चाहती होगी। किस्मत को मानते हुए मैं हारकर बैठ गया और करता भी क्या? मेरे पास सम्पर्क का कोई और जरिया भी नहीं था। इसी दौरान मेरे पिता की मृत्यु हो गयी। क्या पिता की मृत्यु किसी पुत्र के लिए वरदान हो सकती है? मेरे लिए हुई थी.....। वे कुछ क्षण रुके। मैं मंत्रमुग्ध सा उन्हें देख रहा था। वे मुझे नहीं देख रहे थे, वे किसी को नहीं देख रहे थे, वे तो अतीत की यात्रा में गुम थे।

'...उनकी मृत्यु के शोक में अनुरीति के पिता आये थे और उनके साथ अनु भी.......। उसके आने की वजह मैं था। उसने सिर्फ इतना कहा था कि कहीं और शादी होने से पहले उसे उसके पिता से माँग लो। वह तभी जान गयी थी कि मैं उसे चाहने लगा हूँ लेकिन पहल न करने की वजह से उसने मुझे कायर कहा था। मैंने उसे अपने पत्र के बारे में बताया था तो उसने मुझे झूठा कहा था कि जो कह नहीं सकता वह पत्र भी नहीं लिख सकता और अगर लिखकर भेजा भी था तो हो ही नहीं सकता कि वह पहुँचे न, उसके कहने का मतलब था कि मैंने ऐसा कोई पत्र नहीं लिखा था और आज तक भी मैं झूठा ही था। मैने उसी दिन हिम्मत की और अनु के पिता से उसे माँग लिया था। वह उपयुक्त समय नहीं था लेकिन उसके बाद उपयुक्त समय मुझे कभी नहीं मिलने वाला था। वे बहुत असमंजस में हो गये थे कि वे आये तो थे शोक प्रकट करने लेकिन एक खुशी भरा प्रस्ताव उन्हें मिल रहा था। वापसी में खुशियाँ लेकर गये। किसी को कोई असुविधा नहीं हुई, किसी को कोई परेशानी नहीं हुई। पिता की पहली बरसी के बाद हमारा विवाह हो गया और सफेद कबूतरी मुझे मिल गयी। वे मुस्कराये और मुझे देखने लगे, 'मैं आज भी कभी-कभी उसे सफेद कबूतरी कहता हूँ।`

मैं झेंप सा गया। वे बहुत ही निजी बातें मुझे बताने जो लग गये थे।
'मैं अपनी कबूतरी को लेकर आता हूँ। अब तो उसने कई बार पत्र पढ़ लिया होगा। उन्होंने कहा और उठकर भीतर चले गये।

किसी की भटकी, खोई हुई खुशियाँ मैंने लौटा दी थी। मैंने अपने भीतर गर्व सा अनुभव किया। कैलंगूट पर बीयर पीते हुए जो मैं सोच रहा था मुझे वो बात याद आई। आभास भी बदकिस्मत नहीं निकला और न ही मैं। मुझे आभास और अनुरीति दोनों ही मिल गये। अनुरीति जब दोबारा कमरे में आयीं, तो उनकी आँखों में आँसू नहीं थे बल्कि एक गहरी, खुशी भरी चमक थी। वो एक ऐसी खुशी थी जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। मैं उनकी उस खुशी का कारण जानता हूँ मगर मैं भी उसे बता नहीं सकता, समझा नहीं सकता। शायद कोई नहीं समझा सकता।

उन्होंने मुझसे मेरे क्वार्टर के बारे में पूछा, जहाँ वे कभी रहती थीं। उन्होंने मुझसे जामुन के पेड़ के बारे में पूछा, जो उन्होंने अपने हाथों से क्वार्टर के पिछवाड़े में लगाया था। उन्होंने मुझसे उस खम्भे के बारे में पूछा जो उनके कमरे की खिड़की से दिखाई देता था और रात में जिसका बल्ब लुपझुप करता रहता था। उन्होंने मुझसे यह पूछा, उन्होंने मुझसे वह पूछा। मैं हैरान था कि मैं इतने सालों से वहाँ रह रहा हूँ मगर मैं अपने क्वार्टर के बारे में सच में कुछ नहीं जानता।

गोवा में यह मेरा दूसरा दिन था। मेरे बीत चुके और आने वाले जीवन का बहुत यादगार दिन लेकिन अभी बहुत कुछ बाकी था। मैं अगले तीन दिनों तक उनका मेहमान बनकर रहा। मेरी वापसी टिकट तुरन्त कैन्सिल करा दी गयी थी और पूरा गोवा मुझे इन दिनों में दिखा दिया गया। इनमें वे चीजें भी सम्मिलित थीं जो आभास ने अपने पत्र में लिखी थीं। अब मैं उनके परिवार का सदस्य बन गया था। दोनों ने मुझसे मेरा हनीमून गोवा में मनाने का वादा लिया। मैं हवाई जहाज से दिल्ली लौटा-सौजन्य आभास और अनुरीति।
अन्तत: तेईस साल की यात्रा समाप्त हुई।

प्रस्तुत रचना काल्पनिक है. किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है. स्थानों के नाम सिर्फ कहानी को रोचक एवं प्रमाणिक बनाने के लिए प्रयोग किये गए है.

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